अक्तूबर 06, 2011

दिल्ली में कभी त्योहार जैसा नही लगता । एक ढर्रे की रोज के नाश्ते सी जिंदगी जिसे हर कोई जीने की जल्दी में है ! ऐसे में कोई भी त्योहार आराम की नींद के अलावा कुछ नहीं लगता । जहाँ सपने तो हैं पर असल जिंदगी का खटमिट्ठा मजा नहीं ! इसे एक बार को नॉस्टाल्जिक होना कहा जा सकता है पर ये हमारे समाज के बदलते स्वरूप की व्याख्या करते हुए चलता है ।
मेरे शहर में त्योहार का अर्थ उत्साह है जो लगातार बना चला आ रहा है । दसहरे के दस दिन हों या दिवाली में केले के पेड़ों से सजी दुकानें, सबका अपना आनंद है । वहीं लगता है कि ये त्योहार धार्मिक से ज्यादा सामाजिक रूप से आनंद मनाने के लिए हैं । लगातार रोती बिसूरती जिंदगी के लिए इनसे बेहतर संजीवनी नहीं हो सकती ।
दिल्ली जिन लोगों को अपने भीतर रखती है वे अपने भीतर ही बहुत सिकुडते जा रहे हैं लिहाजा यहाँ मजा और आनंद तो है पर केवल व्यक्ति के स्तर तक । किसी भी काम सामूहिक भागीदारी का यहाँ अभाव है ।
इसमें न तो दिल्ली का कोई दोष है और न ही यहाँ रह रहे लोगों का क्योंकि यह तो उपनिवेशवाद व पॉपुलर के संयोग से पैदा हुई स्थिति है । उपनिवेशवाद ने दिल्ली को सीमित अर्थों में आधुनिक बनाने के लिए विरासत में ढेर सारी संस्थाएँ दी और इन संस्थाओं के अंतर्गत लोगों का सामाजीकरण ऐसा हुआ कि नया पनपा हुआ मध्यवर्ग सामूहिकता छोड़ बैठा । नतीजे के तौर पर हमारे जीवन में पड़ोसियों से संबंधित संदर्भ कम होते जा रहे हैं । अब तो दुख तक शेयर करना एटिकेट्स के खिलाफ जाता है । हाँ दूसरों को जलाने के लिए खुशी की बात बडा चढ़ा कर कहना यह भी वही है !
पॉपुलर कल्चर ने आनंद को काट छांट कर उसके बोन्साई रूप मजा को प्रस्तावित कर दिया जिसे हम मजा के रूप में देखते हैं । परिणामस्वरूप सबकुछ क्षणिक और सीमित होकर रह गया है ।
ऐसा नहीं है कि इन सबका प्रभाव मेरे शहर पर नहीं पड़ा है बल्कि वहाँ एक सर्वथा नवीन प्रवृत्ति सामने आई, वह है नई चीजों को भी अपने साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति । यही कारण है कि वहाँ वर्तमान लोकप्रिय संस्कृति एक सहायक संस्कृति की तरह उभरी ।
अपने को यदि मैं एक उदाहरण के तौर पर देखूं तो मैंने कई बार यह नोटिस किया है कि फोन की जितनी जरूरत मुझे दिल्ली में होती है उतनी अपने शहर में नहीं । वहाँ पड़ोस अब भी बचा है और आपसी संवाद भी जो त्योहार हो या गम जीवन के रस को कम नहीं होने देते !

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