दिसंबर 30, 2011

इन दिनों गाँव में !


गाँव में गाँव जैसा महसूस कराने वाली अब कुछ ही बातें हैं इनमें सीमान से बाहर की झाडी में महकते वनफूल , मरने के इंतजार में घिसटते बूढ़े , और बिजली आने की राह ताकते तार विहीन खंभे ! एक नदी है जो अपनी खूबसूरती से लुभाती बहती है । इसमें नहाने का आनंद ऐसा है कि स्कूल की ओर उसके बढ़ते जबडे को भूल जाने का मन होता है ।
सहरसा जिले में पिछले दिनों मुख्यमंत्री आए थे सो जिले के सभी सरकारी भवनों को रंग रोगन कर चमका दिया गया था । गाँव का स्कूल उस के प्रमाण सा चमक रहा है । यह चमक चिढाती है । एक दौर वह भी था जब इस विद्यालय के कमरे नहीं थे । फूस के दो कमरे में पढ़ाई होती थी । कुछ कक्षाएँ पास के मंदिर के बरामदे में लगती थी । जब बारिश होती तो सारे शिक्षक विद्यार्थियों को छुट्टी देकर उन फूस के कमरों में सुटक जाते थे ! उस समय डेढ़ सौ के आसपास छात्र थे और स्कूल के पास दो फूस के कमरे ! आज दौर बदला है । इस स्कूल में कितने ही कमरे हो गये हैं । विद्यालयों में दुर्लभ 'बाथरूम' भी बन गए हैं , क्या दोमंजिला क्या एक मंजिला सब में कंप्यूटर , जिम आदि के सामान आ कर पट गए हैं । क्या चमकदार व्यवस्था हो गयी है ! लेकिन इसका क्या काम है यह समझ नहीं आ रहा है । आज शहरी सरकारी विद्यालयों में तो वंचित वर्ग के छात्र जरूर मिल जाएँगे पर गाँवों में सरकारी स्कूल खाली ढनढन हैं । रंगे हुए कमरे किसी बच्चे की नादान लिखाई का इंतजार कर रहे हैं ! बदलते दौर ने गाँवों तक को नगरीय अंधानुकरण के सूचक इन निजि विद्यालयों से पाट दिया है । इनकी गुणवत्ता संदिग्ध है पर अपने बच्चों को पढ़ाना मूँछ का प्रश्न हो गया है जबकि इस मूँछ और इस शिक्षा का कोई अधिक महत्व नहीं जान पड़ता । ऐसे में गाँव के इस विस्तृत एवं सुसज्जित स्कूल को देखकर इसकी सार्थकता सोचने को विवश करती है ।
गाँव में बिजली के खंभे खड़े हैं उतने ही बेकार जितने कि अपने को 'उठा ले जाने' की बाट जोह रहे बूढ़े ! कुछ तार काट लिए गये हैं घरों में टंगनी बनाने के लिए और कुछ लटके हैं दुद्धी की बेल को सहारा देने के लिए । शाम 6 से 8, एक सीएफएल और एक मोबाइल चार्जिंग प्वाइंट के लिए पचास रुपये महीने लेकर शंभू अपने जेनरेटर से गाँव भर का उपकार कर रहा है । विजन-2020 के प्रतीक ये खंभे भी बहुत जल्द चापाकल के नीचे टुकड़ों में बँट कर पाट बन जाएँगे ।
दिगंबर को देखकर बड़ा आश्चर्य होता है कि इस गाँव में केंद्र और प्रदेश की इतनी बड़ी बड़ी सरकारें लोगों की आवश्यकता के अनुसार दवा नहीं बाँट सकी उसे इस आठवीं पास ने कितनी सहजता से कर दिखाया है । उसे झोलाछाप कहना उन सरल लोगों का अपमान है जो उसकी आधी गोली से ही टनटन हो गए हैं । और उसे मिलता क्या है कभी सेर भर गेहूँ तो कभी साल के अंत में एक जोड़ी कबूतर । इतना सहज प्रसार क्या किसी सरकार का कभी हो हो सकता है !!
सर्दी के इस मौसम में धूप फागुन के दिनों सी तेज है । बाहर ज्यादा देर रहा नहीं जाता और अंदर कंबल लपेटना पड़ रहा है । क्या करें ऐसे मौसम के मजे का जब खाने के लिए अन्न ही न उपज पाएँ !!

दिसंबर 28, 2011

तोडे से न टूटे ये शहर , इसकी बुजुर्गी !

आज सुबह से मैथिली गीत की एक पंक्ति परेशान कर रही थी - शहर सहरसा के पक्का पर तरुणी मारे ठहक्का बेजोड़ ! मतलब साफ है सहरसा शहर की युवतियाँ अपनी छतों पर ठहाके लगा रही हैं ! इस पंक्ति में शहर है , यौवन है और उन्मुक्त हँसी है ! और एक साफ सा संकेत है कि यह गाँवों में नहीं मिलेगा । यदि खुला जीवन देखना है तो सहरसा आईए ! 

रविवार की सुबह सुबह यह शहर जब छुट्टी के मौज और सर्दी में रजाइ के गुनगुने अहसास में लेटा था तभी मैं यहाँ आया था - अपने शहर ! यहाँ की सड़क और उसमें पड़े गड्ढे में फिसलते रिक्शा के पहियों और उससे लगभग गिरते हुए सा होने पर लगा कि मैं क्यों इसे अपना शहर कहता हूँ ! यदि मैं इस तथ्य को निगल लूँ तो कुछ ज्यादा बदल नहीं जाएगा पर इस गड्ढे से भी एक आत्मीयता है जो सीधे शुरुआती यौवन की ओर ले जाता है जब हम सारे दोस्त एक ही लड़की के दीवाने थे । यहीं छोटी-बड़ी लडाईयां की और बहुत से चोट खाए । आज की तमाम परेशानियाँ मेरी किशोरावस्था की यादों के सामने छोटी हैं चाहे जो हो मैं इस शहर से छूटना नहीं चाहता ।


बहरहाल उस गाने की पंक्ति कई बार सामने आ गई । और जब मैं इसके सहारे बाहर आता हूँ तो शहर को सोती हुई बुजुर्गियत ओढ के बैठा पाता हूँ ! कुछ भी ऐसा नहीं कि इसे युवा कहा जा सके । मोहल्ले दर मोहल्ले भटक लीजिए किसी बाइक की उत्तेजित भों भोँ नहीं है । बाइक़ हैं पर स्थिर चाल में चल रहे हैं । और ताज्जुब ये कि चलाने वाले युवा हैं ।

अपने दोस्तों को ढूँढने निकला हूँ दो -एक अखबार में हैं , कुछ मोबाइल की दुकान पर और बांकि अपने पिता के साथ । इनमें वे भी हैं जो बाहर पढ़ने गये थे और वे भी जो शुरुआत से ही अपने पिता की पान की गुमटी पर बैठते थे । इस खोज का नतीजा ये है कि किसी के पास कोई समय नहीं है । अपने दोस्तों की क्या कहें छोटे भाई के दोस्त भी नहीं दिखते ! किसी मैदान पर कोई नहीं खेल रहा है । कल शाम मैंने चार -पाँच फोन किए कुछ छोटे बच्चों का पता लगाने पर सब शहर से बाहर हैं कोटा , इम्फाल ! इंजीनियरिंग और बेरोजगारी ने गर्ल्स स्कूल , रमेश झा महिला कॉलेज और चूडी शृंगार की दुकानों से लड़कों को चट कर लिया है ।

आज हमारे यहाँ हर तरफ बुजुर्ग फैले हैं आप हर दूसरे कदम पर पैर छूने के लिए झुकिये नहीं तो आपकी शिक्षा का कोई मतलब नहीं । हर दूसरा वाक्य आपको यह याद दिलाता है कि आप किस परिवार से हैं ( भले ही आप के परिवार का कोई सामाजिक अस्तित्व न हो ) । आप की अपनी पहचान मेरा शहर स्वीकार करने की दशा में नहीं है । यहाँ पहचान वही है जो कभी बन गई ! अब उसमें जोड़ ही हो सकता है उसे पलटना या बदलना नहीं हो सकता । यह शहर अपनी पुरानी पहचान ही बनाए रखना चाहता है । इसका सामाजिक संगठन आस पास के गाँवों से यहाँ आकर काम करने वाले मामूली वकीलों, शिक्षकों, किरानियों और दस बारह माडवाडी व्यापारियों से मिल कर बना है ।

यहाँ परिवारों में हो हल्ले हैं , हर गली में दो चार शराबी हैं सड़कों में गड्ढे हैं ,घरेलू हिंसा है और सबको इसी से प्यार है ।

अभी अभी बैंक से लौटा हूँ हमारे बहनोई अपने दिवंगत पिता की फिक्स्ड डिपॉज़िट के नाम्नी का नाम पता करवाने के लिए क्लर्क को सौ रुपये घूस देकर आए हैं । मैंने रोका तो कहते हैं इस शहर का पुराना चलन ।
इन तमाम पुरानों ने मैथिली गीत के उस पंक्ति की तरुणाई को बड़ी ही बारीकी से बेदखल कर रखा है ।

दिसंबर 16, 2011

कुछ जो कहना नहीं था !


कुछ दिनों से अपनी मुकम्मल शिनाख्त में उस लोहे के बेंच के अस्तित्व को महसूस कर रहा हूँ जो मिश्रा टी स्टाल के पास पड़ी है । यह अहसास बार बार उसकी कमी के रूप में आ रही है । यूँ तो कितनी ही जगहें हैं बैठकी लगाने को और कई लोग भी जो उन जगहों पर मेरे साथ बैठें पर इधर बड़ी शिद्दत से उस बेंच की कमी का अनुभव कर रहा हूँ ।
विश्वविद्यालय से अब्दुल के जाने के बाद पहली बार कोई जगह इस तरह से हमारे साथ जुड़ी थी । कुछ न करने वाले हमारे वे लंबे दिन और उनमें चलने वाली वो तेज आवाज बकवास वहीं होती और वहीं होता था उन सबका भी आना जिनसे छिप के हम वहाँ बैठते थे । और वहीं मिले हमें वो आवारा, वेल्ले और बाबा के ठप्पे । वहीं से की थी हमने अपने वरिष्ठतम होने और सूरज तक को जूते की नोक पर रखने की घोषणा !
हम तीन थे । हम सब आज भी हैं पर तीन नहीं ! हमें बाँटा खुशियाँ और कामकाजी पन ने ।
इन बेकारियों और गमों में कुछ बात थी जिसने इतनी बारीक बनावट रची जिससे बेडा गर्क कर सकने वाला साहस और किल्लाठोक बोलने की हिम्मत आई । जिंदगी तरीके से काम करती है शायद ! हम समझ भी नहीं पाते हैं पर वह हर क्षण हमें रचती चलती है । इसी प्रक्रिया में लंबे चलने वाले पहचाने चले जाते हैं और छूट जाते हैं अपनी ही दिशा में जाने वाले लोग । दिशाएँ एक जाल तो हैं पर इसके रेशे फिर से नहीं उलझेँगे । कईयों को देखा है खालसा के स्टैंड पर अनजान से खड़े होकर अपनी बस का इंतजार करते हुए । इनमें से काजिम अली भी एक है जो एमए प्रीवियस में साहित्य सभा का उपसभापति बनने के लिए हमारे बीच आया था और वह भी अकेले ! काजिम जीत भी गया ! हमने आज के अपने कुछ शुभचिंतकों के खिलाफ काजिम को पेश किया था । पर वही काजिम बस नजरें फेरने के लिए देखता है ।
उस बेंच से अलगाव एक दिन ही में हो गई घटना नहीं बल्कि पूरे समय में फली फूली थी । और वो हम ही थे जिन्होंने अपने ही खिलाफ हर तरह की साजिश की । उस प्यार को ढूँढ ढाँढ़ कर उन के बीच ला देने का वह मिथकीय़ जाम्बवंत सुलभ कार्य भी हमारा ही था । हम जानते थे कि ये कुल्हाडी कितनी ही भोथरी क्यों न हो पर हमारे पैर जरूर काटेगी और हमने इस बात कितनी ही बार मजा भी लिया था । उस शाम को एक परिचित ने जब पूछा कि तुम यहाँ तब भी मैने कितने गर्व से कहा था कि विश्वविद्यालय में जो हम तीन आवारागर्दी करते हैं उनमें से एक की शादी है । वो शायद हमारे एक होने का अंतिम और चरण पल था । उस रात की खुशी में किसी ने नहीं देखा हम तीनों अपने से उपर होकर एक दूसरे से बिना विदा लिए अलग हो रहे थे । पर नहीं अभी इस टूटन का गवाह उस बेंच को भी बनना था । हम फिर मिले थे एक बार । अंत के बाद का मिलना कभी सुखद मिलन नहीं होता । हम दो बैठे थे और तीसरे को आने में कुछ देरी हो रही थी । इस दूसरे ने दो बार कहा कि तीसरे को समझना चाहिए कि वह अब घर परिवार वाला हो गया है जिसे जल्दी घर जाना है । वहाँ आवाजें और थी पर उनका भारीपन बेंच के रोने से कम था ।
खालिस बतकही का मजा तो बहुत है पर इसका नशा किसी से कम नहीं ! वह है तो है ही पर नहीं है तो तलब बढ़ती ही जाती है । चाहिए तो वही पानी चाहिए नहीं तो हम दूध तक से कुल्ला नहीं करते । मैने कितनी ही बार अनुभव किया है कि जिंदगी कई मातबरों के हाथ रेहन रखे गये खेत की फसल है जिसके तैयार होने से पहले ही सब अपना अपना हिस्सा लेने आ जाते हैं ।
फसल बिचारी जान भी नहीं पाती है कि बँटकर क्षीण हो जाती है ।

दिसंबर 12, 2011

इतिहास की नवीनता में शहर दिल्ली

बात शुरू करते हैं दूरदर्शन के धारावाहिक 'मैं दिल्ली हूँ ' से ....! इसमें राज्य के विकास की प्रक्रिया को दिखाया गया गया है और सत्ता के निरंतर प्रबल होते जाने को भी प्रदर्शित किया गया है । और इसके केन्द्र में है शहर दिल्ली ! इस धारावाहिक के माध्यम से इस शहर की ऐतिहासिकता को प्राचीन काल तक ले जाने का प्रयास किया गया है । इस धारावाहिक का समय वही है जब देश में आर्थिक उदारीकरण के फल दिखने लगे थे । फिर भी आज जो तमाम बड़े और मझोले शहरों में एफएम चैनलों का संजाल फैला है वह उस समय नहीं था और इसकी कोई सुगबुगाहट भी नहीं थी । ऐसे में जाहिर है कि आज जो लोग इसमें काम कर रहे हैं उन्होंने इसे एक रोजगार के रूप में नहीं देखा होगा । ये लोग किसी और क्षेत्र में जाने की तैयारी कर रहे होंगे । हाँ ये और बात है कि एफएम के आ जाने से इन्हें अपनी आवाज के बल पर पैसा कमाने का मौका मिल गया ! ऐसे में आज के एफएम प्रस्तोता उस समय उपरोक्त धारावाहिक देखते होंगे इसमें संदेह है । इस संदेह का दूसरा आधार यह है कि उस समय तक भारत में केबल टीवी का आगमन हो गया था तो दूरदर्शन का ऐतिहासिक धारावाहिक देखना तब के भी महानगर एवं नगरीय युवा के कार्यकलाप में नहीं था । यही वह समय है जब टीवी के माध्यम से पॉप भारत में पहुँचने लगा था । इन सबको ध्यान में रखकर एक बात कही जा सकती है कि दिल्ली के आज के जितने भी एफएम प्रस्तोता हैं वे दिल्ली की ऐतिहासिकता को धारावाहिक 'मैं दिल्ली हूँ' के माध्यम से तो नहीं जानते होंगे । यहाँ इस धारावाहिक का उदाहरण इसलिए लिया गया कि यह उसी लोकप्रिय संस्कृति के माध्यम (टीवी) से आई थी जिसे नगरीय समाज अपना रहा था । दूसरे इस धारावाहिक में दिल्ली शहर की स्थिति को प्राचीनता प्रदान करने का प्रयास किया गया है ।
बहरहाल दिल्ली अति प्राचीन शहर न हो पर इतनी पुरानी अवश्य है कि इसके इतिहास को मध्यकाल तक ले जाया जा सके । ऐसे में इसका 'जन्म' 1911 से मानना इसके इतिहास को खारिज करना है । इस वर्ष यह अँगरेजों की राजधानी बनी थी । ऐसे में यहाँ से दिल्ली की स्थापना मान लेना उपनिवेशवादी सोच की ओर इशारा करता है । परंतु यह इतना सरल नहीं है । वर्तमान उपभोग आधारित संस्कृति में बाजार का स्थान केन्द्रीय है । और वह अपनी निर्मितियों , संस्थाओं के माध्यम से मुनाफे का कोई मौका चुकता नहीं है और यदि बात न बन रही हो तो उन मौकों का निर्माण भी करता चलता है ।
दिल्ली के सौ साल का उत्सव मनाना बाजार द्वारा अपने लिए मौके का निर्माण है । अब बाजार को भी पता है कि दिल्ली 1911 से शुरू नहीं होती पर ज्यादा पीछे जाने पर कुछ अस्मिताओं के उभरने का खतरा है जहाँ से विवादों की उत्पत्ति भी हो सकती है ।
यहाँ बाजार ने बड़े ही संगठित रूप में संचार माध्यमों का प्रयोग किया । अब इस दिवस को मनाने के विज्ञापन मिले , खाने पीने और मौज मस्ती का एक अवसर आया जिसका फायदा अंतिम रूप से पूंजपति समूह को मिला ।
दिल्ली में बजने वाले एफएम चैनल्स के प्रस्तोता जब इस दिन को मनाने शहर की पराठे वाली गली जाते हैं तो यह भूल जाते हैं कि ये उस दिल्ली का हिस्सा नहीं है जिसका जन्म 1911 में हुआ था !

नवंबर 03, 2011

घृणा के वृहत्तर संदर्भ द्वारा छठ पूजा

घृणा के तत्वों को तलाशने के लिए आज कहीं जाने और अत्यधिक शोध की भी जरूरत नहीं है क्योंकि ये बड़ी ही सहजता से स्पष्ट हो जाते है । यह वह विद्रूप छवि है जिसकी भारत जैसे देश के लिए कल्पना एक दुःस्वप्न सी लगती है । हम वर्षों से कहते आ रहे हैं कि यहाँ विविधताओं की विविधताएँ हैं और उनका सामंजस्य ! पर क्या यह इतना ही सरल और उचित वाक्य है यह जाँच आवश्यक हो उठती है । अभी अभी छठ का त्योहार बीता है दिवाली बीतते ही जैसे ही इसकी महक आनी शुरू होती है कि नफरत का वातावरण तन जाता है । दिल्ली जैसी जगह में किसी बिहार वासी के लिए ये दिन कुछ अफसोस जनक तनाव में बीतते हैं क्योंकि छठ तो बिहारी मनाते हैं , इससे हर जगह जाम लग जाता है , इसलिए बिहारी, छठ और जाम सब घृणा के पात्र हैं । बस में कोई बिहारी नहीं होता ऐसा मानकर नितांत संवेदनहीन तरीके से अपनी अपनी कुंठा बिहारी मत्थे पर उडेली जाती है मसलन 'हर जगह बिहारी भर गए हैं ' बिहारी ये क्या मनाते हैं ''छूट'' ' अब देखना कितना जाम लगता है ' ! जरा सोचिये क्या जाम के लिए छठ या बिहारी जिम्मेदार है ! दो दिनों के त्योहार के अलावा भी तो दिल्ली में जाम लगते हैं वह भी आए दिन लगते रहते हैं तब कोई नहीं कहता कि ये बिहारियों के कारण लगते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि जाम में उनका कोई हाथ नहीं है । फिर छठ के समय ऐसा कहने का तात्पर्य और उद्देश्य क्या हो सकते हैं ? यह दरअसल वह स्थिति है जब हम कह सकते हैं कि भारत के भीतर आपसी सामंजस्य नहीं बल्कि टकराव है ; एक समूह जो कुछ नहीं करता है उसे करने वाले समूह को घृणा से देखता है और यह दोतरफी प्रक्रिया है । इसकी शुरुआत बच्चे के जन्म से ही हो जाती है । धर्म, जाति ,भाषा और रंग के माध्यम से उसमें विशिष्टता का भाव भरा जाता है जो नफरत के लिए आधार तैयार करता है । यही वजह है कि एक भौगोलिक सीमा के बाहर वे विशिष्टताएँ पाए जाते ही घृणा का भाव आ जाता है ।
इस घृणा को छठ के सिलसिले में देखना इतना सरल नहीं है इसमें कई और पक्ष हैं जो इसे मजबूती प्रदान करते हैं । वर्चस्वहीनता ऐसा ही एक पक्ष है । यह पर्व वस्तुतः किसानी जीवन का पर्व है और यह खेती के उत्पादों के प्रसाद के साथ सूर्य के लिए एक धन्यवाद ज्ञापन है । इस तरह से यह एक ऐसा त्योहार है जिसमें विशिष्टता की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है जिस कारण इससे जुडना कोई विशेष अर्थ नहीं रखता और यही उसके सम्मान को भी आघात पहुँचाती है । यदि यह त्योहार केन्द्र के आसपास के क्षेत्र का होता तो उसकी स्वीकृति सहज हो जाती जैसा कि करवा चौथ के सिलसिले में देखते हैं ।
आगे छठ पर्व सामान्य खेती के उत्पादों को ही कंज्यूम करता है और इसे ज्यादा से ज्यादा सरल बनाए रखने का प्रयास किया जाता है इसलिए बाजार के लिए इसमें घुसपैठ न के बराबर है और ज्यादा संभावना भी नहीं है । इसका परिणाम यह होता है कि इसे कुछ फलों की बिक्री के अलावा अनुत्पादक ही मान लिया जाता है जिससे इस लाभ हानि के दौर में हर किसी को बाप बना लेने की सामान्य प्रवृत्ति से छूट मिल जाती है ।

अक्तूबर 26, 2011

बुद्ध सर्किट लाईव, बोले तो पेट पे कार !

इस फार्मूला रेस का क्या कोई तय फार्मूला नहीं है कि यह भारत में हो रहा है ! वह भी ऐसे समय में जब क्रिकेट का बाजार अपने विकास के चरम पर है ! दरअसल इसे लाया ही इसी लिए गया है ! आज जो क्रिकेट की स्थिति है वह उच्च और निम्न दोनों ही प्रकार के मध्यवर्ग की वजह से है क्योंकि बाजार में खर्च की जा सकने वाली रकम उसी के पास है और उच्च वर्ग की देखादेखी वह इसे 'उड़ाता' भी है । निम्न वर्ग कभी भी भारत में बाजार को संचालित करने वाले कारक के रूप नहीं रहा अतः खेलों में उनकी भूमिका नगण्य ही रही । क्रिकेट पर बढ़ते मध्यमवर्गीय प्रभाव के कारण उच्च वर्ग के लिए एक नया खेल लाना जरूरी हो गया जहाँ केवल उन्हीं का अधिकार हो । कार रेसिंग इसी प्रकार का खेल है और उसका उद्देश्य उसी उच्चवर्गीय विशिष्टता को पुष्ट करना है । यह लगभग वैसी ही स्थिति है जब सब को अंग्रेजी सीखता देख उच्च वर्ग संस्कृत या अन्य पुरानी भाषा की ओर उन्मुख़ हो रहा है । इससे पहले एक अन्य खेल गोल्फ को इस दृष्टि से पोषित किया गया परंतु रोमांच के अभाव ने उसे कम से कम भारत जैसे देश में जहाँ क्रिकेट के कारण रोमांच की आदत पड़ी है उसे जड़ जमाने नहीं दिया । रेसिंग को लंबे समय से टीवी पर दिखाया जा रहा है,उसे भारत में दर्शक भी मिल रहे हैं और यह क्रिकेट जितना सस्ता और सर्वसुलभ भी नहीं है अतः उच्च वर्ग के लिए क्रिकेट का अच्छा विकल्प लगा जहाँ वे अपनी उच्चता लंबे काल तक बनाए रख सकते हैं ।
कार रेसिंग एक सामान्य खेल नहीं है कि गिल्ली ली , डंडा लिया और चल पड़े खेलने ! वस्तुतः यह धनी युवाओं की गर्व से भरी रात को चलने वाली वाहन प्रदर्शन प्रतिस्पर्धा का ही संभ्रांत रूप है । इस खेल को भारत में कराने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों की ओर से विभिन्न प्रकार की छूट दी गयी । इस आधार पर देखें तो लगता है कि इस खेल का भारत आना बहुत जरूरी था , इसके बिना लोग जी ही नहीं सकते थे ! इसकी यह अपरिहार्यता किन लोगों की कीमत पर है यह देखना जरूरी है । साधारण शब्दों में देखें तो कोई भी छूट वस्तुतः आर्थिक ही होती है चाहे रेसिंग के लिए भूमि खरीद में छूट हो या विभिन्न करों में छूट । और ये सारा आम आदमी की जेब से ही दिया जाता है भले ही प्रत्यक्ष रूप में इसका पता न चले ! तो अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत का आम आदमी इस के लिए तैयार है और क्या वह रेसिंग चाहता भी है ? लगातार बढ़ती महँगाई से त्रस्त भारतीय के लिए इसका उत्तर हाँ में देना संभव ही नहीं है । फिर इस रेस के लिए छूट देना एक तरह की तानाशाही को स्पष्ट करता है ।
यह समझ पाना कठिन प्रतीत हो रहा है कि सरकार को आम आदमी की कीमत पर कुछ लोगों का ही फायदा क्यों दिखता है !

अक्तूबर 16, 2011

रिक्शे पर कुत्ता

ये तो कहीं नहीं लिखा न कि कुत्ता केवल हसीन लड़कियाँ और गबद्दू लड़के ही रख सकते हैं पर अपने देश में यह कितनी मजबूती से स्थापित हो गया है इसे आम जनजीवन में देखा जा सकता है । गरीबी भारत में आमतौर पर सारी बुराइयों के लिए पर्याप्त आधार है । किसी भी गरीब को किसी भी दोष के लिए दोषी बड़ी आसानी ठहराया जा सकता है । इस अवधारणा का प्रयोग सरकारी तंत्र से लेकर आम आदमी तक सभी करते हैं । यदि कोई व्यक्ति जिसके पास पैसे नहीं हैं और उसके पास कोई कीमती वस्तु है तो उसे या तो चोरी करके लाया हुआ मान लिया जाता है या छीन कर लाया हुआ ! उस दिन दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रा मार्ग पर 4 बड़े घरों की लड़कियाँ एक रिक्शा वाले को रोक कर खड़ी थी । सारे विद्यार्थी अपनी अपनी कक्षाओं की ओर चले जा रहे थे । लड़कियाँ उस जोर जोर से चिल्ला रही थी और पास के दूसरे रिक्शे वाले अपनी अपनी 'गाड़ी' ले कर वहाँ से हट रहे थे । उस रिक्शा वाले के पास एक भूटानी नस्ल का कुत्ता था और उन लड़कियों के अनुसार इस कुत्ते का उस रिक्शा वाले के पास रहना कुत्ते की सलामती के लिए सही नहीं है । उस से वे पूछ रही हैं कि इस कुत्ते को कहाँ से चुराया ! एक अपने बैग से बिस्कुट निकाल कर कुत्ते को खिलाने का प्रयास कर रही है और ले बलैया कुत्ता उस बिस्कुट से मुँह फेर रहा है ! 'भैया तुमने इसके साथ क्या किया जो ये कुछ भी नहीं का रहा है ' । अब लड़कियाँ उस कुत्ते को बीमार साबित करने लगी और कहने लगी कि कुत्ता उन्हें दे दिया जाए ताकि वे उसे डॉक्टर के पास ले जाएँगी और अपने देखभाल करेंगी । अब रिक्शा वाले की आँखों में आँसू आ गए ! ' मैं इसकी देखभाल के लिए पिछले दो दिनों से ठीक से काम नहीं कर पा रहा हूँ ...ओर इसको अभी सुबह ही खिलाया है , पेट भरा है अभी कुछ नहीं खाएगा ! '
लड़कियों की जिद और रिक्शा वाले के आँसू के बीच कुत्ता बड़े आराम से रिक्शे की फर्श से अपनी दाढ़ सटाये ताक रहा था । उसकी मासूमियत ही ऐसी है कि कोई भी उसे पाने के लिए मचल जाए !! इस बीच पुलिस आ गयी । पता चला इन्हीं लड़कियों ने फोन करके बुलाया था । लड़कियों का कहना था कि इस कुत्ते का जीवन इस रिक्शे पर सुरक्षित नही है अत: कुत्ता उन्हें दे दिया जाए !! उन्होंने पुलिस को दिखाया कि कुत्ते को कितनी मजबूती से बाँधा गया है इससे वह कभी भी खतरे में पर सकता है ! रिक्शा वाला अब डर गया था । पुलिस ने दो चार सवाल पूछे जिससे पता चला कि उसने वह कुत्ता खरीदा है । पुलिस ने लड़कियों को अपने कॉलेज जाने को कहा और रिक्शा वाले को कहीं और ।
यह घटना रिक्शा चलाने वालों मजदूरों आदि के प्रति हमारे नजरिये को समझने के कुछ आधार देती है ! एक तो गरीबों के पास कोई ऐश्वर्य मूलक वस्तु न हो और यदि हो तो उसे छीन लिया जाए । दूसरे छीनने की प्रक्रिया में सक्षम वर्ग पुलिस को अपना हथियार मानता है ।
एक बात ये लड़कियाँ या इस तरह के अन्य लोग कब समझेंगे कि कुत्ते के साथ साथ मनुष्य की भावनाएँ भी महत्वपूर्ण होती है और केवल कुत्ता ही प्यार करने की चीज नहीं बल्कि सामान्य मानव के प्रति भी संवेदना अपेक्षित है ।

अक्तूबर 13, 2011

माँएं हमारे आसपास

कबूतरों की आवाज से उनके भावों का पता नहीं चल पाता और उनके तो आँसू भी नही आते जो उनका दर्द दिखा दे ! यही कारण है कि इन्हें मैंने हमेशा एक सा ही देखा है । मेरी रसोई की खिड़की बाहर खुलती है उस दिन उस के पल्ले पर एक कबूतर बैठा था ठीक उसी तरह जैसे पहले बैठा करता था । रसोई में घुसते ही लग गया आज कुछ तो बात है, नहीं तो मेरी आहट पाते ही तो ये फुर्र हो जाते थे ! खाना बनाते नहाते पता चल ही गया । उस कबूतरी का बच्चा सामने के घर के भीतर रह गया था । दरअसल उसने अपना अंडा वहीं दिया था और अब उसमें से चूजा भी निकल आया और किस्सा यूँ हुआ कि पड़ोसी अपने घर में ताला लगाकर रविवार को सार्थक करने चले गए लोहे का जंगला और बाथरूम भी बंद ! जब दिन कुछ चढ़ा तो कबूतर माँ की बेचैनी बढ़ने लगी कभी उड़ कर जंगले में लटक जाती तो कभी रोशनदान के रास्ते बंद बाथरूम में चक्कर लगा आती । वह बड़ा बेचैन दिन था !
अभी कल हमारी गली की कुत्ता माँ ने 6-7 बच्चे दिए हैं । पिल्लों की कमजोर कूं कूं बड़ा मनमोहक सा स्वर प्रस्तुत करती है । और कभी आकर देखिए इस माँ को कितनी तल्लीन रहती है कभी बच्चों को दूध पिलाने में तो कभी उन्हें सुरक्षित स्थान पर रखने में ! और यह सब होता है इसी गली की सीमा में । पर इस बीच बाहर के लोगों और कुत्तों का प्रवेश वर्जित हो गया है । अगर किसी ने इस निषेधाज्ञा का उल्लंघन किया तो वो शोर मचता है साहब की मत पूछिए ! इसी से काली याद आ रही है ! हम जहाँ पहले रहते थे वहीं उसी गली में दौडती , खाती और पसर के सोती थी । आम दिनों में वह भी मादा कुत्ता ही थी पर जैसे ही बच्चे देती हर किसी का उस गली से चलना दूभर हो जाता ! ऐसे ही किसी समय में उसने मुझे भी दौडाया था मैं नाले में जा गिरा !
इन माँओं को सोचते हुए मुझे अपनी माँ याद आ रही है छोटी सी बूढ़ी होती हुई !
एक बार माँ मुझे मामी के पास छोड़कर पिता और छोटे भाई के साथ एक शादी में गयी । वहाँ उन्हें कुछ दिन रुकना पड़ गया । मामी के यहाँ मैं एक बच्चे की तरह ही रह रहा था पर दिन में कई बार यह महसूस हो जाता था कि मैं किसी और खा बच्चा हूँ । इस बीच मेरे पैर में एक घाव हो गया - बरसाती घाव सा पर आज भी याद है बहुत तेज दुखता था । जब मेरी माँ वापस लौटी तो घाव लगभग ठीक हो गया था । माँ को देखते ही मैं जार जार रोने लगा । मामी ने रोने का कारण पूछा तो मैंने बताया कि घाव दुख रहा है ।
माँएं हमें जीवन ही नहीं देती बल्कि रोने के लिए आसारा भी देती है ।
एक तरह से देखा जाए तो मुश्किल हालात को झेलने और कुछ न कर पाने पर रोकर सबकुछ बाहर निकाल देना भी वही सिखाती है । कोई भी माँ हो वह बहुत कुछ झेलती हुई जीती है और सभी उन छिपे हुए कोनों में रोती भी हैं !

अक्तूबर 09, 2011

इस दौर का यह समय

यह समय मेरे लिए भी है पर इसका यकीन मुझे नहीं होता क्योंकि यह मुझसे अजनबी और बेपरवाह ही रहा है अबतक ! लाख कोशिशें की कि हमारी थोड़ी जान पहचान हो जाए लेकिन जो नतीजा है वह है सिफर .... यूँ मुझे इस नतीजे की उम्मीद और आदत पहले से थी पर टेढ़ी पूँछ सी अपनी जिजीविषा ! ये जीने की इच्छा शायद वही है जो द्विवेदी जी के कुटज की थी ! जो एक बात कुटज और मुझमें नहीं मिलती वह है उसका बिना मन का होना ।
बिना इसके पहाड़ तोड़ कर पनप जाना तो आसान है अपना हिस्सा ले पाना कठिन । यहाँ हर क्षण नजरें उपर की ओर ही रखनी पड़ रही है - आशा में !
इसे एक कुर्बानी ही मानी जाए जो हर प्यार लेता है या फिर बड़ी ही निरीहता से देता है । दो जन या और भी इसमें बस अपनी भूमिकाएँ निभाते हैं ... पर यह इतना सरल नहीं है ....। इन भूमिकाओं को अलग अलग समझें यह एक कसाईबाडे जैसी संरचना बनाता है जिसमें सारे अपने दाँत निकाले पेट तक फाड़ देने को बढ़ रहे हैं । यह मौत की हसीन और लचकीली चाल है जो अपनी खूबसूरती से बहकती चल रही है पर है तो मौत ही । ये एक मुर्दनी है जो चारों ओर छाई है पर मेरे लिए एक जश्न से बढ़कर !
हर शहर की वो गली जहाँ यह सब होता है, अनजान नहीं है हम सबसे क्योंकि हम सब तो उसी में रहते हैं । हमारे रहने से ही उस जैसी हर गली का अस्तित्व है क्योंकि हम ही गली हैं । मन इस वक्त भी वैसा ही स्थिर है जबकि उसके आसपास कई बेहद खूबसूरत सांय सांय बह रही हैं चुपचाप ! इसे भले ही अजीब कहा जाए पर है यह सचमुच का सच ।
समय ने स्वार्थ की संरचना और इसके गुणों को बदल दिया है अब स्वार्थ एक स्थायी भाव की शक्ल ले रहा है । खुशी एक ही दिन की ही सही पर विशिष्ट थी और इसी को लगातार बनाए रखना मेरा स्थायी स्वार्थ ! नदी की धार तेज है जिसके सामने कितनी भी मजबूती स्थायी नहीं ।

अखबार में छपी लड़कियाँ खुद को वस्तु नहीं बनाना चाहती पर पैसे कमाने के लिए उसे यह भी मंजूर है । यदि वे वस्तु नहीं बनना चाहती तो मर क्यों नहीं जाती भूखों या फिर कम क्यों नहीं कर देती अपनी अय्याशियां ! यदि तुम्हारी देह है तो सहज खयाल उसे बेचने का ही क्यों आता है ? क्योंकि तुम स्वयं को वस्तु मानने की आदि हो गयी हो । तुम्हारे तर्क अब संतुष्ट नहीं करते ( टाइम्स आफ़ इंडिया की डायरी लिखने वाली लड़कियों के लिए ) ।

अक्तूबर 06, 2011

दिल्ली में कभी त्योहार जैसा नही लगता । एक ढर्रे की रोज के नाश्ते सी जिंदगी जिसे हर कोई जीने की जल्दी में है ! ऐसे में कोई भी त्योहार आराम की नींद के अलावा कुछ नहीं लगता । जहाँ सपने तो हैं पर असल जिंदगी का खटमिट्ठा मजा नहीं ! इसे एक बार को नॉस्टाल्जिक होना कहा जा सकता है पर ये हमारे समाज के बदलते स्वरूप की व्याख्या करते हुए चलता है ।
मेरे शहर में त्योहार का अर्थ उत्साह है जो लगातार बना चला आ रहा है । दसहरे के दस दिन हों या दिवाली में केले के पेड़ों से सजी दुकानें, सबका अपना आनंद है । वहीं लगता है कि ये त्योहार धार्मिक से ज्यादा सामाजिक रूप से आनंद मनाने के लिए हैं । लगातार रोती बिसूरती जिंदगी के लिए इनसे बेहतर संजीवनी नहीं हो सकती ।
दिल्ली जिन लोगों को अपने भीतर रखती है वे अपने भीतर ही बहुत सिकुडते जा रहे हैं लिहाजा यहाँ मजा और आनंद तो है पर केवल व्यक्ति के स्तर तक । किसी भी काम सामूहिक भागीदारी का यहाँ अभाव है ।
इसमें न तो दिल्ली का कोई दोष है और न ही यहाँ रह रहे लोगों का क्योंकि यह तो उपनिवेशवाद व पॉपुलर के संयोग से पैदा हुई स्थिति है । उपनिवेशवाद ने दिल्ली को सीमित अर्थों में आधुनिक बनाने के लिए विरासत में ढेर सारी संस्थाएँ दी और इन संस्थाओं के अंतर्गत लोगों का सामाजीकरण ऐसा हुआ कि नया पनपा हुआ मध्यवर्ग सामूहिकता छोड़ बैठा । नतीजे के तौर पर हमारे जीवन में पड़ोसियों से संबंधित संदर्भ कम होते जा रहे हैं । अब तो दुख तक शेयर करना एटिकेट्स के खिलाफ जाता है । हाँ दूसरों को जलाने के लिए खुशी की बात बडा चढ़ा कर कहना यह भी वही है !
पॉपुलर कल्चर ने आनंद को काट छांट कर उसके बोन्साई रूप मजा को प्रस्तावित कर दिया जिसे हम मजा के रूप में देखते हैं । परिणामस्वरूप सबकुछ क्षणिक और सीमित होकर रह गया है ।
ऐसा नहीं है कि इन सबका प्रभाव मेरे शहर पर नहीं पड़ा है बल्कि वहाँ एक सर्वथा नवीन प्रवृत्ति सामने आई, वह है नई चीजों को भी अपने साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति । यही कारण है कि वहाँ वर्तमान लोकप्रिय संस्कृति एक सहायक संस्कृति की तरह उभरी ।
अपने को यदि मैं एक उदाहरण के तौर पर देखूं तो मैंने कई बार यह नोटिस किया है कि फोन की जितनी जरूरत मुझे दिल्ली में होती है उतनी अपने शहर में नहीं । वहाँ पड़ोस अब भी बचा है और आपसी संवाद भी जो त्योहार हो या गम जीवन के रस को कम नहीं होने देते !

अक्तूबर 05, 2011

शिक्षा के नाटक में बलि के बकरे !

शाम का समय : दिल्ली का एक बस स्टाप स्कूल के कपड़ों में बहुत से बच्चे खड़े हैं । बस आती है पर रुकती नहीं ... बच्चे बस की ओर लपकते हैं पर कोई फायदा नहीं । ये हार कर लौट ही रहे हैं कि लोगों देखा इस स्टाप और अगले स्टाप के बीच गाड़ी रुक गयी है कुछ बच्चे फिर से बस के पीछे भागते हैं तब तक बस निकल जाती है अगले स्टाप को भी छोड़ कर - क्योंकि वहाँ भी स्कूल के बच्चे हैं!
लौटे हुए बच्चे अपने में मस्त हैं और बस नहीं पकड़ पाने की मायूसी से बेखबर भी । पर, अन्य यात्रियों के द्वारा कोसे जाने की आवाजें तो उन तक भी पहुँचती है-इन आवाजों में गालियां, शाप और उन बच्चों को बेकार साबित करने के तमाम तत्व हैं ।
तभी कोई गाड़ी आ कर रुकती है सब एक दूसरे पर चढ़ कर उसमें ठुंसने की कोशिश करने लगते हैं! बस में ज्यादातर स्कूली बच्चे ही चढ़ पाते हैं क्योंकि उन्होंने ही सड़क के बीचोबीच खड़े होकर चालक को बस रोकने के लिए मजबूर किया और सबको छका कर चढ़ भी गए । जो यात्री नहीं चढ़ पाए वे पुन: बच्चों को कोसने लगे पर अब इन्हें कौन सुनता है! इस समय हर बस में कोहरा ही मचा रहता है आगे बढ़ो गेट बंद होने दो आदि फिर छोटी मोटी झड़प भी । यहाँ भी उन स्कूली बच्चों को कोई राहत नहीं है वे सारे लोग जो इस उम्र को पार कर गए फब्तियाँ ही कस रहे हैं ।
बस स्टाप या बस में दोनों जगह बच्चे ही गलत साबित कर दिए जाते हैं ।
हर शाम एक बस स्टाप नहीं बल्कि हर बस स्टाप का और बस के भीतर का भी यही दृश्य है । और हमारे पास न आँकड़े हैं और न ही तरीके कि विद्यालयों से निकल कर अपने घर पहुंचने की जद्दोजहद में कितने ही बच्चों को चोटें लगती है और कितनों की मृत्यु भी हो जाती है ।
सरकार के पास बच्चों के घर के आसपास स्कूल देने की कोई व्यवस्था नहीं है तभी सीमापुरी के एक बच्चे का नाम डायरेक्टरेट की कृपा से माडल टाउन के स्कूल में आता है । सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों के माता पिता के पास बच्चे को स्कूल से लाने ले जाने का कोई विकल्प नहीं होता है ।
शिक्षाशास्त्री और नीति बनाने वालों के लिए ये बच्चे कोई मायने नहीं रखते क्योंकि ये देश से बाहर के कर्जदारों को दिखाने के लिए रजिस्टर की एक इन्ट्री भर हैं !
ऐसी शिक्षा किस काम की जिसमें कदम कदम पर जोखिम और दुत्कार है साथ ही यह शिक्षा एक मजदूर से ज्यादा कुछ बनने की गारंटी भी नहीं देती ।

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...