अक्तूबर 31, 2012

स्थायी क्षति की ओर बढ़ती शिक्षा !

अभी हाल ही में दूरदर्शन के एक कार्यक्रम के दौरान 'मॉडर्न स्कूल' की प्रधानाचार्य बार-बार आरटीई वाले बच्चे , आरटीई वाले बच्चे कह रही थी । जाहिर है यह उनके यहाँ और उस तरह के अन्य विद्यालयों में हाल में बने शिक्षा गारंटी कानून के तहत पढ़ रहे चंद गरीब बच्चों के लिए सबसे सम्मानित नाम है । लेकिन यही नाम एक तरह से उनके लिए नई श्रेणी गढ़ रहा है जो उसी तरह से उन्हें उपहास का आधार बना रहा है जैसे कि गरीब बच्चे या कि अन्य नाम ! बड़े स्कूल की किसी भी एक कक्षा में इस कानून के अंतर्गत पढ़ने आ रहे बच्चों की संख्या उसमें पढ़ रहे खानदानी रूस बच्चों की तुलना में बहुत कम है जो उस धनी चकाचौंध भरी दुनिया में उनके लिए एक कष्टकारी स्थिति से कम नहीं होगा जहाँ वे अपना टिफिन खोलने तक की हिम्मत नहीं करते होंगे ! वो प्रिंसिपल आगे बोलती हैं कि कानून बनते ही हमने अपने शिक्षकों को यह निर्देश दिया और उनकी ट्रेनिंग शुरु कर दी क्योंकि 'आरटीई वाले बच्चों' को कक्षा के स्तर तक लाने के लिए बहुत काम करने की आवश्यकता है । ऐसे प्रधानाचार्य की बात समझ से परे है क्योंकि बड़े स्कूल में पढ़ रहा एक बच्चा , किसी झुग्गी बस्ती में रहकर सरकारी स्कूल जा रहे या स्कूल नहीं भी जा रहे बच्चे से बहुत ज्यादा अलग नहीं है । यदि हम किताबी ज्ञान को बच्चे की विशेषता मान कर उसके आधार पर बच्चे- बच्चे में विभेद कायम करते हैं तो निश्चय ही यह एक गंभीर स्थिति है । पुस्तकों में जो ज्ञान निहित हैं उन्हें पुस्तक पढ़ कर जान लेना कोई बहुत कठिन कार्य नहीं है । यहीं एक दूसरी बात भी आती है कि यह ज्ञान किस प्रकार हासिल किया जा सकता है ? यदि दोनों ही बच्चों के लिए समान स्थितियाँ होती तो शायद नतीजे के रूप में हमें कुछ और ही देखने को मिलता ! समान किताबें , पढ़ने के लिए समय , उचित रोशनी यदि झुग्गी झोपड़ी में जी रहे बच्चे को मिलते तो उसके विकास की भी बराबर संभावना बन सकती थी । ऐसी दशा में हम यदि गरीब पृष्ठभूमि से आ रहे बच्चों को कक्षा में पढ़ रहे धनी बच्चों की तुलना में रखेंगे तो जाहिर है वे कहीं नहीं ठहरेंगे ! उनके अपने अनुभव भी उन्हें कक्षा के अन्य विद्यार्थियों से अलग ठहराते हैं । एक तरह से यह दशा 'मिस-मैच' की है । हालाँकि अभी इस व्यवस्था को लागू हुए दो साल ही हुए हैं सो किसी निष्कर्ष पर पहुँचना जल्दबाजी होगी लेकिन इसके अबतक सामने आए लक्षण उत्साहवर्धक नहीं हैं । बड़े बड़े निजी विद्यालय अपने यहाँ काम कर रहे गार्ड, माली आदि के बच्चों को दिखाकर इस कानून की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं । आगे जिन लोगों के बच्चे किसी कारणवश इन बड़े स्कूलों में दाखिला नहीं ले पाते वे जहाँ तहां से फर्जी बीपीएल कार्ड बनवा कर वास्तविक गरीब बच्चों का हक मार रहे हैं और इसमें कुछ स्कूल भी उनकी मदद कर रहे हैं । कानून बने दो साल हो गए हैं और लगभग इतना ही समय उसकी तोड़ ढूँढने वाले दिमाग ने खपाए हैं । इसमें भला जिन बच्चों का होना चाहिए था उनका नहीं हुआ । भला देश की शिक्षा का होना चाहिए था वह तो सिरे से खानापूर्तियों के चक्रव्यूह में फँस गया ! जरूरत देश के शिक्षा माफियाओं के चरित्र को समझ कर सभी शिक्षा संस्थाओं के राष्ट्रीकरण की है ताकि सबको समान शिक्षा मिल सके ! 12 वीं शिक्षा के क्षेत्र में जबतक विभेद और स्तरीकरण की स्थिति रहेगी तबतक उच्च शिक्षा में ज्यादा लोगों का आना संभव नहीं हो पाएगा और गुणवत्तापूर्ण शोध के क्षेत्र में हम निरंतर पिछड़ते ही रहेंगे । शिक्षा का अधिकार कानून का लक्ष्य केवल यह हो कि बहुत से छात्रों का नामांकन हो जाए बाद में वे क्या पढ़ते हैं, कहाँ जाते हैं उससे कोई सरोकार नहीं है । हम जिस चुनौती भरे समय का सामना कर रहे हैं , उसमें मात्रा के साथ साथ गुण भी होना जरूरी है ! क्योंकि केवल मात्रा पर ध्यान देना हमारी शिक्षा को चिरस्थायी क्षति पहुँचा सकता है ।

अक्तूबर 16, 2012

वो त्योहारी रोमांच बुलाता है ....

न मुझे दुर्गा पसंद और न ही मेरी अब पूजा में रुचि है पर दुर्गापूजा का यह समय बहुत लुभाता है । इसके पीछे वो पुराने रोमांचक अनुभव हैं जो बार -बार अपनी ओर खींचते हैं । लोग ये भले ही न माने कि बिहार में भी दुर्गापूजा का अपना मजा और सौंदर्य है जो कहीं से भी कम नही है पर यह बहुत भव्य रूप से वहाँ भी मनाया जाता है । हालांकि बिहार, बंगाल का ही हिस्सा था और बंगाल की पूजा को अंग्रेजों ने भी सराह दिया तो हम औपनिवेशिक गुलामों को कहीं और जा कर देखने और विचार करने की जरूरत ही नही रही । दुर्गा पूजा को मैं एक त्योहार नही कहता बल्कि मेरे लिए यह एक अवसर है और शायद एक समय जब हर तरफ एक अलग ही प्रकार की खुशबू रहती है । इस अवसर कि शुरुआत का धान के फूलों की महक से ही पता चल जाता है और मन अपने आप से त्योहारी हो जाता है । चूंकि हमारे उधर इस समय जहां देखिये वहाँ धान ही धान दिखता है सो उसकी महक ,उसका रंग आवश्यक रूप से इस समय के साथ जुड़ जाता है । यदि धान की फसल अच्छी नही प्रतीत होती तो ये त्योहारी चमक फीकी ही रहती है । और यदि सारा मामला दुरुस्त रहा तो क्या कहिए ! अगतीया भदई धान कट कर आ जाता है, जब बैलों से उनकी दौनी चल रही होती है उस समय बैलों के पैरों के नीचे दबने से धान एक अलग ही गंध छोडते हैं । फिर उस समय कहीं से गरम-गरम मूढ़ी-शक्कर मिल जाए तो मत पूछिए-मुंह में पानी आ गया ! खैर बात तो अभी हम दुर्गा पूजा पर कर रहे हैं । ये अवसर है और ऐसा अवसर तो साल भर बाद ही मिलता था । जिसमे लंबे समय तक इसकी आड़ ले के हम स्कूल के चक्कर से बच जाते थे , खाने के लिए भले ही मांस-मछली और प्याज-लहसुन वाली तरकारी नही मिलती थी पर मौज थी । वैसे भी मांस-मछली कौन सा महीने- डेढ़ महीने से पहले खाने को मिलती थी । बहरहाल , दुर्गा पूजा का मजा तो बहुत था । पता नही अभी भी वैसा मजा आता है या नही ।

 फूल चुनने का आनंद :

 फर्ज़ कीजिये एक ऐसी जगह का जहां कोई बाज़ार न हो जिसमें दिल्ली की तरह फूलों की कोई मंडी या दुकानें न हो । ऐसी जगहें उधर एक नही बल्कि सभी हैं । छोटी जोत वाले सीमांत किसान अपने दालान पर यदि एक बैगन का पौधा लगाते हैं तो मौसम आने पर दोनों साँझ के लिए सब्जी की व्यवस्था हो जाती है वहाँ फूलों वाले पौधे या पेड़ लगाने का तो प्रश्न ही नही उठता है । और पड़ोस के गाँव में जो दो घर माली थे उनसे चार कनेर के फूल और उसके चालीस पत्ते के लिए तीन-चार रूपय का गेंहु देना कहीं से भी अच्छा सौदा नही रहता था । दुर्गा पूजा में जो कभी पूजा का 'प' भी न करे वो कम से कम एक टुकड़ा फूल और एक लोटा पानी तो जरूर चढ़ाता है । सो सब के लिए फूल भी चाहिए और फूल कहाँ मिलते हैं । पर फूल मिलते हैं किसी मंदिर के पास , गाँव के समृद्ध लोगों के दालान पर एक तो वहाँ से फूल लाना टेढ़ी खीर रहती थी दूसरे ऐसा करने वाले आप अकेले नही होते थे । सो हर बार फूल हाथ लग ही जाएँ ऐसा नही था । पर हम इसके लिए एक से एक चालाकियाँ किया करते थे । कभी आधी रात ही निकल जाते थे और कभी कभी तो ऐसा भी किया कि अड़हूल (जिसे आप गुड़हल कहते हैं ) की कोढ़ि(कली) ही तोड़ लेते थे और वो सुबह में वो खिल जाते थे । फिर बहुत बाद में एक फूल आया था 'सिंगार हार' (हर शृंगार ) बहुत खिलता था मह-मह महकने वाला और खूब सारा खिलने वाला ! सिंगार हार के एक दो पेड़ हो जाएँ तो गाँव भर को फूल मिल जाए और फूल होते ही इतने छोटे हैं के कितना चढ़ाओगे बेटा -चढ़ाओ ! बाद में जब शहर में रहने आ गए और किराए के मकान में रहते थे तो वहाँ थोड़ी सी जगह थी जहां हम फूल लगाते थे । आगे जब पिताजी ने अपनी जमीन खरीद ली और उस शहर में अपना भी एक घर हो गया था फिर तो फूल लगाने की पूरी आज़ादी थी और हमने लगाया भी -अड़हूल, सिंगार हार , तीरा-मीरा और पछतीया खिलने वाला गेंदा । लेकिन इसके साथ ही शुरू हो गया अपने फूलों को जोगने का कार्य ताकि कोई और हमारे फूल चुरा न ले - आखिर कितनी ऊंची दीवार चिनवाएंगे आप लोग सब कूद सकते थे वो फूल चुराने का जुनून ही ऐसा होता है कि क्या कहें ! फिर हम अपने फूलों की रक्षा करते और उजाला होने पर बड़े अंदाज़ से तोड़ते थे । बहुत मज़ा था भई !

 तुमने कितनी डायनें देखि :

 दुर्गा पूजा आते ही डायन का डर और उसे देखने की बात चलने लगती थी । दुर्गा पूजा के दौरान माएं अपने बच्चों को शाम के बाद निकलने नही देती थी । पर माओं को भी पता होता था कि बच्चे तो इधर उधर निकल ही जाएंगे सो वे 'डिबिया' की फुनगी जो पूरी कालीख ही होती थी कान के पीछे लगा देती थी । मुझ महानुभाव को भी लगाया गया था भई ! बहरहाल , हमलोगों को बताया जाता था कि चौराहा पर डायनें निर्वस्त्र होकर नृत्य करती हैं । जो वहाँ चला जाता है उसकी जान भी ले लेतीं हैं वे । सुबह चौराहे पर उनके पूजने के सुबूत भी होते थे - सींदूर का निशान , फूल , अरवा चावल ,पूरियाँ । दिन भर हम उन पदार्थों से बच के निकलते थे । शुरू में तो हम मानते थे के वे सच में ऐसा करती थी पर जब हम भी किसी के घर के सामने ऐसा करने लगे थे । जब रात में किसी के दरवाजे के सामने ऐसा कर दिया तो दिन भर गालियाँ सुनने को मिलती थी और ये हम करने वाले ही जानते थे कि वो अनाम गालियां हमें ही दी जा रही हैं । पर हम तो उस समय बुद्ध हो जाते थे किसी की गाली स्वीकार नही की तो हमें नही लगी । इससे डायन जैसे मुद्दे के प्रति जो भय था वो जाता रहा । बाद में हमने कुछ स्त्रीयों को सचमुच ऐसा करते देखा था जिन्हें हम सब पहचानते भी थे लेकिन उनके जीवन इसका कोई नफा-नुकसान मुझे आज तक दिखाई नही दिया है । मुझे लगता है कि वो भी उसी विश्वास में डायन पूजती होंगी जिसमें ये कहा जाता है कि दुर्गापूजा की रातों को ये तमाम तरह के कार्य और पूजा पाठ करने से सिद्धि मिल जाती है । सच मानिए मैं बहुत दिनों तक उनकी सिद्धियों की प्रतीक्षा करता रहा पर आज तक उनको उसी गरीबी और जहालत में देखता हूँ जिसमें वो पहले थीं । हे सिद्धि देने वाली देवी या जो भी हो उन्हें सिद्धि दो ताकि वे अपने परिवार की माली हालत ठीक कर पाएँ , जिस महाजन से कर्जा लिया है उसके घर आग लगा सकें जिसमे उसका खाता जल जाए या वो ऐसा अगिनबान मारें कि उनकी बेटियों की इज्जत छूने वाला वहीं जल के स्वाहा हो जाए ....

शाकाहारी बलि :

 आज तक आपने जानवरों , मनुष्यों की बलि के बारे में सुना होगा क्या कभी सब्जियों की बलि सुनी है ! ये सही बात है साब । ये तो आप को पता ही होगा कि ये पूजा लगभग दस दिनों तक चलती है लगभग इसलिए कि कभी कभी तो आठ - नौ दिनों में ही इसे निबटा दिया जाता है । इसे दस दिनों का मानते हुए आगे बढ़ते हैं । इन दस दिनों में जो सातवाँ दिन होता है उस रात की गयी पूजा को निशा पूजा कहा जाता था । पता नही शायद कहीं लिखा हो के उस रात को जिसने भी अपने यहाँ दुर्गा की स्थापना की है उसे बलि देनी होती है । इस सूत्र से अमूमन हर घर में बलि पड़नी चाहिए । उस समय एक 'छागर' (बकरा ) की कीमत 4-5 सौ रूपय थी जो आज दो-ढाई हजार है फिर बलि कैसे दी जाए ? पर भैया सब का जुगाड़ है इस देश में । काले झींगा [1] (तोरई) को महिषासुर का प्रतीक मान कर उसकी बलि दी जाती थी । उसके लिए शाम से बड़े ज़ोर की तैयारी चलती थी । लोग मोटा-ताज़ा काला झींगा ढूंढ के लाते , कचिया (दराँती , अब तोरई को काटने के लिए कत्ता या तलवार तो चाहिए नही ) को पिजाया जाता था फिर धोकर उसे पवित्र मान लिया जाता था । फिर रात में जब निशा पूजा होती थी तो उससे झींगे को काटा जाता था । रात का पवित्र झींगा सुबह झाड़ू के साथ दो टुकड़ों में बंटा हुआ बाहर आता था फिर किसी राख़ की ढ़ेरी की शोभा बढ़ाता था । कभी कभी ये निशा पूजा , नशा पूजा भी हो जाती थी । इन सब के बाद आता था दशमी का दिन जब नहा धो के नीलकंठ को देखने के लिए लोग निकलते थे । हमें भी तैयार कर के भेज दिया जाता था । कहा जाता था कि नीलकंठ देखने से यात्रा बढ़िया होती है ... पर भैया मुझे बालक को तो कहीं जाना भी नही होता था ।उसी दिन शाम के समय मामाजी के साथ हम मेला जाते थे । बरसम के मेले की अब बस धुंधली यादें हैं - सीता मौसी गोदी में उठा कर ले जा रहीं है । आज सीता मौसी से मिले कितने ही साल हो गए ! कितनी ही यादें ताज़ा हो गयी इस दुर्गा पूजा के बहाने आज तो । इसके नितांत रोमांचक अनुभवों और मौज को आज भी जीने का मन करता है .... ।

[1] हमारे यहाँ तोरई को झींगा कहा जाता है । इसकी दो किस्में होती है एक काली जो आम तौर आप भी खाते हैं पर इन्हें हमारे यहाँ नही खाया जाता । दूसरी हल्के हरे रंग की किस्म होती है जिसकी बेल हर किसी के घर -आँगन में मिल जाती है ।

अक्तूबर 14, 2012

बहुत से दुखों को समेटने का दुख

कुछ चीजें घर की ऐसी होती हैं जिनका हमे इल्म तो होता है कि वो घर में हैं पर कहाँ और किस हाल में हैं ये देखने की न हिम्मत होती है और न ऐसी जहमत हम लेना चाहते है । साहित्य में तो ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिनका जिक्र आ जाने पर भले ही हो जाता है पर उस से मुह फेर कर बैठना हमारी आदत में शुमार है । क्योंकि कभी कभी वह अरजनीतिक होता है और कभी कभी उसमें वो मसाला नही रहता कि उस के माध्यम से अपने को दूसरों पर थोपा जा सके या उनसे स्वयं को बीस साबित किया जा सके । हिन्दी साहित्य में शैलेश मटियानी और उनका साहित्य ऐसी ही वस्तुओं में से एक है । उनके नाम पर कोई गोष्ठी नही होते देखी और न ही कहीं किसी को उन्हें उद्धृत करते हुए सुना । विवाद उठाने के लिए भी नही (जबकि आज की हिन्दी आलोचना की विवाद प्रियता किसी से छिपी नही है ) । वो 2004 का वर्ष था जिसमें भारत सरकार की साहित्य केन्द्रित पत्रिका आजकल ने शैलेश मटियानी पर केन्द्रित एक अंक निकाला था । उस अंक की और कुछ विशेषता हो न हो पर वह अंक मटियानी के जीवन और साहित्य से पाठकों का परिचय करने के लिए काफी था । वो जिस तरह से माता-पिता के गुजर जाने के बाद के अपने जीवन से जूझ रहे थे और अपने भाई-बहन की ज़िम्मेदारी छोडकर मुंबई भागे थे वो उनकी आर्थिक हैसियत को बयां करने के लिए काफी है । उन्होने जो जीवन बिताया उसका एक ठीक ठाक हिस्सा भीख मांगने में , कसाई की दुकान पर कीमा कूटने में और भीख मँगवाने वाले गिरोहों के आस पास गुजरा था । ज़ाहिर है इनका असर उनके साहित्य पर पड़ता ही । शैलेश मटियानी का साहित्य उनके भोगे हुए यथार्थ से बिलकुल अलग नही है । वो जिन ज़िंदगियों में रहे वहाँ की हर स्याह - सफ़ेद सच्चाई बड़ी बारीकी से उनके यहाँ चित्रित हुई है । भीख मांगने और उसे मँगवाने के तमाम खटकरम उनकी बहुत सी कहानियों में आते हैं । ' दो दुखों का एक सुख ' उनकी ऐसी ही एक कहानी है जिसमें तीन भीख मांगने वाले लोग हैं - एक कोढ़ पीड़ित अधेड़ ,एक कानी युवती और एक नेत्र विहीन युवक । तीनों रेल्वे स्टेशन के पास भीख मांगते हैं । जब कानी गाती है तो नेत्रहीन युवक का मन हरा हो जाता है और कोढ़ी को उसका रूप प्रभावित करता है । कोढ़ी और युवक दोनों कानी को पाना चाहते हैं । और दोनों इसके लिए अपने अपने तिकड़म भिड़ाते हैं । कोढ़ी , नेत्रहीन युवक पर स्त्रीयों को छेड़ने का आरोप लगाता है वहीं युवक नगरपालिका द्वारा कोढ़ियों को हटाने के अभियान से खुश होता है । बाद में नेत्रहीन युवक और कानी में दोस्ती हो जाती पर उनके लिए रहने का कोई ठिकाना नही है और ठिकाना होता है कोढ़ी के पास । इनकी आवश्यकताएँ और उसका फाइदा ! इस बीच कानी गर्भवती हो जाती है और कहीं भीख मांगते हुए कोई नौटंकी कंपनी वाले उसे उठा ले जाते हैं । 10-15 दिनों बाद वे उसे छोड़ भी जाते हैं । ये दिन कोढ़ी और युवक के लिए किस कष्ट में गुजरे ये कहने की बात नही । बाद में कानी एक बच्चे को जन्म देती है । जन्म के दिन दोनों ये सोचते हैं कि बच्चा उनके जैसा कोढ़ी या नेत्रविहीन न हो । भीख मँगवाने का धंधा करने वालों का जिक्र उनकी कई कहानियों में आया है । एक कहानी में मटियानी जी जिक्र करते हैं कि किस प्रकार बच्चे चुराये जाते हैं , भीखमंगों के बच्चे ये धंधेबाज दो एक दिन की उम्र में ही छिन लेते हैं फिर उनके पैरों को बांध कर , दबा कर ऐसा कर दिया जाता है उनमें स्वाभाविक रू से विकृति आ जाती है ... उन्हे किसी और की गोद में डाल कर ज्यादा पैसा कमवाया जाता है । इन कहानियों को पढ़ के ऐसा लगता है के हम हाल में आई फिल्म स्लमडॉग ..... फिल्म का कोई दृश्य देख रहे हों पर ताज्जुब देखिये कि हमें उस फिल्म को देखते हुए कभी ये नही लगा होगा के ये तो मटियानी के साहित्य में भी है । इसके लिए पाठकों पर ज़िम्मेदारी नही डाली जा सकती क्योंकि यह तो आलोचकों के जिम्मे है । जिसने इस पूरे दौर में नवलेखन , नया - पुराना आदि के विवाद को हवा दी बस कुछ सार्थक नही ढूंढा या फिर जो है उसे पाठकों के संज्ञान तक लाने का प्रयत्न नही किया । पाठक दो-चार नयों और कुछ 'स्टार ' लेखकों को तो पढ़ पाये हैं क्योंकि उनके संबंध में खूब लिखा पढ़ा गया है । लेकिन शैलेश मटियानी जैसे लेखक आज भी अपने पाठकों से बहुत दूर हैं । आज अङ्ग्रेज़ी से नकल की गयी कहानी पर बहुत बड़ा विमर्श चल सकता है पर मटियानी जैसे साहित्यकर पर नही । आगे उनकी एक कहानी 'मैमुद' याद आती है । जद्दन जिसने अपने बकरे को बड़े प्यार से पाला है उसका नाम भी रखा है- मैमुद । बक़रईद पर परिवार वाले उसे काट देते हैं । बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाए इस मुहावरे के आस पास बुनी गयी एक मार्मिक कहानी है यह । शैलेश मटियानी जैसे लेखक यदि याद नही किए जाएंगे और उनका जिक्र साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा में नही होगा तो साहित्य के जिम्मे से बहुत सारी चीजें , हजारों संदर्भ आदि छुट जाएंगे । साहित्य केवल नए और आज के संदर्भों तक सीमित नही है बल्कि पीछे रह गए लोगों की हिस्सेदारी भी है । आगे देखते हैं क्या सब हो पता है ।

अक्तूबर 02, 2012

बिहार के अनुबंधित शिक्षकों के समर्थन में ...

किसी भी समाज में शिक्षकों का आंदोलन करना और उनका जेल जाना समाज की गतिकी को प्रभावित ही नही करता है बल्कि उस पर दूरगामी प्रभाव डालता है । वे अपना आंदोलन उस समय में से समय निकाल कर करते हैं जिसमें उन्हें कक्षा में होना चाहिए । कक्षा का समय समाज के सबसे मत्वपूर्ण हिस्से बच्चों के लिए मुकर्रर है जो उन्हें न केवल शिक्षित करता है बल्कि आगे के जीवन की तैयारी में भी भूमिका निभाता है । हालांकि इन कुछ वाक्यों में आदर्श की उपस्थिती है पर जरा उस स्थिति की कल्पना करते हैं जहां एक गैर बराबरी का समाज है और सामाजिक गतिशीलता में अपनी दशा को ठीक करने के लिए सरकार के द्वारा दी जा रही शिक्षा ही एक मात्र ऐसा कारक है जो व्यक्ति की मदद कर सकता है उस समाज में यदि शिक्षक ही कक्षा से अनुपस्थित होकर आंदोलन कर रहे हों तो वहाँ यह विचार का मुद्दा बन जाता है । बिहार का समाज ऐसा ही समाज है और वहाँ चल रहा अनुबंधित शिक्षकों का उग्र होता आंदोलन इसी बात की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है । इस पर गौर करें तो हम पते हैं कि इन शिक्षकों के आंदोलन की भूमिका इनकी नियुक्ति में ही निहित है । एक तो अनुबंध अर्थात ठेका आधारित नौकरी है जहां नौकरी में आवश्यक स्थायित्व का अभाव है जो किसी के भी आत्मविश्वास को लगातार प्रभावित करने के काफी है । यह साधारण मनोविज्ञान है कि यदि आप अस्थायी प्रकार की सेवा में हैं तो सेवा के प्रति आपकी असुरक्षा लगातार बनी रहती है और अंततः यह आपकी कार्यक्षमता को प्रभावित करता है । शिक्षक के मामले में यह केवल उसी तक सीमित नही होता बल्कि आगे बढ़ कर विद्यार्थियों पर भी असर डालता है । इसका लब्बोलुआब यह कि सेवा में इस प्रकार की असुरक्षा से समाज की एक पीढ़ी प्रभावित होती है । अनुबंधित शिक्षकों पर हुए बहुत से शोध में इस बात को रेखांकित भी किया गया है । 'प्रोब रिपोर्ट' का भी मानना है कि अस्थायी प्रकार की सेवा के कारण अनुबंधित शिक्षक अपने काम के प्रति बहुत अन्यमन्स्क हो जाते हैं और इस व्यवस्था में पूरी निष्ठा से काम करने वाले शिक्षक विरले ही मिलते हैं । आगे वेतन का मुद्दा है जो इस असुरक्षित प्रकार की नौकरी में 'कोढ़ में खाज' जैसी दशा का निर्माण करता है । अनुबंधित शिक्षकों को 6000-8000 तक प्रति महीने वेतन मिलता है जो वेतनमान पर नियुक्त शिक्षकों की तुलना में चार गुना कम है । इतने कम पैसे में गुजारा चलाने के लिए बहुत बड़े कौशल की आवश्यकता है । इस संबंध में इस लेखक ने एक शोध किया था और उस दौरान बिहार के सहरसा जिले के कई शिक्षक - शिक्षिकाओं का साक्षात्कार किया था । उसी साक्षात्कार के कुछ अंशों को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । 1 शिक्षिका कल्याणी कहती हैं '' इतने वेतन में कैसे संतुष्ट होंगे ? मंहगाई के चलते कैसे संतुष्ट होंगे .....एतना मंहगाई में हमलोग को ई साते हज़ार (7000) वेतन मिलता है .... अभी सात हज़ार हुआ है पहले तो पाँचे था । ... तो सात में सोच लीजिये कि एतना मंहगाई में हमलोग कैसे संतुष्ट होंगे । किसी तरह काम चलता है ।'' इस सेवा में विकास की संभावना पर कल्याणी कहती हैं ''इसमें क्या विकास होगा ! इसी में समय कट जाए यही बहुत है । '' 2 शीला कुमारी कहती हैं '' वेतन कुछ संतुष्टि नही है ... जरूरी आवश्यकता की भी पूर्ति नही कर पति हूँ... इसको हमलोग ठेका पर काम करना समझते हैं ...जिसमें सरकार हमको सात हज़ार में खरीद ली है ....'' '' इसमें कोई विकास नही है '' 3 महबूबा खातून कहती हैं '' एक तो वेतन बहुत कम है दूसरे हमारा वेतन का आधे से ज्यादा तो आने जाने में ही खर्च हो जाता है । सहरसा से यहाँ तक आने में रोज़ का 50-60 रुपया लगा जाता है । अब सोच लीजिये कि हमारे लिए क्या बचता कि खाएं और मौज करें ... '' 4 निरंजन जो सहरसा जिला शिक्षक संघ के अध्यक्ष भी हैं वे कहते हैं '' इतने कम वेतन के कारण कोई इस संघ में पद धरण करने के तैयार ही नही होता है क्योंकि यदि पद लिया तो दस लोग आपसे मिलने आएंगे चाय -पान , फोन , पटना जाने आने आदि में सात - आठ हज़ार कब उड़ जाते हैं पता ही नही चलता ... मैं तो अध्यक्ष बन कर पछता रहा हूँ ...'' इस से एक अंदाज़ा आ जाता है कि शिक्षक-शोक्षिकाओं में इस सेवा में मिल रहे वेतन को लेकर कितनी संतुष्टि है और इसमें विकास की वो कितनी संभावना देखते हैं । आगे इसी वेतन से जुड़ा एका और पहलू है विद्यालय में शिक्षकों बीच गैर-बराबरी का । नियमित वेतनमान पर काम करने वाले शिक्षक और अनुबंधित प्रकार के शिक्षक में विद्यालय परिसर से लेकर निजी जीवन दोनों में एक स्पष्ट विभाजन है । निम्न आर्थिक हैसियत के कारण उन्हे कई बार ताने सुनने पड़ते हैं और बार बार उन्हे यह जताया जाता है कि वे नियोजित शिक्षक हैं और दूसरे नियमित वेतनमन वाले । ( इस तरह की अनेक स्थिति इस लेखक ने स्वयं अपने शोध के दौरान देखी और इस सामान्य मानव व्यवहार का अनुमान करना कोई कठिन भी नही है । )इस तरह की स्थिति नियोजित शिक्षकों में हीनता को बढाती है । अनुबंधित शिक्षक -शिक्षिकाओं की नियुक्ति शहर तथा गावों के स्थानीय निकायों के द्वारा हुई है जो उन्हें इन निकायो के प्रति जिम्मेदार बनाती है । इसका असर यह होता है कि साधारण सा जन प्रतिनिधि भी इनकी जांच कर सकता है और इसके साथ साथ आम आदमी भी । हालांकि यह एक अच्छा प्रयास है लेकिन इसका खामियाजा अंततः शिक्षकों कोण ही उठाना पड़ता है । उनकी जांच करने वालों की संख्या बहुत हो जाती है और यह उनके कार्यों में अनावश्यक दखल को बहुत ज्यादा बढ़ा देती है जो पुनः उनकी कार्यक्षमता को ही प्रभावित करती है । आगे उनका वेतन मुखिया या इस तरह के अन्य जन प्रतिनिधियों की अनुशंसा के अधीन है जो उन्हे मुखिया के इर्द - गिर्द घूमने के लिए बाध्य कर देता है । बहुत बार उन्हे उन जन प्रतिनिधियों के व्यक्तिगत कार्य भी करने पड़ते हैं मसलन घर के काम आदि । यदि वह प्रतिनिधि जीवन बीमा का अभिकर्ता है तो शिक्षक को उसकी पॉलिसी भी लेनी पड़ती है अन्यथा बिहार सरकार की इस व्यवस्था में अनुबंधित शिक्षक के वेतन को लटका दिया जाएगा । इन सब को ध्यान में रखकर अब बिहार में उग्र होते जा रहे अनुबंधित शिक्षक-शिक्षिकाओं के आंदोलन को देखें । हाल में वेतन को लेकर लंबा इंतजार चल रहा है , उनका पदस्थपन एसी जगहों पर है जो उनकी रिहाइश से काफी दूर है , ट्रांसफर करने के लिए बिचौलियों की एक पूरी फौज है जो पैसे मांगती है और अंत में नियमित वेतनमान में जाने की उत्कट इच्छा । ये सब मिल कर अभी के उनके आंदोलन की एक आधारभूमि तैयार करते हैं । उस पर मुख्यमंत्री की अधिकार यात्रा जो उनके लिए एक वरदान का ही काम कर रही है क्योंकि वो जिले जिले में घूम रहे मुख्यमंत्री से सीधे तौर पर विरोध जाता सकते हैं जो कि उनके राजधानी में रहने पर इस तरह संभव नही था । और अब यह संक्रामक तरीके से विस्तार भी ले रहा है । मुख्यमंत्री इसमे विपक्षी की साजिश देख रहे हैं और अपनी हत्या के षड्यंत्र से भी इसे जोड़ रहे हैं जो बड़ा ही बचकाना और हास्यास्पद प्रकार का स्पष्टीकरण प्रतीत हो रहा है । यहाँ हम शिक्षा के स्तर को तो रहने ही दें उसके स्थान पर मुख्यमंत्री केवल शिक्षकों के असंतोष के कारणों को देखें तो उनहे लग जाएगा कि यह उन अनुबंधित शिक्षकों की सहज अभिव्यक्ति है जो अपेक्षित ध्यान न दिए जाने से अराजक स्थिति को भी प्रपट कर सकती है । क्योकि इस समूह में युवाओं की संख्या ज्यादा है जो इस आंदोलन को ठीकठाक गति दे रहे हैं । ऊपर से यदि विपक्ष इसे मदद देता है तो यह नितीश कुमार के लिए खतरे की घंटी है । इस आंदोलन में भाग लेने वाले शिक्षक बधाई के पात्र हैं जो इसे प्रकाश में ले आए । बस इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि यह किसी भी दल या गठबंधन के हाथ में न खेलने लगे क्योंकि इससे इसका राजनीतिक इस्तेमाल हो जाएगा और उनके अपने मुद्दे धरे रह जाएंगे ।

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...