सितंबर 29, 2012

अखबार का विभाजन

हालांकि इसकी शुरुआत काफी पहले से ही हो चुकी है पर आज कल इसका चलन काफी ज़ोर पकड़ रहा है । अखबार अपने परिशिष्ट में महानगरीय जीवनशैली को ही प्रमुख रूप से स्थान देने में लगे हुए हैं । यह एक ऐसी स्थिति है जब हम किसी भी महानगर को एक समांगी संरचना के रूप में ही देखने के आदि होने लगते हैं । इस दशा में उसमें बने हुए स्तर या तो दिखते नही या हम उन्हें देखना नही चाहते । अभी एक हिन्दी अखबार में 'लाइफ स्टाईल' को समर्पित परिशिष्ट को देख रहा था । उसमे छापे हुए सारे लेख दिल्ली की एक अलग ही छवि गढ़ रहे हैं जो उनसे पक्के तौर पर अलग हैं जो झुग्गी बस्तियों वाली दिल्ली की छवि है । कुछ लोग होंगे जो रात में मजे करने के लिए निकलते होंगे या ऐसा भी हो सकता है की इनकी संख्या ज्यादा भी हो पर ये कभी भी उन लोगों से ज्यादा नही हो सकते जो पुरानी सीमापुरी , सुंदर नगरी या जहांगीर पूरी की सड़कों पर खड़े सरकारी संडास से उठती दुर्गंध के बीच खुले में अपनी रात बिताते हैं । जहां गर्मी की रातें बहुत छोटी हो जाती हैं क्योंकि बिजली के अभाव में उन नीची छत वाले कमरों में सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है । ऐसी दिल्ली में नाइट लाइफ एक ही नही हो सकती न । बेशक बहुत से लोग इंडिया गेट पर या किसी बड़े होटल के क्लब में अपनी रात बिताने की क्षमता रखते हैं पर एक अखबार के लिए उनका जरूरी होना ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है । ऐसे अखबार जिनका प्रसार कुछ और राज्यों में भी है उनकी स्थिति बहुत हास्यास्पद हो जाती है । इसकी बानगी हाल ही में पटना में देखने को मिली । एक तो ये तथाकथित राष्ट्रीय अखबार दिल्ली में जो चीजें आज छपते हैं वही चीजें अगले दिन या उसके भी अगले दिन दूसरे राज्यों में छापते हैं । खैर , वाकया ये हुआ कि परिशिष्ट में जो लेख दिल्ली से पढ़ के गया था वही अगले दिन उसी लेखक के नाम से पटना में भी पढ़ने को मिला लेकिन कुछ चीजों में बदलाव के साथ जैसे दिल्ली का 'मिरण्डा हाउस कॉलेज' बन गया था पटना का विमैंस कॉलेज और इंडिया गेट बन गया था पटना का गांधी मैदान । बहरहाल कहना ये है कि अखबारों के माध्यम हम जो पढ़ते हैं वह क्या बहुसंख्यक के लिए है ? शायद नही । अपने देश में अखबार आज भी इंटरनेट से ज्यादा पढे जाते हैं और इसकी सबड़े बड़ी वजह है इसका सस्ता और सबके लिए आसानी से उपलब्ध होने वाला भी । इसमें ज़्यादातर लोग महानगरों और नगरों से बाहर भी रहते हैं । आजकल अखबार को देखने पर लगता है कि उसका स्पष्ट विभाजन हो रखा है । समाचारों का हिस्सा बहुसंख्यक के लिए हो तो हो पर परिशिष्ट तो उसके लिए बिलकुल नही लगता है । ज़्यादातर परिशिष्ट , सोसाइटी ,मौज मस्ती , ट्रेंड्स ,सैर सपाटा , पेज 3,वीकेंड प्लानर जैसे शीर्षकों के साथ आते हैं जो शायद ही आम आदमी के लिए कोई मतलब रखते हों । यह महानगरीय माध्यम वर्ग का जीवन भले ही हो पर उसी महानगर मे रह रहे बहुत से लोग उससे बिलकुल अलग जीवन जीते हैं । वहाँ खाने का ठीक - ठिकाना ही नही है मोटापा कहाँ से । शास्त्री पार्क की वो स्त्रियाँ फैशन और पेज़ 3 के ट्रेंड्स जान कर क्या करेंगी जो 2 रूपय के मुनाफे के लिए दिन दिन भर बैठ कर मोबाइल चार्जर और नकली गहने बनाती हैं । ये अलग बात है कि हम जिस समय में जी रहे हैं उसमें सहज तरीके से कह दिया जाता है कि आज अखबार आंदोलन के नही चलते और अखबार निकालना समाज सेवा नही है । इस बात से इंकार नही किया जा सकता कि ये एक उद्योग है लेकिन ये क्या जरूरी है कि 70 फीसदी लोगों पर कुछ लोगों की रुचियों को थोपा जाए ! और यदि ऐसा हो रहा है तो उस 70 फीसदी लोगों को भी मौका दिया जाना चाहिए और उनकी रुचियों को भी स्थान मिले । लोकतान्त्रिक संरचना में पत्रकारिता यदि इस प्रकार का विभाजन कायम रखती है तो उससे नुकसान पत्रकारिता का ही है क्यूंकी आम आदमी का कम होता प्रतिनिधित्व उसे अखबारों से दूर ही करेगा ।

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