सितंबर 03, 2012

केबीसी अब ह्क़ भी दिलाता है .....

दिन भर में बहुत कुछ मिल जाता है जो सोचने को विवश कर दे । तमाम जगहें हैं जहां पर बड़े बड़े विज्ञापन हमारा ध्यान ही नही खींचते बल्कि ये दावा भी करते हैं वे हमारा ज्ञान बढ़ाते हैं । और कभी कभी ऐसा करते भी हैं । आज कल हमारे' सम्मानित बुजुर्ग 'अमिताभ बच्चन अपने कार्यक्रम कौन बनेगा करोडपति को लेकर हर जगह छाए हैं । मेट्रो से निकलते हुए देखा किस प्रकार वे अपने काम की विशेषता बता रहे थे - अखबार के पन्ने जैसे होर्डिंग मे एक स्वस्थ सा चेहरा लेकर । उनके चेहरे के पास बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था - ज्ञान ही सबको अपना हक़ दिलाता है । इस पंक्ति को पढ़कर सहजता से कहा जा सकता है कि वे और उनकी पूरी टीम ज्ञान कि अपनी व्याख्या ही नही कर रहे बल्कि भारतीय समाज में व्याप्त असमानता का सरलतम समाधान दे रहे हैं । फौरी तौर पर यह लगता है कि कितनी महत्वपूर्ण बात कही गयी है परंतु इसे गहराई से देखे तो यह हमारी ज्ञान के प्रति मानसिकता और सामाजिक समस्याओं के प्रति वैचारिक अस्पष्टता को भी प्रदर्शित करता है । ज्ञान को किस तरह से समझा जाए यह विमर्श का विषय हो सकता है और आज भी यह विमर्श केवल शिक्षाशास्त्रीय ही नही बल्कि दार्शनिक एवं समाजशास्त्रीय स्तरों पर चल रहा है । उन विमर्शों से यदि एक सर्वमान्य बात उठाई जाए तो वह ये हो सकती है कि सूचना ज्ञान का एक हिस्सा है तथा सूचना और ज्ञान में अंतर है । सूचनाओं को ही ज्ञान मान लेने कि प्रवृत्ति ने एक शैक्षिक संकट का सा वातावरण खड़ा कर दिया है । यह क्रमिक रूप से भारत जैसे समाज में जहां आज भी बहुत से लोगो को शिक्षा ग्रहण करने का अवसर नही मिल पाता है ,सूचनाओं के जानकारों को विशिष्ट होने का दर्जा देता है । यही विशिष्टता तथाकथित ज्ञान आधारित वर्चस्व को स्थापित करती है और एक बड़ी आबादी को हाशिये पर ला कर खड़ा कर देता है । इस प्रवृत्ति को बढ्ते हुए हम इस प्रकार देख सकते हैं कि देश भर मे किताबी ज्ञान को ही महत्व दिया जाता है। आम दैनिक जीवन में किताबी ज्ञान ज़्यादातर काम नही देते या इसे यों कहें कि दिन प्रतिदिन के ज्ञान में से ही किताबी ज्ञान के लिए अवसर बनता है । किताबी ज्ञान पर निर्भरता न सिर्फ सामान्य ज्ञान के लिए अवसर सीमित करता है बल्कि ज्ञान कि एक पंगु परिभाषा बनाती है । इसी को आगे बच्चों पर उनके माँ बाप द्वारा दिए जा रहे दबाव के रूप में द्देखा जा सकता है । एक समय अमेरिका में सरकार द्वारा अश्वेतों की शिक्षा पर किए जा रहे खर्चों पर रोक लगाने के लिए श्वेतों ने अलग अलग तरह के तर्क दिए थे । कुछ मनोविज्ञानियों ने तो तरह तरह के टेस्ट भी ईज़ाद कर के दिए जिससे ये साबित किया गया की अश्वेत शिक्षा के लायक ही नही हैं । एक दिलचस्प शोध तो यह था कि एक खास समयान्तराल में अमेरिकियों द्वारा खेल एवं शिक्षा , विज्ञान आदि क्षेत्र में प्राप्त उपलब्धियों कि तुलना । खेल में ज़्यादातर सफलता अश्वेतों को और अन्य में श्वेतों को मिली थी । इस आधार पर कहा गया कि अश्वेत पढ़ाई लिखाई के काबिल ही नही हैं और उन पर पैसा खर्च करना बेकार है । यह किताब आधारित ज्ञान के वर्चस्व कि ऐतिहासिक बानगी है । और भारत उसी दिशा में बढ़ता जा रहा है । कौन बनेगा करोडपति जैसे कार्यक्रम किताब आधारित ज्ञान ही नही बल्कि उससे आगे बढ़कर सूचना को ही ज्ञान मान रहे हैं । और यह सूचना केवल उनके पास ही है या वो ही इस पर अधिकार रख सकते हैं जिनके पास उसे ग्रहण करने के अवसर हैं । जो यह अवसर नही रखते वो इस नए प्रकार के ज्ञान कि पूरी प्रक्रिया से ही बाहर हैं । यह ठीक उसी प्रकार कि स्थिति है जैसी कि अवशयक संसाधनों के अभाव में देश के लाखों लोग शिक्षा से वंचित हैं । इस प्रकार के वंचित लोगों कि संख्या निरंतर बढ़ ही रही है । इस दशा में ऐसे कार्यक्रम नए प्रकार के संकट का निर्माण कर रहे हैं जहां विभिन्न प्रकार के ज्ञान जो लोक में और स्थानीय स्तरों पर उपलब्ध हैं विलुप्ति के कगार पर हैं । यह प्रक्रिया अलग अलग प्रकार के श्रमों के प्रति हमारी स्वीकार्यता को भी कम कर रही है । भारत जैसे देश में जहां असमानता का कोई एक स्वरूप नही है वहाँ पर हक़ को प्राप्त करना बहुत सरल नही है । इस अवस्था में ज्ञान से हक़ प्राप्त कराने का दावा करना दूर कि कौड़ी जैसी लगती है । यदि इसे प्राप्त करने के लिए प्रयास किया भी जाए तो उससे पहले इन असमानताओं को समझने कि जरूरत है । कौन बनेगा करोडपति हक़ दिलाने का जो तरीका बता रहा है वह समाज में व्याप्त भेद को स्वीकार करते हुए उसी में जीते रहने के पुराने तौर तरीकों का ही प्रातिनिधित्व करता है । अमिताभ बच्चन और उनका समूह मुहावरे तो नए गढ़ रहे हैं पर उनके आधार वही सामंतवादी हैं जिसमें यथास्थिति को ही स्वीकार करने की प्रवृत्ति है ।

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