नवंबर 04, 2012

तुगलक की तुगलकी !

फिरोजशाह कोटला किले में नाटक तुगलक के इस प्रदर्शन को भानू भारती का कहें या गिरीश कर्नाड का ! भानू ने चूँकि इसे निर्देशित किया इसलिए तत्काल तो हम इसे उन्हीं से संबद्ध कर के देखते हैं । लेकिन यह नाटक किसी भी निर्देशक से ज्यादा कर्नाड का नाटक है । कारण है उनका तर्कपूर्ण कल्पनाशीलता से भरा लेखन ! मुहम्मद बिन तुगलक के संबंध में इतिहास सबके लिए उतना ही उपलब्ध है जितना गिरीश के लिए परंतु उन्होंने इसके बीच से जिस प्रकार कथा-सूत्र निकाले हैं वह इतिहास में नहीं है । इतिहास के कथानक को उससे बाहर जाकर भी ऐतिहासिक रूप से निर्मित कर जाना लेखक की सफलता की पहचान है ।
मुहम्मद बिन तुगलक के संबंध में जितनी कहानियाँ और अफवाहें प्रचलित है उनमें कोई तारतम्य नहीं है वे सब कुछ घटनाएँ हैं जो अलग- थलग बिखरी पड़ी हैं लेखक ने उनके बीच अपनी कल्पना से जो दृश्य निर्मित किए हैं वे कतई उस काल और घटनाओं से बाहर के नहीं लगते हैं । ऐसे कथानक पर काम करना किसी भी निर्देशक और कलाकार के लिए कठिन नहीं रह जाता !

 कोटला किले में इस नाटक का प्रदर्शन निर्देशक को इस बात की अतिरिक्त सुविधा देता है कि वह आसपास के वातावरण का अधिकतम उपयोग कर सके । लेकिन यह सुविधा दर्शकों के लिए कष्टकारी हो जाती है । उनके लिए बार बार अपना फोकस नए तरीके से बदलना एवं उनकी महत्वपूर्ण दृश्यों से बहुत ज्यादा दूरी नाटक का रस ग्रहण करने में व्यवधान की स्थिति निर्मित कर रहे थे । और कभी कभी तो दर्शक केवल संवाद पर निर्भर थे ।

 इस नाटक को कर्नाड ने मूल रूप से कन्नड में लिखा था जिसका हिंदुस्तानी में अनुवाद वी.वी.कारंत ने किया । कारंत के काम की जितनी भी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है क्योंकि संवादों से कभी लगा ही नहीं कि यह अनूदित नाटक है मूल नहीं ! जबकि इधर कुछ नाटक तो बहुत वाहियात रूप से देश की सबसे बड़ी नाट्य संस्था एनएसडी के देखे जिसके हिंदुस्तानी में अनूदित संवाद कभी दर्शकों को जोड़ ही नहीं पाए ! जब ऐसी स्थिति बनती है तो दृश्य पर दबाव बढ़ जाता है क्योंकि दर्शकों जो ग्रहण करना है वह संवाद की तरफ से तो कम ही हो जाता है । पर एक अच्छे अनुवाद ने ऐसी किसी भी स्थिति को उपस्थित ही नहीं होने दिया !
 दृश्य कलाओं में खासकर नाटकों में कलाकारों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है । अंततः उन्हीं के माध्यम से ही तो लेखक और निर्देशक दर्शकों से संवाद स्थापित करते हैं । 'तुगलक' के इस प्रदर्शन में कलाकारों ने जो अभिनय प्रस्तुत किया वह सहज रूप बेहतरीन नहीं कहा जा सकता । हालाँकि जिस तरह से रंगमंच और , सिने जगत के बहुत से लोग ले लिए गए थे उससे उच्च कोटि के अभिनय की उम्मीद थी । मुख्य भूमिका में आए यशपाल शर्मा और तीन-चार अन्य कलाकारों को छोड़ दिया जाए तो बहुत से कलाकार अपने बेहतर रूप में नहीं नजर आ रहे थे । अभिनय में लंबा अनुभव रखने के बाद भी उस दिन की प्रस्तुति में अपने अभिनय को पुराने स्तर तक नहीं ले जा पाने की कसक उन कलाकारों को भी होगी ! हिमानी शिवपुरी अपने फिल्मी स्वरूप से बाहर नहीं आ पाई फिल्म तौर तरीकों की आदत लगातार मंच पर बनी रही । वहीं यशपाल शर्मा ने अपने फिल्मी व्यक्तित्व को हत्या के एक-दो दृश्यों को छोड़कर कभी हावी होने नहीं दिया । वे तुगलक के रूप में बहुत जंच रहे थे और जिस सहजता से उन्होंने उस चरित्र को जिया वह प्रशंसनीय है ! आगे जब भी इस नाटक का प्रदर्शन होगा यशपाल शर्मा का नाम जरूर लिया जाएगा । उन्होंने निश्चय ही मुख्य भूमिका को मुख्य रूप से निभाया । इस नाटक में सहायक कलाकारों की एक टोली ही काम कर रही थी । वे जब भी मंच पर आते तभी लगता कि ये कलाकार किसी ऐतिहासिक नाटक नहीं बल्कि आधुनिक नाटक को अंजाम देने आए हों ।

 समकालीन संदर्भ में इस नाटक का प्रदर्शन राष्ट्र राज्य की बहुत सी विफलताओं से संबंध जोडता दिखाई देता है । जबतक हम मुहम्मद बिन तुगलक को सकारात्मक भाव से देखते हैं तबतक वह हमें हमारे समय से बाहर दिखाई देता है । जैसे ही उसे भाव निरपेक्ष कर देते हैं उसी क्षण वह हमारी राज्य-व्यवस्था की अजीबोगरीब नीतियों का प्रतीक नजर आने लगता है । मुहम्मद बिन तुगलक के लिए लाख तर्क विकसित कर उसकी स्थिति को जस्टिफाई करने की कोशिश करें लेकिन इतना स्वीकार करना ही होगा कि उसकी नीतियाँ उसके ही मन की उपज थी और उसके पीछे कोई सुचिंतित ठोस आधार नहीं था ! सारे मामले झोंक में लिए गए निर्णयों से लगते हैं । और ठीक यहीं पर यह नाटक समकालीन हो उठता है । वह नाटक का नायक तो लगता है पर जनता का नायक नहीं हो पाता ! यहाँ सरकारी नीतियों से मिलान की स्वतंत्रता लेते हुए यह कहना अनुचित नहीं जान पड़ता कि नीतियों को लागू करने से पहले देश के सभी पक्षों के गहन अध्ययन की आवश्यकता है अन्यथा राज्य की संपत्ति को हथियाने वाले हर शासन काल में रहे हैं फिर योजनाएँ धरी की धरी रह जाती हैं !

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