मई 25, 2012

शहर दिल्ली और मैं -1

दिल्ली के मंडी हाउस इलाके को दिल्ली से बिल्कुल अलग करके देखना पड़ता है । यह आम दिल्ली नहीं है ! आरंभ में जब मैं नया नया दिल्ली आया था तो नाटकों का क्रेज था पर यह नहीं जानता था कि यहाँ नाटक होते कहाँ पर हैं ! और दूसरे यह भी कि उस समय मैं दिल्ली से अपरिचित तो था ही साथ ही दिल्ली के विस्तार से डर भी लगता था ! बाद में मंडी हाउस का पता चला कि वहाँ ढेर सारे प्रेक्षागृह हैं जहाँ नाटक आयोजित होते हैं ! इसके साथ ही यह भी कि वहाँ हर आधे घंटे में एक फिल्म बनती है , लगती है और उतरते ही अभिनेता को रातोंरात सुपरहिट बना देती है । शायद मेरे लिए ही उन दिनों सुरेंद्र शर्मा के ग्रुप ने आ 'रंगभूमि' को नाटक के रूप में पेश किया और हमारी एक परिचित उसमें एक छोटा सा किरदार कर रही थी । नाटक देखा तो पाया कि ये तो हमारे शहर के नाटकों से बिल्कुल अलग है ! मंच सज्जा तो बेहतरीन थी ! सुविधाएँ रहने पर साधारण अभिनेता भी अलग ही नजर आने लगते हैं जो मैंने बाद में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के संदर्भ में भी महसूस की । हमारे यहाँ तो आज भी लड़की का किरदार निभाने के लिए लड़की नहीं मिलती । इसीलिए वहाँ एक तो ऐसे नाटक ही किए जाते हैं जिनमें स्त्रियों की भूमिका ही नहीं होती और यदि एक दो स्त्री चरित्र हैं तो उनकी भूमिका भी पुरुष ही निभाते हैं । बहरहाल जब मैं 'रंगभूमि' देखकर निकला तो मैं लगा मंडी हाउस के भूगोल को देखने ! तब वहाँ आज की तरह मेट्रो नहीं बनी थी फिर भी रोशनी और चमक - दमक का अंदाज वही था । मेरे लिए यह अनुभव बड़ा ही रोचक रहा क्योंकि उसके बाद तो उधर जाने की आदत पड़ गयी ! इस आदत को विकसित करने में रितेश का भी बराबर योगदान है । नाटकों के प्रति उसका जुनून गहरा है । उन दिनों हमारे पास दिल्ली विश्वविद्यालय का बस पास हुआ करता था सो कहीं भी कभी भी चलने में सोचने तक की आवश्यकता नहीं थी ! धीरे - धीरे मैं दिल्ली से परिचित होता गया फिर ये उतनी आक्रामक और विस्तृत नहीं रह गई ! फिर तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय , साहित्य अकादमी , त्रिवणी कला केंद्र , श्रीराम सेंटर , कमानी , एलटीजी , बंगाली मार्केट ये सब आम शब्दों जैसे लगने लगे ! इनके साथ जो महाकाव्यीय भाव थे वे सब जाते रहे ! इस इलाके में लगता था कि चाय की दुकान के आसपास मँडराने वाला कुत्ता भी अभिनेता ही है और जो उसकी चाल है वह कोई गंभीर अदा है ! मनुष्यों की तो बात जाने ही दीजिए ! श्रीराम सेंटर के पास एक चाय नाश्ते की दुकान है, उसके बाजू में एक गराज जिसके मालिक का हुक्का और उसके गुड़गुडाने का अंदाज लाजवाब ! हमारे जैसे दर्शकों के अलावा वहाँ जो भी हैं अभिनेता ही हैं । लगता है उन्हें ही देखकर शेक्सपीयर ने कहा था ' दुनिया एक रंगमंच है और हम उसके अभिनेता ' ! एक दोपहर में यूँ ही किसी इंतजार में वहीं श्रीराम सेंटर के चौराहे पर बैठा था वहाँ एक लड़की एक व्यक्ति से बातें कर रही थी । उसके हाथ में उसका पोर्टफोलियो था । व्यक्ति उसकी तस्वीरें देखता जा रहा था । वह एक फोटो पर जाकर रुख गया और कहने लगा कि ये तस्वीर तुम्हें फिल्मों में काम दिला सकती है। लड़की की आँखें चमक उठी उसने फिर से बताया कि वह कई नाटकों में अभिनय कर चुकी है । व्यक्ति ने कहा मुख्य भूमिका तो मिलना थोड़ा कठिन है पर बहन ,भाभी का किरदार तो पक्का मिल जाएगा । लड़की की आँखों की चमक थोड़ी कम हुई ! तभी वहाँ एक और व्यक्ति आया । वही रंगमंचीय पात्र एक बार को शक हो जाए कि यहाँ कोई नाटक तो नहीं चल रहा ! उसने पहले व्यक्ति को 'हाय' किया और बिना पूछे ही पोर्टफोलियो लेकर देखने लगा ! एक तस्वीर पर जाकर वह भी रुख गया । उसने कहा तुम्हारी ये तस्वीर तुम्हें लीड रोल दिला सकती है और वो मैं तुम्हें दिलाउँगा ! फिर वह उठ कर एक कोने में चला गया लड़की भी पीछे -पीछे ! बातें होने लगी ! 'सर मैंने कई नाटकों में रोल किया है ' । 'तुम मेरे घर पर क्यो नहीं आती ! वहीं बातें करते हैं । डरो मत मेरे पत्नी भी है तुम्हारी तो बहन ही हुई !' बड़ी चालाकी से वह लड़की साली बना ली गई थी ! थोड़ी देर बाद सब जाने लगे । जाते जाते लड़की ने अगले संडे उस व्यक्ति के घर आने का वादा भी दिया ! मेरा इंतजार जारी था !

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