खिली धूप , तेज हवा और लौटती सर्दी की खूबसूरती है इस फरवरी में ! सर्दी के कपड़ों के बीच रंग दिखने लगे हैं और धूप में कुछ समय के बाद महसूस होने लगा है पसीना । कोई आश्चर्य नहीं कि प्रेम के इतने सारे उत्सवों के लिए यही समय मुफीद है । फूलों के खुले-खिले चेहरे हर तरफ अपने जैसा ही वातावरण बना रहे हैं । लोग मुस्कुराहट के साथ मिल रहे हैं और इस धूपिया खुशी के कारण कोई नहीं जानना चाह रहा है । वेलेंटाइन वाले सप्ताह का मध्य चल रहा है इसकी धमक हर जगह दिखाई दे रही है ।
हमारे एक सीनियर विश्वविद्यालय कैंपस उस समय आते हैं जब अधिकांश लोग चले गये होते हैं और कुछ जा रहे होते हैं । लोगों के जाने और उनके आने में वह संबंध नहीं है जो लोगों के जाने के समय और उनके आने के समय में है । यह समय शाम का होता है जब कैंपस में बहुत कम लोग होते हैं जिनमें से कुछ लाइब्रेरी में पढ़ने वाले और बाकी अँधेरे और एकांत तलाशने वाले होते हैं । लोग कहते हैं हमारे वे सीनियर कभी अपने लिए कैंपस में अँधेरा और एकांत नहीं तलाश पाए और अभी तक उनकी शादी भी नहीं हो पायी है । इस दशा में उनका देर से कैंपस आना किसी और प्रयोजन के लिए होता है । वे उन अँधेरों और एकांतोँ में जाते हैं और वहाँ के कार्यकलापों को महसूस करते हैं । इसे एक मानसिक विकार के तौर पर देखा जा सकता है और ऐसा करने वाले वे अकेले नहीं हैं । अंग्रेजी विभाग की हमारी एक मित्र बता रही थी कि वे लोग एक खास शिक्षक के रास्ते में नहीं पडना चाहते क्योंकि ' ही इज अ बिग टाइम ठरकी ' ।
आज बस में आ रहा था । भीड़ भरी बस में अब लड़कियाँ भी खूब चलती हैँ । सीट पर बैठे लोग सीट नहीं देते बल्कि पास बिठाने की बात करते हैं और लड़कियाँ दो सीट के बीच की जगह में खड़ी हो जाती हैं । जिस ओर महिलाएँ हैं बस की भीड़ उधर ही केंद्रित हो जाती है । विश्वविद्यालय आने से पहले कुछ लोग बस के गेट की ओर आ जाते हैं और वहाँ ऐसी भीड़ हो जाती है कि कोई भी बहुत आसानी से नहीं निकल पाए । ऐसे में जब वहाँ से लड़कियाँ निकलती हैं तो उनका 'कुछ न कुछ' किसी न किसी से चिपक कर जरूर गुजरता है । और काम पर जाते हुए लोगों (इसमें हर उम्र के लोग होते हैं ) के लिए यह बस में चढ़ने का एक आवश्यक आनंद है और वे इसे अपना अधिकार मानते हैं । आज एक लड़का अपने फोन में गाने बजा रहा था । कैंपस आने से पहले लोग भीड़ पार कर के बस के दरवाजे की ओ आ लगे , लड़कियाँ भी । उस समय 'उ ला ला ' बज रहा था । लड़कों के बीच से एक लड़कियाँ गुजर रही थी वे जोर जोर से गाने लगे ' छेड़ेंगे हम तुमको लड़की तू है बड़ी...' । किसी ने प्रतिवाद किया तो एक लड़के ने कहा ' गाने में ऐसा लिखा है हम अपनी ओर से तो कुछ नहीं कह रहे ' ! इसका जवाब किसी के पास नही था ।
इस माहौल में अपने देश की परिस्थिति में वेलेंटाइन डे की उपस्थिति को देखने की जरूरत महसूस होती है । इसके विरोध में हम कितना भी कह लें पर देश में प्रेम के स्वरूप और उस की स्थिति पर बात करने व इसे समझने का मौका इसने जरूर दिया है ।
कहते हैं प्राचीन काल में मदनोत्सव, रास, महारास आदि होते थे लेकिन यह मुझे किस्से कहानियाँ और कोरे गप्प से ज्यादा कुछ नहीं लगता । ऐसा मानने का कारण यह है कि लोक में इसके कोई प्रमाण आज नहीं दिखते जबकि पूजा-पाठ , जाति-धर्म , और छोटी छोटी रूढ़ियों को हम आज तक प्रमाण के रूप में उपस्थित पाते हैं ।
भारतीय समाज में प्रेम की सहज उपस्थिति के प्रमाण नहीं हैं और यदि कहीं ऐसा होता पाया जाता है तो उसे पाश्चात्य प्रभाव के रूप में देखा जाता है । उपर के दो उदाहरण समाज में व्याप्त यौन कुंठा की ओर संकेत करते हैं । यहाँ प्रेम सहज रूप से करने की चीज नहीं मानी जाती तभी इस पर तमाम वर्जनाएं हैं । खाप , जाति आदि के बंधन को भी इससे जोड़ने की आवश्यकता है । इतिहास में यदि प्रेम सहज रूप में स्वीकृत होता तो कृष्ण - गोपियों जैसे और उदाहरण होते साथ ही राम और सीता विवाह से पहले बस दूर से ही एक दूसरे को देखते नहीं और उनके विवाह को इतने नाटकीय रूप से दिखाया नहीं जाता ।
इस स्थिति में वेलेंटाइन डे और इसके अन्य 'डे' हमें कम से कम प्रेम को सहज रूप में देखने के लिए प्रेरित तो करते हैं । भारत में भले ही यह बाजार के रास्ते आया हो और बाजार के स्तर पर इसे स्वीकार किया भी नहीं जा सकता पर भारत में प्रेम को नये से परिभाषित करने की आवश्यकता के बीच इसकी भी भूमिका है ।
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