सितंबर 28, 2021

हिंदी हिंदी के शोर में

 

                               


हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश और हिन्दी भाषी राज्यों के दिल से और दूसरे हिमाचल में कहीं से । दो चार दिनों की आपसी मुलाकातों के बाद एक दिन मैंने उनसे पूछ लिया कि साब हिन्दी में आजकल आपलोग क्या क्या पढ़ रहे हैं ! उनकी पढ़ी जाने वाली किताबों में यूजीसी नेट की गाइड, प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए ज़रूरी हिन्दी की किताबें ही थी । साहित्य के बारे में पूछने पर महादेवी , प्रेमचंद से आगे बढ़कर निराला - मुक्तिबोध तक ही नाम मिले । उसके बाद के कुछ नाम यूँ ही दिये कि वे परिचित हों उनका लिखा कुछ पढ़ा हो और याद न आ रहा हो ! नई कहानी , नई कविता से लेकर समकालीन लेखन तक के नामों के बारे इनका नाम सुना हुआ हैही सुनने को मिला ।

 

हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं को रोजगारोन्मुख पत्रिकाओं ने उनके दृश्य क्षेत्र से बाहर कर दिया । समकालीन हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण काम भी उनके लिए वस्तुनिष्ठ प्रश्न के एक उत्तर बराबर हैसियत ही रखते हैं, शेष कुछ नहीं ! सार सार को गहि रहे थोथा देत उड़ाय ! उन्होंने उतना ही पढ़ा जितना उन्हें नौकरी दिला दे उसके बाद का सारा साहित्य पड़ा रहे अपनी बला से ! अपरिग्रह की इस प्रक्रिया में उन अध्यापकों का योगदान कम है ।

 

हिन्दी भाषा को बरतने वाले लोग बहुत हो सकते हैं लेकिन उनसे रोजगार के बाज़ार का काम नहीं चलता । दसवीं के बाद हिन्दी पढ़ने वालों में ज़्यादातर वे लोग होते हैं जो अंकों की लड़ाई में पिछड़ जाते हैं । बहुत कम होते हैं जो अपनी मर्ज़ी से हिन्दी पढ़ते हैं । दसवीं के बाद की हिन्दी की दुनिया हीनताबोध की दुनिया है जो लगातार साथ चलती है । कहीं-कहीं आत्मविश्वास बचा रहता है तो वहाँ खूब सारा अंतरानुशासनिक अध्ययन होता है । लेकिन वह भी हिन्दी की हीनता से भागने का ही काम है क्योंकि आम तौर पर हिन्दी का पाठ्यक्रम किसी भी प्रकार की समकालीनता , दुनिया से जुड़ने आदि से परहेज करता है । यहाँ मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले अपने एक मित्र याद आ रहे हैं । वे पहले प्रयास में जेआरएफ हासिल करने वाले विद्यार्थी रहे । उन दिनों आज की तरह खूब सारे जेआरएफ नहीं होते थे । जाड़ों के दिन खत्म हो रहे थे और कला संकाय में बाहर धूप सेंकने वाले विद्यार्थियों की संख्या निरंतर कम हो रही थी । एक समाचार चैनल के कुछ लोग ग्लोबल वार्मिंग पर बाइट लेने के लिए घूम रहे थे (दिल्ली विश्वविद्यालय में इस तरह के अवसर बहुत मिलते थे) । उनमें से एक रिपोर्टर ने उक्त मित्र से ग्लोबल वार्मिंग के बारे में जानना चाहा । मित्र उसे मना कर देते तो ठीक था लेकिन मना करते हुए उनका कथन हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों की स्थिति ज्यादा स्पष्ट करता है – हम हिन्दी के विद्यार्थी हैं , हमें नहीं पता ।

 

यह कहा जा सकता है कि कुछ ही उदाहरणों से बात कही जा रही है और कुछ लोग यह साबित करने भी आ जाएँगे कि वे हिन्दी पढ़ने के बावजूद बहुत सी बातें जानते हैं , अलग अलग विषयों में दखल रखते हैं । ऐसे लोग सोशल हैं लेकिन बहुत नहीं । और जो हैं वे अपनी इस पहचान से भागते रहते हैं । देश भर में फैले हिन्दी विभागों में बिना गए भी यदि कोई यह कहना चाहे कि हिन्दी पढ़ रहे विद्यार्थियों को किस तरह कूपमंडूक की तरह रखा जा रहा है तो इन सबसे संबद्ध विश्वविद्यालयों के हिन्दी विषय का पाठ्यक्रम पढ़कर कह सकता है । हिन्दी में पढ़ायी जाने वाली बातें जीवन से नहीं जुड़ती । वे जीवन से तो बाद में जुड़ेंगी पहली हिन्दी की ही समकालीनता से नहीं जुड़ती ।

 

बहुत क्रांतिकारी पाठ्यक्रम होगा तो उदय प्रकाश की कोई रचना शामिल कर लेगा । नए नाम और भी आ सकते हैं लेकिन देखना पड़ेगा कि वे पाठ्यक्रम में किस रूप में आते हैं । पाठ्यक्रम में रचनाओं को शामिल करने पर बहुत सी बातें हो सकती हैं उसे गठजोड़ और राजनीति से जोड़ा जा सकता है लेकिन समकालीन प्रवृत्तियों को शामिल करने से कौन रोकता है ? समकालीन लेखक की रचनाओं की बजाय हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ा एक पेपर पढ़ाने से कई सारे सवाल एक साथ हल हो सकते हैं ।

 

हमारे हिन्दी के विभाग विद्यार्थियों को हिन्दी पढ़ाते हुए केवल प्रोफेसर बनने की तैयारी कराकर बड़ी चूक कर देते हैं । महाविद्यालयों में नौकरी पा सकने वाले बहुत कम होते हैं फिर उनके पास विद्यालय , पत्रकारिता और दूसरे विकल्प ही रहते हैं जिनकी उनके पास कोई तैयारी और रुचि नहीं होती । स्कूल के विध्यार्थी हिन्दी साहित्य के बड़े पाठक बन सकते हैं लेकिन उनके अध्यापकों का प्रशिक्षण ही इतना संकीर्ण होता है कि वे झट से अंक व्यवस्था में फिट होकर हिन्दी को महज़ गद्यांश और प्रश्नोत्तर में समेटने के आदि हो जाते हैं ।  

सितंबर 09, 2021

संस्थानों की रैंकिंग या नए तरह का सामंतवाद


 


 

अपने देश की शैक्षिक संस्थाओं की रैंकिंग आयी है । उच्च स्थानों पर अधिकांश वही संस्थान हैं जो पहले से ही श्रेष्ठमान लिए गए हैं और खबरों में जगह भी वही बना पा रहे हैं । निचली सीढ़ीयों पर कौन से संस्थान हैं यह जानने की दिलचस्पी किसी की नहीं और वे वहाँ क्यों हैं इसके लिए तो सोचने की ज़रूरत भी नहीं ठहरी ! जबकि देश भर में सबसे ज्यादा विद्यार्थी वहीं नामांकित हैं जिनके बारे में किसी को नहीं जानना है ।

 

हमारे देश की शैक्षिक संस्थाएँ एक सी नहीं हैं । न तो उनका निर्माण एक से मानकों पर हुआ है न ही उनके चालन – संचालन में कोई एकरूपता है । एक ही तरह के नाम वाली संस्था होने पर भी उनमें समानता का अभाव है। मसलन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को लेते हैं । इनकी तर्ज़ पर अलग अलग जगहों पर खूब सारे एम्स खुले लेकिन क्या वे सब दिल्ली वाले एम्स की बराबरी कर पाये ? इसका उत्तर नहीं ही होगा चाहे कोई भी मानक ले लें । यही हाल बड़े बड़े विश्वविद्यालयों के अलग अलग खुले कैंपस के साथ भी है । भारतीय जनसंचार संस्थान के दिल्ली और ढेंकनाल परिसरों का स्तर एक समान नहीं है ।

 

संस्थाओं के निर्माण और उनको बरतने में बड़ी - बड़ी खामियाँ हैं । नाम घोषित कर देने से उनका स्तर नहीं बन जाता । उनके निर्माण में अध्यापक , आधारभूत संरचनाओं , सभी तरह के विद्यार्थियों की ज़रूरत को समेट सकने वाली व्यवस्था आदि यदि वर्षों तक लागू हो तो उनका नाम बनता है । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय एक बड़ा विश्वविद्यालय है आये दिन आने वाली रैंकिंग में उसका नाम ऊपर भी आता है लेकिन क्या उसके वर्तमान स्वरूप को स्तरीय कहा जाएगा ? वहाँ की आज़ाद खयाली ने जो प्रतिष्ठा दिलायी थी उसे भोथरा बना दिया गया , किसी भी पृष्ठभूमि से आने वाले विद्यार्थियों का वहाँ दिल खोलकर स्वागत होता था जो तरह तरह के नियमों के आ जाने से अब उतना प्रभावी नहीं रह गया इसके बावजूद उसका स्थान ऊपर है । यह बताता है कि रैंकिंग के तरीके में अन्य जो भी बातें हों लेकिन सबको साथ लेकर चलने , हाशिये पर खड़े लोगों को बेहतर शिक्षा देने और शिक्षा की सामाजिक ज़िम्मेदारी तय करने वाले मानक नहीं ही हैं । और अगर हैं तो उनकी स्थिति केवल खानापूर्ति करने के लिए है ।

 

बेरोज़गारी की दर , गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोग , साक्षारता की स्थिति , जाति आधारित भेदभाव आदि के आँकड़ों से स्पष्ट पता चलता है कि हमारा समाज हाशिये पर रह रहे लोगों से बना है । लेकिन इसकी बागडोर आभिजात्य चेतना से ओतप्रोत मुट्ठीभर लोगों के पास है । उस चेतना के लिए रेंकिंग ज़रूरी है ताकि वहाँ से आने वाले विद्यार्थी यह चयन कर सकें कि उन्हें कहाँ पढ़ना है और इससे उनकी सांस्कृतिक पूंजी कितनी समृद्ध होगी , कितने ऐसे संपर्क बनेंगे जो जीवन में अलग अलग अवसरों पर काम आएंगे । जबकि हाशिये पर जी रहे परिवारों के बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करना ही बहुत बड़ी बात है । वहाँ संस्थान के चयन की बात ही नहीं आती और आ भी जाये तो उन महाविद्यालयों , विश्वविद्यालयों को लालसा से देखने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं रह जाता । ऐसी अधिकांश संस्थाओं में अंकों के आधार पर प्रवेश मिलता है अर्थात जिनके ज्यादा अंक होंगे वही उनमें पढ़ पाएंगे बाकी विद्यार्थी कहीं और जाइए ! यह तरीका अपने आप में भेदकारी है । ऊपर से जहाँ परीक्षाएँ होती हैं वहाँ के लिए तैयारी , और तैयारी पर आने वाला खर्च व समय मिलना दुर्लभ है । साथ में उन सस्थाओं की भारी फीस उनके बारे में सोचने से भी रोकती है ।

 

पढ़ने लिखने की प्रक्रिया की बहुत सी मांगें हैं । उनको पूरा किए बिना अच्छे अंक पा जाना सरल नहीं है । विरले ऐसे होते हैं जो तमाम बाधाओं को पार कर बढ़िया अंक हासिल कर लेते हैं । पढ़ने के लिए एकांत , रोशनी की एक व्यवस्था , सहायक पारिवारिक वातावरण उन जगहों पर मिल पाना दुर्लभ है जहाँ दो वक़्त की रोटी का इंतज़ाम पहली प्राथमिकता है । ऐसे गुरुभक्त आरुणिजैसे फ़र्जी प्रेरक किस्सों से काम नहीं चल पाता । तथाकथित अच्छी संस्थाओं में सबके लिए जगह नहीं है इसलिए प्रतिस्पर्धा ही इतनी कड़ी कर दी जाती है  कि विद्यार्थियों के पास स्वयं को दोष देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है ।

 

हमारे संस्थान एक से नहीं हैं ऐसी स्थिति में एक ही सूत्र से उन्हें जाँचा जाना न्यायसंगत नहीं ठहरता । इस तरह की रैंकिंग उन विश्वविद्यालय और महाविद्यालय हैं उनकी शैक्षिक प्रक्रिया और स्तर पर कोई भी दृष्टि डालने से रोकते हैं , जहाँ वंचित तबके के विद्यार्थी पढ़ते हैं । ऐसे संस्थान ज्यादा हैं , उनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या बहुत है लेकिन हमारे लिए रैंकिंग ही सबकुछ है !  

अगस्त 30, 2021

अलबेली सब कह सकती है, इसलिए मुझ से जन्म कर भी वह मुझ से बहुत आगे है

 

 

 

अपराजिता के कई परिचयों में से एक उनका कलाकार रूप है । वे जिस संजीदगी से कला को जीती हैं और जिस तरह उनका कलाकार सरोकारों से जुड़कर जन पक्षधर बना रहता है , वह जानने - समझने की ख़ूब लालसा थी । उसके वशीभूत उनसे कुछ प्रश्न पूछने की इच्छा ज़ाहिर की और वे इसके लिए सहज तैयार हो गयी । 


 

             मेरा उनसे लंबा परिचय है । उनसे चार – पाँच बार मिलने का सुअवसर मिला और हर बार दिल्ली विश्वविद्यालय का परिसर ही केंद्र में रहा । CAB के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों में वे आर्ट्स फ़ेकल्टी के बाहर विद्यार्थियों का हौसला बढ़ा रही थी तब आख़िरी मुलाक़ात हुई । कोरोना न होता तो उनसे मिलकर ये प्रश्न पूछे जाते । मेरे अनगढ़ सवालों के इतने विस्तृत और गहरे उत्तर देने के लिए उनका आभार । आइये उनकी कला-यात्रा से रु–ब-रु होते हैं ।   

 

आलोक रंजन  : महाविद्यालय में हिंदी के अध्यापन , घर के दायित्वों के साथ साथ कला का सामंजस्य किस प्रकार बिठाती हैं आप ? यह प्रश्न इसलिए कि इन तीनों में से कोई भी कार्य अंशकालिक नहीं है ।

 

अपराजिता : यह सामंजस्य बैठाने से अधिक अपने को तलाशने, तराशने की प्रक्रिया अधिक है मेरे लिए।घर और काम दोनों जगहें, मेरे भीतर की कला को धार देती हैं।जिन भी विषयों पर मैं चित्र भाषा में अपनी बात कहती, रंगों से सौंदर्य को सींचती-पोसती हूँ वह इन्हीं दो कर्म क्षेत्रों से अपना खाद-पानी पाता है।

घर मेरे खुला कैन्वस है और कॉलेज का वातावरण उस कैन्वस पर उकेरे जाना वाला विषय है, विचार है।

 

साहित्य ने मुझे संवेदना के स्तर पर अधिक गहरा किया है, अभिव्यक्ति के धरातल पर मैं कला में जितने भी प्रयोग करती हूँ या करने का साहस करती हूँ (बिना किसी फ़ॉर्मल आर्ट ट्रेनिंग के) वह अध्यापन कार्य की प्रेरणा से ही सम्भव हुआ है।जब आप मिरांडा हाउस जैसे संस्थान में अपना अधिकांश समय युवा विचारों और योग्यता के बीच बिताते हैं तो भीतर का सजग कलाकार उससे बहुत कुछ सीखता चलता है।इसलिए मैं चाहे घर गृहस्थी की ज़िम्मेदारी हो या कार्यस्थल की व्यस्तता, कला को इन दोनों को समान रूप से जोड़कर चल पाने का कारण मानती हूँ।

 

आलोक रंजन : आपने किताब के लिए इलस्ट्रेशन बनाए हैं , हिमोजी की एक श्रृंखला ही खड़ी कर दी, अलबेली आयी और फिर चित्रगीत माला । अपनी कला यात्रा में इसे एक विकासक्रम की तरह देखती हैं या आपके ये कार्य अपने भीतर ही एक विकासशील यात्रा की क्षमता रखते हैं ?

 

अपराजिता :  हिमोजी (हिंदी चैट स्टिकर) वह पहला कलात्मक काम था जिसके कारण आप सबके बीच मुझे एक कलाकार के रूप में भी पहचान मिली लेकिन कला से मेरा प्रेम पुराना है। लगता है जैसे पढ़ने समझने की उम्र की शुरुआत से ही मैं एक कला यात्रा पर हूँ।

 

मिट्टी के खिलौने बनाने वाली छोटी अपराजिता, माँ के तीज-त्योहारों के चित्र, अल्पना, माँडने बनाती थी तो लोग कहते कलाकार है। भीतर का कलाकार भले कला में शिक्षा ना ग्रहण कर सका हो पर अपने परिवेश को देखने परखने की सलाहियत से मंझता चला गया। लोक कलाओं में बहुत रूचि थी तो वह भी बहुत दिनों तक किया, फिर स्केचिंग, कार्टूनिंग, ऐब्स्ट्रैक्ट कई तरह की विधाओं में काम किया। एक समय जब काम, पढ़ाई, बीमारी और व्यस्तताओं का बोझ ज़्यादा हो गया तो सब बंद भी किया। लेकिन जो बना ही रंग-रेखाओं से हो वह अपनी अभिव्यक्ति के और कहाँ जाएगा, कला ही की शरण में।कला ही मेरी शरणस्थली है, मेरी भाषा है, अभिव्यक्ति का माध्यम है।

 

हिमोजी, अलबेली, चित्रगीत इसी अभिव्यक्ति के अलग-अलग पड़ाव हैं। हिमोजी के पात्रों की देह-भाषा (चैट स्टिकर की अपील और इमोशंज़) को जब हिंदी समाज ने गहराई से समझा और सराहा तब लगा भाषा को कला के ज़रिए भी तो एक नया तेवर दिया जा सकता है।

 

यहीं से अलबेली का जन्म हुआ। अलबेली की दुनिया में जितने भी राजनीतिक सामाजिक मुद्दे हैं अलबेली उन सबसे प्रभावित भी होती है और अपनी बात को सबके बीच कहने का साहस भी रखती है। यह साहस मेरे भीतर (एक व्यक्ति के तौर पर) उतना नहीं, जितना मेरी भाषा के पास है। भाषा तो सबकी सांझी है, अगर वही दब्बू-डरपोक हो गयी तो फिर अभिव्यक्ति के ख़तरे कौन उठाएगा…… अलबेली सब कह सकती है, इसलिए मुझ से जन्म कर भी वह मुझ से बहुत आगे है।

 

मेरी कला यात्रा में बड़ा योगदान सोशल मीडिया और रोज़ बदलती टेक्नीक का है।चित्रगीत इसी का परिणाम हैं।आप कला के साथ-साथ तकनीक को भी एक्सप्लोर कर रहे हैं दिन प्रतिदिन। अपने समय से यह जुड़ाव आपकी कला (भाषा) में भी झलकना चाहिए।बिना तकनीक के चित्रगीत शृंखला सम्भव नहीं थी।हाँ, फ़िल्मी गीतों के भीतर जिस गहरी भाव-सम्वेदना हम उसके लोकप्रिय, बाज़ारूपन के कारण नहीं देख पाते उन्हें महसूस करने की भी कोशिश है चित्रगीत।

 

शब्द और संगीत के इस अनोखे जादू को जो हिंदी सिनेमा की अपनी विशेष थाती है मैं चित्र भाषा में संजोने का काम भर कर रही हूँ।

किताबों के आवरण बनाना अपने कलाकार को भाव, सम्वेदना, कला और समझ के चुनौती देने जैसा है। वह मैं जब-जब कोई अच्छी योजना आएगी, करती रहूँगी।

 

आलोक रंजन : अलबेली को आपने समकालीन समाज - राजनीतिक परिस्थितियों पर टिप्पणी के लिए चुना । कई बार वे सामाजिक सौहार्द्र चाहने वालों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनी । मॉब लिंचिंग , जेएनयू हमला या फिर किसान आंदोलन अलबेली सोशल मीडिया में विरोध के प्रतीक के रूप में खड़ी दिखी । यह किस प्रकार संभव हुआ ?

 

अपराजिता : अलबेली एक जीता-जागता चरित्र है। वह आज़ाद हिंदुस्तान में पैदा वह स्त्री है जिसके पास पढ़ने-बोलने-चुनने का संवैधानिक अधिकार है।अपने इस अधिकार के इस्तेमाल के साथ ही वह हर स्त्री का प्रतिरूप है। उसकी पहचान, वेश भूषा भले भौगोलिक सीमा विशेष की हो लेकिन उसके विचार सर्वकालिक, सार्वभौमिक हैं।

 

वह जन की पक्षधर है तो स्वाभाविक है उसका विरोध का प्रतिरूप होना।और फिर कला, केवल सौंदर्य का प्रतिपादन तो नहीं, और सौंदर्य भी क्या केवल सुंदर ही के संदर्भ में जीवन में उपस्थित है।

सौंदर्य तो बोध है, पसीने में भी है, लहू में भी, जीवन में भी है, संघर्ष में भी।अलबेली की देह भाषा उस कला से जन्मी है जो हमारे जीवन के संघर्षों से जन्मी है, जो हमारे बारे में है, हमारे सरोकारों के बारे में है। सरोकारहीन कला गैलरियों की दीवारों पर सजा दी जाए, अलबेली तो सड़क पर उतरेगी, फ़ेसबुक को वॉल-वॉल भटकेगी, मॉब लिंचिंग पर आक्रोश व्यक्त करेगी, आज़ादी के नारे लगाते हुए आँख में किरकिरी की तरह चुभना पसंद करेगी। कला कला के लिए नहीं, हमारे जीवन को बदलने, परखने बेहतर करने के लिए है, अलबेली यही करेगी।

 

आलोक रंजन : आजकल एक तरह का अघोषित आपातकाल चल रहा है । अभिव्यक्ति के खतरे हैं । कार्टूनिस्ट निशाने पर लिए जा रहे हैं । इस माहौल में अलबेली की उपस्थिति से आपको डर नहीं लगता जबकि आपके पास खोने के लिए बहुत कुछ है ?

अपराजिता : अभिव्यक्ति का ख़तरा तो सुकरात को भी था पर उन्होंने उठाया, अभिव्यक्ति का ख़तरा तो मीरा को भी था फिर भी उसने सती होने से इनकार कर प्रेम करने के अधिकार को चुना।यह सच है कि परिणाम सोच कर सृजन करने, कहने वाले भी हैं, लेकिन अलबेली की पक्षधरता तो परिणाम जानने के बाद ही तय हुई है।

वह अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाते हुए यह ज़रूर ध्यान रखती है कि समर्थन हिंसा और विभाजित मानसिकता का ना हो बस।

 

बाक़ी तो कलाकार के लिए बैन पुरस्कार समान है।

जिस दिन कोई ऐसी कोई स्थिति बने समझिएगा, अंग्रेजों की अस्सेंबलि में बम फोड़ने वाले क्रांतिकारियों की नातिन है अलबेली। अपनी विरासत को सम्भालना सीख गयी।

 

आलोक रंजन : हिमोजी में, तकनीक और कला के साथ - साथ हिंदी की भावुक - चुटीली व हाजिर जवाब दुनिया खुलती है । हिमोजी इतनी सक्षम कैसे हुई ?

अपराजिता :  हिमोजी स्टिकर्स, दरअसल अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति में देशज रूप-रंग और भाषा में हिंदी के धारदार तेवर को लेकर आने के कारण इतने दिलचस्प हैं। यह हिंदी को अपनी बोलियों और परिवेश से मिला वह आस्वाद ही है जो हिमोजी स्टिकर्स को अंग्रेज़ी के फ़ॉर्मल स्टिकर्स और हाव-भाव वाली शैली की तुलना में उसके यूज़र्ज़ को अधिक प्रभावी लगता है।

 

अपनी भाषा में बात कह सकना यूँ ही थोड़ी मज़ेदार होता है।बात करने का स्वाद तो अभी आता है जब भाषा बोली का तेवर मिलजुल कर आए।मैंने पहले भी कहा, तकनीक मेरी कला यात्रा को सक्षम करती रही है। तब जब हिंदी में चैट स्टिकर नहीं थी, हम अंग्रेज़ी चैट स्टिकर भेजते-रिसीव करते थे उस समय भी मेरे भीतर उनका रेप्लेस्मेंट हिमोजी की शक्ल में चलता रहता था, फिर जब बेचैनी इतनी बढ़ गयी कि हिंदी की बात हिंदी में क्यूँ नहीं कही जाए तो बस काम पर लग गयी। शुरुआत में 300 स्टिकर बनाए जिनमें से छाँट कर 250 क़रीब एप में जोड़े।2019 में इनमें लोक कलाओं से जुड़े स्टिकर भी जोड़े। अपनी धरती की कला, अपनी भाषा में बात कहने का अब एक माध्यम तो है कम से कम - हिमोजी।

 

आलोक रंजन : हिंदी पत्रिकाओं में , किताबों के आवरण पर एक से एक खूबसूरत और अर्थपूर्ण इलस्ट्रेशन आते हैं लेकिन उनके सर्जक नेपथ्य में ही रह जाते हैं । यह क्यों होता है ?

अपराजिता : मुझे लगता है हिंदी की समझदार, सम्वेदनशील दुनिया भी लम्बे अरसे तक कला को फ़िलर की तरह इस्तेमाल करती आयी है।फ़िलर मने, ख़ाली जगह को भरने का सुंदर कलात्मक विकल्प।चित्र में उकेरे दृश्य, रेखा-रंग का अपना भी एक पाठ, एक मूल्यांकन है, वह भी एक सह-पाठ निर्मित करता है यह समझ तब बनने लगी है जब हमने इस पर सवाल उठने शुरू किए।

 

किताब की समीक्षा और प्रचार में आवरण और रेखांकन पर आपको अब से पहले कभी एक लाइन भी कही गयी नहीं मिलेगी। 2017 में जब मैंने एक किताब का पहली बार कवर बनाया तो यह बताते हुए पोस्ट लिखी (फेसबुक पर) कि कवर बनाने वाला किन बिंदुओं पर किताब का आवरण खड़ा करता है, कैसे वह आवरण किताब से आपका पहला परिचय करवाता है, किस तरह किताब में पाठ के साथ आए रेखांकन समांतर सह पाठ रचते हैं जो कि विषय को अधिक ग्राह्य बनाते हैं।

 

मुझे लगता है यह कलाकार की भी ज़िम्मेदारी है कि वह अपनी रचना के संदर्भ में पाठक और दर्शक को बताए।आख़िर हमारी शुरुआत तो इसी चित्र भाषा से हुई है, इसके भीतर उतरना सीखना हम भूल कैसे सकते हैं। यह ज़िम्मेदारी लेखक और प्रकाशक की भी है कि वे जिस उत्सुकता से किताब के आवरण और रेखांकन के लिए कलाकार के पास आते हैं उतनी ही ज़िम्मेदारी से उसे पाठक के बीच भी दोहराएँ।

आलोक रंजन : हमारा समाज कला के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना कैसे शुरू करेगा ?

अपराजिता : कला के प्रति हमारे समाज में सम्मान बहुत है, मानदेय की बात कीजिए। कला को जब तक शौक़ से श्रम के रूप में नहीं देखा जाएगा, श्रम भी रचनात्मक और संसाधन और समय लगवाने वाला श्रम। अधिकांशतः लोग इसे शौक़ की तरह देखते हैं, योग्यता, मेहनत और रीसोर्स के रूप में जिस दिन समझना देखना शुरू करेंगे, आप ही आप उसके प्रति सजग सम्मान पैदा होने लगेगा।

 

आप अपने लोकल आर्टिस्ट को सपोर्ट कीजिए, उसकी कला को दाम देकर ख़रीदिए, सराहने के साथ, यही उसके प्रति सम्मान होगा।

 

आलोक रंजन : अपने देश में कला के माध्यम से जीवनयापन की संभावना अभी भी दूर की कौड़ी क्यों लगती है ?

 

अपराजिता : इसका जवाब भी मेरे पिछले जवाब हमें है फिर भी, फिर से कह दूँ…. कला योग्यता, प्रतिभा सब है महज़ शौक़ नहीं है। शौक़ के लिए ही (स्वांत: सुखाय ही) कला सृजन का कारण नहीं। हिंदी की दुनिया की बात करूँ तो, व्यावसायिक कार्यों में कला का उपयोग फ़िलर के रूप में ना हो। वह बाक़ायदा शब्द को पूरा करने वाली विधा के रूप में आए।

 

हमारे समाज में आज भी कला की चोरी आम बात है। जब कलाकार के श्रम की ही चोरी कर ली जाएगी, श्रम का मूल्य कौन देगा। आप पेंटिंग की क़ीमत उसके पीछे छिपी वर्षों की साधना, उस पर खर्च हुए संसाधन और ऊर्जा के आधार पर नहीं देते, आप उसे बाज़ार में पड़े बाक़ी सामान की तरह काम की चीज़ की तरह देखते परखते हैं, एक बार मिले आँखों के आनंद से उसकी क़ीमत आंकते हैं और उसके श्रम को घटा कर आँकते हैं।

 

वैसे जिस देश में बड़ी जनसंख्या अभी जीवन यापन के ज़रूरी मुद्दों पर ही लड़ रही हो वहाँ प्रतिभा और श्रम के मूल्य पर चर्चा दूर की कौड़ी ही है।

 

 

 

आलोक रंजन : आप रचना करते समय कोई विशेष प्रक्रिया अपनाती हैं जैसे शांत वातावरण , किसी खास कोने में बैठना वगरैह ?

 

अपराजिता : शान्ति में मोक्ष मिलता है कला नहीं, कला तो जनता और उसके सवालों के बीच धँसने से मिलती है। वह मिलती है सुबह 8:30 से 10:30 बजे के बीच भीड़ भरे मेट्रो स्टेशन पर, वह सार्वजनिक वाहन में सट कर खड़े लोगों के आपसी-संवाद के बीच मिलती है, वह किसी की शिकन में छिपी दिखेगी, किसी के सवाल में हल्ला बोलती दिखेगी, वह किसी के आँसू में ल बह चली आएगी।

हाँ चित्र बनाने के लिए ‘me time’ तो चाहिए, कई बार आधी रात में उठ कर बनाती हूँ, कभी किसी ख़ाली लेक्चर में, कभी घर लौटते वक़्त…. मतलब समय चाहिए, जब-जहाँ-जैसे मिल जाए। कोई ख़ास कोना नहीं है, चित्र बनाते वक्त जहाँ भी होती हूँ वो समय ख़ास होता है। अपने से घिरी, अपनी ही रफ़्तार में कलम की धार पर चलती।

 

आलोक रंजन : चित्रगीत माला आपकी कला का दार्शनिक पक्ष लगती हैं जहाँ रूमान , वैराग्य एक साथ उभरते हैं । क्या आप इससे इत्तेफाक रखती हैं ?

 

अपराजिता : बिलकुल रखती हूँ और आपने इतना बारीक विश्लेषण किया चित्रगीत का कि दिल ख़ुश हो गया। अलबेली अगर अपने आसपास के वातावरण से संवाद है तो चित्रगीत ख़ुद से संवाद है। जब तक आपको अपने भीतर उमड़ते दुःख, सम्वेदना, विचार को राह नहीं मिलेगी आप कुछ सार्थक नहीं रच सकते। चित्रगीत विचार को विराम तक ले आने की यात्रा के बीच पड़ने वाला क्षण है। वैसे सच यह है कि वह विराम आता नहीं, सफ़र लगातार जारी है इसी सफ़र में कभी कोई दृश्य बिंध जाता है, कभी कोई छूट जाता है।

 

चित्रगीत नया प्रयोग है, आगे जाने किस राह मुड़ेगा नहीं कह सकती लेकिन अलबेली साथ चलेगी अभी बहुत दूर तक यह तय है।

 

 

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...