अप्रैल 27, 2012

क्या फायदा ऐसे दिवस का ?

एक मई यानि मजदूर दिवस ! एक ऐसा दिन जिस दिन के बारे में वह कह सकता है कि यह दिन उसका भी है । पर क्या वाकई में ऐसा हो पाता है । दिन हो या सप्ताह या फिर साल ही किसी को देने से स्थितियाँ परिवर्तित हो जाएँ ऐसा कहना कभी खतरे से खाली नही रहा । अभी साल भर ही तो हुआ है उस दिन भी एक मई ही था ! हिंदुस्तान अखबार में एक पुस्तक समीक्षा छपी थी । वह समीक्षा की तो मैंने थी पर वहाँ नाम किसी और का छपा था ! दिमाग भन्ना गया ! जिस काम को करने में मैंने उतना समय दिया उस काम का श्रेय किसी और को दिया गया ! अखबार के जिस कर्मी से मैंने समीक्षा के लिए पुस्तक ली थी और जिसे समीक्षा सौंपी थी उसे फोन किया तो उसने सीधे - सीधे मना कर दिया कि जो समीक्षा छपी है वह मेरी है ! उसने कहा उसने किसी और से लिखवायी है जिसका नाम भी छपा है । मेरे लिए यह एक सदमे से कम नहीं था ! मेरे इतना कहने पर कि समीक्षा में जो लिखा हुआ है वो मेरे शब्द हैं और बड़ी चालाकी से एक दो पंक्तियाँ उपर नीचे की गई हैं उसका कहना था कि एक ही किताब की समीक्षा है तो बातें तो मिलेंगी ही न ! और अब मुझे तंग मत करो मैं मीटिंग में हूँ । फोन कट गया था । उस आदमी ने कितनी सरलता से मेरे किए हुए काम को किसी और का साबित कर दिया था ! मैं उससे पूछना चाह रहा था कि जब किताब मेरे पास थी तो दूसरे किसी ने उसकी समीक्षा कैसे कर दी ? पर वह शख्स तो मीटिंग में चला गया था । व्यस्त होने से क्या कोई अपने अपराध से मुक्त हो सकता है ? उस दिन मेरे एक मित्र का जन्मदिन भी आता है सो मैं उसके जन्मदिन पर जेएनयू में था । दोस्तों को पता था कि मेरे साथ क्या हुआ है सो वे मुझे खुश करने की कोशिश कर रहे थे पर मन तो वहीं अटक रहा था जहाँ मेरे का श्रेय किसी और के हिस्से गया था । हम सब खाना खा रहे तो अखबार से उसी व्यक्ति का फोन आया । उसने कहा जो भी हुआ वो गलत हुआ उसके लिए मैं माफी माँगता हूँ । पर वो व्यक्ति यह स्वीकार करने के लिए राजी नहीं हुआ कि अगले दिन इस संबंध का कोई माफीनामा अखबार में आए । मैं बस इतना कह पाया कि इतने बड़े अखबार से नए लेखकों के इस तरह के शोषण की उम्मीद नहीं थी और आज एक भरोसा टूट गया । ये मैं भी समझ रहा था कि इन बातों का उसके लिए कोई अर्थ नहीं रह गया था पर एक दर्द था जो बलबला कर शब्दों का आकार ले रहा था । इस घटना से पहले मैंने इस तरह के कामों के विषय में सुना था पर प्रत्यक्ष अनुभव उसी दिन हुआ ! अपने मरने पर नर्क देखने जैसा ! एक कार्य को करने पर मजदूरी तो दूर उसका श्रेय तक भी नहीं मिलना आज के लिए नया नहीं है । जबकि हम कितने ही बरसों से ये मजदूर दिवस मना रहे हैं पर मजदूरों में बने वर्गों में जो 'बड़े' और 'ऊँचे' मजदूर हैं बड़ी सरलता और सहजता से 'निम्न' श्रेणी के मजदूरों का हिस्सा खा रहे हैं । नया लेखक लिखना चाहता है और पुराने घाघ ये जानते हैं । अतः वे लिखाते हैं और फिर बड़ी चालाकी से उस लिखे हुए के अपना या अपने चमचों का करार कर देते हैं क्योंकि उनके पास संस्था की शक्ति है जो हमेशा उसी का साथ देती है । मैं जानता हूँ स्थितियाँ बदली नहीं हैं पर इस साल भर में इतना तो हो गया कि मैं कोई काम माँगने उस अखबार के दफ्तर नहीं गया । पर क्या मैं सच्चा मजदूर हूँ - नहीं ! यदि मैं सच्चा मजदूर होता तो मेरे पास वहाँ जाने के अलावा कोई चारा नहीं था । और शायद कुछ और शर्तें लाद दी जाती क्योंकि मैंने पूछने - जानने की हिमाकत की थी । मेरे कुछ दोस्त आज भी कभी - कभी मजाक में मुझे उसी नाम से बुलाता हैं जो नाम पिछले साल एक मई को उस समीक्षा के नीचे छपा था । समझ नही पाता हूँ कि ये सीख है या किसी भी क्षेत्र में नए लोगों के प्रवेश करने से लगायी गयी रोक । यह कहना नितांत गलत होगा कि मैं यदि लिखता तो सबसे अच्छा लिखता पर अपना स्थान तो बनाने का प्रयास करता ही । लेकिन पहले ही दौर ने मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया ।

अप्रैल 14, 2012

बदला बदला सा रेडियो !

रात रेडियो सुन रहा था....रेडियो क्या एफएम सुन रहा था । आज लगता है कि हम जिस समय बड़े हो रहे थे लगभग उसी समय तकनीक में आ रहे बदलाव सामाजिक संबंधों को बदल रहा था । हमारे ध्यान दिए बिना इतनी बारीकी से यह चलता रहा कि इसके यहाँ आ जाने तक की भनक तक न लगी ।
उन दिनों वहाँ संयुक्त परिवार जैसा ही कुछ था नाना और उनके अन्य तीन भाइयों का परिवार सब एक ही बड़े घर में रहते थे । परिवारों में खाना भले ही अलग अलग बनता था पर एक साथ रहने से एक अपनापा था । सुबह 6.05 बजे जब आकाशवाणी से पहला समाचार प्रसारित होता तब से लेकर बीबीसी की शाम की सेवा खत्म होने तक रेडियो किसी न किसी के हाथ में जरूर रहता था और कोई भी कार्यक्रम अकेले नहीं सुना जाता था । गर्मियों की दोपहर में जब आसपास के लोग अपना काम समाप्त कर मचान पर बैठने लगते और घडियां दो बजाने लगती तब शुरु होता था रेडियो के समाचारों और उन पर साथ साथ टिप्पणियों का दौर ! और रोचक संयोग तो देखिए इसी समय आकाशवाणी पर एक के बाद एक समाचारों की श्रृंखला सी थी 2 बजे अंग्रेजी में , 2.10 पर हिंदी में और उसके बाद धीमी गति के समाचार ! काफी बाद में मीडिया एम ए में मीडिया पढ़ते हुए पता चला कि ये धीमी गति के समाचार दूरदराज के क्षेत्रों में चल रहे छोटे अखबारों तक खबरें देने के लिए दिए जाते थे जिनके पास ढेर सारे संवाददाता नहीं होते । आज इंटरनेट ने धीमी गति के समाचार की आवश्यकता ही खत्म कर दी । 2.10 का बुलेटिन काफी लोकप्रिय था ! और मजा देखिए कि लोग अपने सारे काम उस समय तक खत्म कर देते थे । जो उस समय तक नहीं आ पाते तो माना जाता था कि उन्हें देर हो गई ।
शाम में जब बीबीसी के समय तक लोग अपना खाना पीना निबटाकर बैठ जाते थे । मामाजी उस समय बताते थे कि इंदिरा गाँधी के मरने की खबर सबसे पहले बीबीसी ने ही दी थी । उसके बाद जब उनके बेटे प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने आकाशवाणी पर हर घंटे समाचार का आदेश दिया । चुनाव के समय परिणाम आने तक रेडियो ओवरटाइम करता था । उस दौरान कोई चैनल लगाने में देरी हो जाती तो कितने ही ताने सुनने पड़ते थे ।
इतने सब में एक बात और भी थी इन सारे समय में स्त्रियों की भागीदारी न के बराबर थी । कभी कभी मेरी माँ पटना रेडियो स्टेशन से प्रसारित होने वाली'रस मंजरी' सुनती थी ।
समय इतनी तेजी से बदला आज रेडियो मोबाइल में फिट हो गया । और इतना सर्वसुलभ हो गया कि हर जेब में कम से कम एक तो आ ही गया है । आज रेडियो सुने तो जाते हैं पर नितांत व्यक्तिगत रूप से । समाचारों का स्वरूप बदल गया । समाचार की आवश्यकता भी अब उस तरह नहीं रही । इन 15-20 सालों में जो पीढ़ी सामने आई वह बुजुर्गों के तरीकों से अलहदा हो गई । आज जब गाँव जाता हूँ तो वहाँ रेडियो जैसा कुछ सुनने को नहीं मिलता । नाना और उनके भाई लोग अलग अलग घर बना कर रहने लगे । गाँव के बहुत से लोगों ने शहरों का रास्ता ले लिया । रेडियो अब दूरदराज के इलाकों में बस क्रिकेट बेचने तक का माध्यम भर रह गया है । बिजली नहीं है तो टीवी पर मैच नहीं आ सकता उतनी देर के लिए ही वहाँ अब रेडियो है ।
शहरों में रेडियो तो है पर वह खाली समय बिताने के एक उपकरण के रूप में । एफएम ने रेडियो को तो बदला पर वह व्यक्तिगत हो कर रह गया ।

अप्रैल 08, 2012

जो देना है अभी दे दो बाद में तुम अपने घर हम अपने घर ।

सुबह सुबह शोर से नींद खुल गई है । आँखें मुँह फुलाये बैठी हैं - उन्हें और सोना है । पर क्या किया जा सकता है जब नीचे इतनी आवाजें आ रही हों उसमें सोया भी तो नहीं जा सकता । ये चिल्लम-चिल्ली निगम चुनाव के उम्मीदवारों ने मजा रखी है । सुबह सुबह जब लोग नींद में ही हों तब आकर इतनी आवाजें की जाए कि बंदा उठ जाए और समझ जाए कि ये कौन कर रहा है और क्यों कर रहा है । आज के दौर में हर जगह प्रतियोगिता का राज है , दूसरों से पहले स्वयं पहुँच जाने की इच्छा । विज्ञापन की दुनिया की तरह नये से नया तरीका ढूँढना इस समय की पहचान ! चुनाव है तो इसमें भी यही । आज मतदाता को जरूर महसूस हो गया होगा कि वह महाभारत के उस दृश्य में जी रहा है जहाँ वह गहरी नींद में सो रहा है और युधिष्ठिर - दुर्योधन उसके नींद से बाहर आने का इंतजार कर रहे हैं । एक बार को बड़ा अच्छा लगता है सोचना कि मतदाता इतना महत्वपूर्ण तो है ही कि उसके लिए इस तरह से किया जा रहा है । पर क्या यह ऐसा है ? इस व्यस्त से समय में मुश्किल से अपनी नींद के लिए अवकाश निकाल पाता है और उसके नितांत व्यक्तिगत पलों में उसे व्यक्तिगत नहीं रहने देने की कवायद की जाती है । बहरहाल नींद तो गई तेल लेने । मैंने गैलरी में जाकर देखा तो बड़ा ताज्जुब हुआ कि एक साथ इतने सारे बच्चे हाथों में खास पार्टी का चुनाव चिन्ह ले कर आगे आगे नारे लगाते चल रहे हैं । वे बच्चे किसी भी तरह से इस मोहल्ले के नहीं लग रहे हैं । प्रत्याशी के और उनके रिश्तेदारों के बच्चे हों इसकी संभावना तो प्रत्याशी को देखकर नहीं लगती । कम से कम जो काला चश्मा मैडम चढ़ा रखा है उसे देखकर तो पक्का कहा जा सकता है कि ये बच्चे उनके और उनके रिश्तेदारों के नहीं हैं । मैं नहीं जानता कि ये बच्चे कहाँ के हैं पर इसी तरह के बच्चों को कई बार विश्वविद्यालय मेट्रो पर दो दो रुपए माँगते देखा है ।
अभी परसोँ दिल्ली विश्वविद्यालय के आसपास घूम रहा था तो देखा लगभग सौ की संख्या में महिलाएँ किसी खास पार्टी के पर्चे बाँट रही थी । एक ही प्रकार के आर्थिक परिवेश की झलक उन स्त्रियों से क्यों आ रही थी , जिस इलाके में मैं घूम रहा था वहाँ इस आर्थिक समूह की स्त्रियाँ रहती ही नहीं है और जब मैं बस से यमुनापार आता हूँ तो वो प्रचार करने वाली स्त्रियों की तरह ही दिखने वाली स्त्रियाँ इस तरह की बातें कि 'आज यहाँ गए वहाँ गए ' '250 रुपए कम दे रहे हैं ' ' कितना भी खर्च कर ले जीतेगा नहीं' क्यों करती नजर आती हैं ये समझ पाना बहुत कठिन नहीं है ।
कल शाम बाल बनवा रहा था और वहीं पास में एक चुनावी सभा हो रही थी जिसमें स्थानीय विधायक भी उपस्थित थे । उन्होंने तमाम सूचना दी कि फलाँ दल के प्रत्याशी ने जब से पर्चा दाखिल कराया है तब से आफिस में दिन रात खुल्ला खाना दे रहे हैं , वो वाला शराब बाँट रहा है और ये निर्दलीय नोट ! जब उन लोगों की चुनावी सभा खत्म हुई तो उद्घोषक ने वहाँ बैठे लोगों से अनुरोध किया कि वे थोड़ी देर और बैठें उनके लिए नाश्ते की व्यवस्था की गई है ।
देश की चुनावी राजनीति, देश की दशा से बहुत आगे चली गयी है । अब यह मतदाता और नेता दोनों ही स्तरों पर माना जा चुका है कि इस गरीबी या महँगाई या कि सड़क आदि का इलाज किसी के पास नहीं है । ऐसी स्थिति में दोनों ही एक ने तरह के संबंध में बँध रहे हैं और यह है तात्कालिक और व्यक्तिगत फायदे का संबंध । जो देना है अभी दे दो बाद का झंझट ही क्यों पालें ! इस बीच एक नए तरह का वर्ग भी उभरा है जो चुनाव प्रचार के लिए एक तरह से 'स्किल्ड लेबर' का काम कर रहा है । ये दिखने में भले ही लुंजपुंज , गंदे दिखते हों पर इनमें एक प्रोफेशनल के गुण भरे पड़े हैं एक बार यदि पैसा लिया तो उसकी पूरी कीमत भर काम करते हैं । यह स्थिति भी एक तरह से लोकतंत्र के हित में ही है । पैसे का किसी रूप में सही नीचे की ओर प्रवाह हो तो रहा है । पहले जहाँ दूर दराज से ऐसे लोगों को चुनाव -प्रचार के लिए केवल 'पेट-भात' पर पकड़ लाया जाता था उससे तो स्थिति बदली है ।

अप्रैल 01, 2012

बेतरतीब यादें और उनका छूटते जाना !

जिन दिनों मैं अपने नानी के यहाँ रहता था उन दिनों उतने बड़े गाँव में शहतूत का एक ही पेड़ था । फागुन के खत्म होते ही लंबी और मोटी हवाओं में धूल के बड़े बड़े बादल यहाँ से उड़कर वहाँ जाते रहते थे । सुबह में हल्की सर्दी लगती थी पर 'टाभ नींबू' और सड़क के कात की 'भैंठ' की झाडी से उठती खुशबूओं के लिए सबेरे ही उठ जाना बड़ा ही आकर्षक हो जाता था ! पिताजी ऐसी ही सुबहों में कहते : प्रभाते भ्रमणं पथ्यम । मुझे लगता है उन्हें भी इस मौसम के अलावा बाद की सुबहें शायद नहीं लुभाती इसीलिए बाद के दिनों में कभी ऐसा नहीं कहा ।
बहरहाल उस नानी गाँव वाले शहतूत पर जाने से पहले एक बात और । उन धूल भरे दिनों में सबसे ज्यादा डर अगलगी का होता था । बहुत कम ऐसी शामें होती जिसमें ये खबर न आती की अमुक गाँव में आग लग गई ढेर सारे घर जल गए । सबसे ज्यादा दुख उन मवेशियों के लिए होता जो बँधे बँधे ही जल जाते थे !
फिर जिनके मवेशी इस तरह मर जाते थे उन्हें 'वध' लग जाता था । वे लंबे समय तक प्रतीक रूप में गले में एक रस्सी बाँध लेते और मौन रहते थे । हमारे इलाके में 'बध लगना' आज भी एक मुहावरे के तौर पर इस अर्थ में प्रयुक्त होता है जब किसी को कोई भारी दुख लग जाए और उससे वह अवाक़ हो जाए ! पशुपालक समाज में मवेशी कमाऊ सदस्य होते हैं उनके जाने का दुख उतना ही गहरा जितना घर के किसी मनुष्य का !!
उस शहतूत पर बच्चे क्या बड़े बड़े भी लगे रहते । उन फलों के पकने का इंतजार और ऐसा होने देने का धैर्य किसे था ! उन हरे हरे खट्टे फलों में ही सारा स्वाद था और यदि किसी को ज्यादा हाथ लग गए तो उसके घर शहतूत की चटनी ! बेचारा शहतूत लाठी पत्थर और पता नहीं क्या क्या झेलना सीख चुका था ।
और रही सही कसर उस पर चढ़ने वाले निकाल देते । शहतूत के खतम हो जाने के बाद ऐसा लगता जैसे दूसरी बार उस पेड़ पर पतझड आ गया हो ! तब उसकी ओर कोई मुँह भी नहीं करता । छूछा पेड़ -हुंह !!
आज दिल्ली में जहाँ भी जाईये शहतूत ही शहतूत नजर आते हैं । पक पक कर जमीन पर गिरते और अपना दाग छोड़ते शहतूत ! यहाँ ये जितने फलते हैं उसका एक प्रतिशत भी लोग खा लें बहुत है । दिल्ली की कच्ची कॉलोनियों में तो छोटे बच्चों को पेड़ से शहतूत 'चुनते' देखा पर अन्यत्र नहीं । एम के दिनों में दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय की लाइब्रेरी के भीतर लॉन में जो शहतूत का पेड़ था उसकी डालियां फल लगने से काफी नीचे तक झुक जाती थी । मैं और नंदू जबतक फल रहते तबतक बिला नागा जरूर खाते थे । वह पेड़ आज भी वहीं है अलबत्ता उसकी डालियों को जरूर पांग कर छोटा कर दिया है जिससे जो फल पहले हाथ से ही पकड़ में आ जाते वे अब कई मीटर उपर हो गए हैं । नंदू कब का दिल्ली छोड़ चुका है अभी उसने फोन कर बताया था कि उसकी शादी तय हो गयी है । उसने उस दिन एक और बात कही कि हम न के बराबर बात कर पाते हैं फिर भी हमारे बीच दोस्ती वही पुरानी है । तब लगा कि गला फाड़ के रोऊं कि जब हम मिलते थे तो कभी ये नहीं सोचा कि यह सब खत्म हो जाएगा, हम सब की राहें इस कदर अलग होंगी ! नंदू क्या बहुत सारे मेरे दोस्त और मैं आज इसी मोड़ पर खड़े हैं जहाँ शहतूत से हाथ की दूरी बढ़ती ही जा रही है ।
मेरे नानी के गाँव वाला शहतूत नहीं रहा और नहीं रहे भरी धूप में वहाँ जाने से रोकने वाले लोग ! दिल्ली में शहतूत का वह पेड़ तो है ही और दूसरे भी हैं पर फल हाथों की पहुँच से दूर होते जा रहे हैं ।
नंदू की शादी उन पुराने दिनों में खुशी देती थी पर अब वह दोस्ती के दायरे से हम दोनों की अंतिम विदाई जैसी लगती है ।
ये मौसम है कि हर बार आएगा और शहतूत में फल हर साल लगेंगे और दोस्तों से मिलने की तडप हर बार उठेगी !!

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...