दिसंबर 30, 2011

इन दिनों गाँव में !


गाँव में गाँव जैसा महसूस कराने वाली अब कुछ ही बातें हैं इनमें सीमान से बाहर की झाडी में महकते वनफूल , मरने के इंतजार में घिसटते बूढ़े , और बिजली आने की राह ताकते तार विहीन खंभे ! एक नदी है जो अपनी खूबसूरती से लुभाती बहती है । इसमें नहाने का आनंद ऐसा है कि स्कूल की ओर उसके बढ़ते जबडे को भूल जाने का मन होता है ।
सहरसा जिले में पिछले दिनों मुख्यमंत्री आए थे सो जिले के सभी सरकारी भवनों को रंग रोगन कर चमका दिया गया था । गाँव का स्कूल उस के प्रमाण सा चमक रहा है । यह चमक चिढाती है । एक दौर वह भी था जब इस विद्यालय के कमरे नहीं थे । फूस के दो कमरे में पढ़ाई होती थी । कुछ कक्षाएँ पास के मंदिर के बरामदे में लगती थी । जब बारिश होती तो सारे शिक्षक विद्यार्थियों को छुट्टी देकर उन फूस के कमरों में सुटक जाते थे ! उस समय डेढ़ सौ के आसपास छात्र थे और स्कूल के पास दो फूस के कमरे ! आज दौर बदला है । इस स्कूल में कितने ही कमरे हो गये हैं । विद्यालयों में दुर्लभ 'बाथरूम' भी बन गए हैं , क्या दोमंजिला क्या एक मंजिला सब में कंप्यूटर , जिम आदि के सामान आ कर पट गए हैं । क्या चमकदार व्यवस्था हो गयी है ! लेकिन इसका क्या काम है यह समझ नहीं आ रहा है । आज शहरी सरकारी विद्यालयों में तो वंचित वर्ग के छात्र जरूर मिल जाएँगे पर गाँवों में सरकारी स्कूल खाली ढनढन हैं । रंगे हुए कमरे किसी बच्चे की नादान लिखाई का इंतजार कर रहे हैं ! बदलते दौर ने गाँवों तक को नगरीय अंधानुकरण के सूचक इन निजि विद्यालयों से पाट दिया है । इनकी गुणवत्ता संदिग्ध है पर अपने बच्चों को पढ़ाना मूँछ का प्रश्न हो गया है जबकि इस मूँछ और इस शिक्षा का कोई अधिक महत्व नहीं जान पड़ता । ऐसे में गाँव के इस विस्तृत एवं सुसज्जित स्कूल को देखकर इसकी सार्थकता सोचने को विवश करती है ।
गाँव में बिजली के खंभे खड़े हैं उतने ही बेकार जितने कि अपने को 'उठा ले जाने' की बाट जोह रहे बूढ़े ! कुछ तार काट लिए गये हैं घरों में टंगनी बनाने के लिए और कुछ लटके हैं दुद्धी की बेल को सहारा देने के लिए । शाम 6 से 8, एक सीएफएल और एक मोबाइल चार्जिंग प्वाइंट के लिए पचास रुपये महीने लेकर शंभू अपने जेनरेटर से गाँव भर का उपकार कर रहा है । विजन-2020 के प्रतीक ये खंभे भी बहुत जल्द चापाकल के नीचे टुकड़ों में बँट कर पाट बन जाएँगे ।
दिगंबर को देखकर बड़ा आश्चर्य होता है कि इस गाँव में केंद्र और प्रदेश की इतनी बड़ी बड़ी सरकारें लोगों की आवश्यकता के अनुसार दवा नहीं बाँट सकी उसे इस आठवीं पास ने कितनी सहजता से कर दिखाया है । उसे झोलाछाप कहना उन सरल लोगों का अपमान है जो उसकी आधी गोली से ही टनटन हो गए हैं । और उसे मिलता क्या है कभी सेर भर गेहूँ तो कभी साल के अंत में एक जोड़ी कबूतर । इतना सहज प्रसार क्या किसी सरकार का कभी हो हो सकता है !!
सर्दी के इस मौसम में धूप फागुन के दिनों सी तेज है । बाहर ज्यादा देर रहा नहीं जाता और अंदर कंबल लपेटना पड़ रहा है । क्या करें ऐसे मौसम के मजे का जब खाने के लिए अन्न ही न उपज पाएँ !!

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