दिसंबर 15, 2012

नाटक देखते देखते ...

ये हाल ही में अलग अलग समय पर देखे गए नाटकों कुछ कुछ लिखा गया है । इसमें कोई परस्पर संबद्धता हो ऐसा न मैं दावा करता हूँ और न ही ऐसा है । ये शायद नाटकों को मैं जितना समझ पाता हूँ उतना ही बताता है ।


1... शायर शटर डाउन ..........  त्रिपुरारी शर्मा द्वारा निर्देशित नाटक । आरंभ में लगा कि क्या देख रहा हूँ, क्या कहा जा रहा है .... और एक बार को ये भी लगा के टीकम जोशी बांध नही पा रहे हैं दर्शकों को । फिर चीजें जुड़ती गयी एक से एक ... ये दरअसल अकेलेपन, लोगों के बीच बढ़ती दूरियाँ , बढ़ते अपरिचय का नाटक था । इसीलिए एक पात्रीय भी था । और ज़ाहिर है इस अकेले पन को दिखाने के लिए शहर ही केंद्र में होता और था भी । शहर क्या इतनी ही अकेली जगह होती है ? माना कि शहर में अपरिचय है और दूरियाँ हैं पर क्या ये दूरियाँ इस वजह से नहीं हैं के हम अपनी चीजें जहां से छोड़ के आए उस जगह को भूल नही पाये ? इसी शहर में यदि कोई मुझे नही पहचानता है तो मैं ही कितनों को जानता हूँ ? मैंने ही कितनों की ओर हाथ बढ़ाए हैं ? शहर में जो लोग वर्षों से रह रहें हैं वो तो कभी इस तरह की शिकायत नही करते क्योंकि उनका जो है यहीं है । इसलिए अकेलेपन के लिए शहर को जिम्मेदार बनाना उचित नही प्रतीत होता । और जो व्यक्ति का अकेला पन है उसे तो कहीं भी महसूस किया जा सकता है चाहे वह कितना ही प्यारा गाँव क्यों न हो ।   आजकल के बड़े निर्देशकों में एक चलन देखता हूँ -वे एक पात्रीय नाटक कर रहे हैं और कलाकार ला रहे हैं नामचीन ... आज थे टीकम जोशी । टीकम टीवी के प्रसिद्ध नाम हैं । प्रसिद्ध कलाकार अपने नाम पर बहुत भीड़ खींचते हैं वरना भूमिका के साथ तो निर्वाह कोई भी माँझा हुआ कलाकार कर देगा ।
नाटक देखते देखते कई बातें याद आ रही थी.... ;आलेख कमलेश्वर की कहानी 'खोयी हुई दिशाएँ ' से मेल खाता हुआ सा , टीकम के अभिनय में मिस्टर बीन की छाप , और अकेलेपन का मजा लेने वाले हिस्सों में अंग्रेज़ लेखक 'जी के चेस्टर्टन' के लेखों का मज़ा । पर इन सब को मंच पर निभा जाना अपने आप में प्रशंसनीय है । टीकम जोशी ने मंच पर जो प्रतिभा दिखाई वो उनके उन सब हिस्सों से अलग थी जो अबतक टीवी पर देखी या फिर हालिया प्रदर्शित तुगलक से बिलकुल अलग ....
वैसे एक बात जो कहनी जरूरी है वो यह कि ये नाटक बीते हुए समय का लग रहा है... भले ही इसमें हमारे समय से संवाद करने के लिए कुछ दृश्यों को डाला गया है पर इस नाटक का अकेलापन और अपरिचय काफी पुराना लगता है । लगता है हम बिलकुल पूर्व उदरवादी चरण के शहरीकरण में चले गए हैं जहां नए प्रकार की बसावट है , लोग एक स्थान छोड़ के दूसरी जगह आए हैं और यह नयी नयी व्यवस्था अभी पचि नही है । तब से एक या दो नयी पीढ़ी जरूर आ गयी हैं फिर भी अकेलेपन को समझने के हमारे औज़ार वही पुराने ही हैं ।  अब  ये अकेलापन कई गुना बढ़ गया है और अकेलेपन की कोई एक ही वजह नही रही  , अब तो यह  बीमारियों की कोटी में  आ गईं है ... अब तो हम पार्क में बैठकर आखबार पढ़ने से भी बढ़ चुके हैं .... वह अकेलापन दूसरा था और आज का दूसरा है । पहले काम के साथ तालमेल न बैठा पाना था अब अब काम से फुर्सत नहीं है अकेलेपन तक पर विचार करने को ।
इसके बावजूद नाटक में गज़ब की कसावट थी एक मजबूत आलेख और दमदार अभिनय जो नाटक के लिए जरूरी होता है  ...

2 अंत में पुरानी रंगभाषा ही काम आई ! लगभग एक सप्ताह में अनुराधा कपूर की दूसरी प्रस्तुति थी ।  उनके निर्देशकपने से ऊब जाने से बचाने के लिए अभिनय किया सीमा विश्वास ने !
सीमा के अभिनय शैली के विस्तार ने पहले कुछ ही मिनटों में जो बाँधा कि भई मैं तो निकल नहीं पाया !
गिरीश कर्नाड के टैगोर के नाट्यलेखन पर लिखने के बाद उनकी कथा 'जीवितो मृतो' पर जैसे सोच लिया गया था कि उनके नाट्य लेखन को महान साबित करना है । इस लिहाज से टैगोर चुने गए शायद ! नाट्य रूपांतरण गीतांजली श्री का था । टैगोर की एक संपूर्ण समझ से किया गया रूपांतरण लगा । और सीमा ने अपने हिसाब से जो इम्प्रोवाइज उससे नाटक किसी काल विशेष का नहीं बल्कि काल से ऊपर उठकर वर्तमान के लिए भी बन कर आ गया । फिर लगा कि  कोई मरता है तो क्या सब छुट जाता है ।
हालाँकि कितना भी उम्दा कलाकार हो सुना है निर्देशक को फिर भी बहुत मेहनत करनी पड़ती है तो इस सुनी हुई बात पर अनुराधा ने बहुत मजबूत काम किया जिसमें वाकई कोई नई रंगभाषा घने की जिद न थी ।यहाँ नयी रंग भाषा का जिक्र इसलिए कि हाल ही में अनुराधा कपूर ने रानवि के छात्रों के साथ एक चलता फिरता नाटक तैयार किया जो लगभग आम जन जीवन की तरह जीवंत लगे ऐसी  सोच के साथ बना हो पर वह वैसा नही था । उसे नयी रंग भाषा कह कर प्रचारित भी किया गया था ।  'सीमा विश्वास' ने साबित किया कि नाटक केवल कथ्य और मंच सज्जा और निर्देशकों के तौर तरीके ही नही हैं  बल्कि उससे अलग वह एक कलाकार केन्द्रित विधा भी है जिसमें अंततः कलाकार को ही दर्शक से संवाद बिठाना है ।  सीमा का रेंज गजब है बॉस । जब जो चाहा दर्शक को महसूस कराया ! कभी कभी वहाँ भी और बाद में भी लगा कि उनको कोई निर्देशक क्या निर्देशित करेगा ! भाव समझा दो और कर लो एक सशक्त नाटक तैयार ।
टैगोर की कथा नहीं पढ़ी पर अब लगता है वह सामने ही तो घटी थी

3.हालाँकि ये एक खुश होने वाली बात है कि हिंदी का एक कवि रंगमंच के क्षेत्र में हस्तक्षेप की कोशिश कर रहा है लेकिन इसे हस्तक्षेप कहना उचित नहीं होगा !
अभी अभी निकला हूँ व्योमेश शुक्ल के रूपवाणी समूह की 'कामायनी' पर प्रस्तुति देख कर । कविता एक अलग विधा है और निर्देशन दूसरी विधा और ऐसा कहना कोई बहुत बड़ा रहस्योद्घाटन नहीं है । व्योमेश अच्छे कवि हो सकते हैं परन्तु उनकी आज की नाट्य प्रस्तुति संतुष्ट करने वाली नहीं थी ! एक तरह से मैं इसे नाटक के दायरे में उनका प्रवेश ही मानता हूँ इस लिहाज से बहुत कसी हुई प्रस्तुति की अपेक्षा नहीं थी लेकिन ये कॉलेज स्तर के वर्कशॉप के उपरांत का अभियान लगा !
कामायनी का पाठ एक गंभीर पाठ है और उसकी मासूम और चंचल प्रस्तुति पाठ की गहनता से कभी तालमेल नहीं बिठा पायी । कविता का मंचन कठिन नृत्य अभ्यास और विस्तृत निर्देशकीय क्षमता की माँग करता है ताकि कथ्य को सम्यक रूप से पहुँचाया जा सके ! यदि ऐसा न हो रहा हो तो विभिन्न नाट्य सामग्री का सहारा लिया जा सके ! पर ये न देख पाया !
लड़कियों ने यथासंभव बेहतर देने की कोशिश की पर स्वयं व्योमेश ही कमजोर कड़ी साबित हो रहे थे । कुछ और नहीं तो पंक्तियाँ किसी अच्छे रिकॉर्डिंग स्टूडियो में रिकॉर्ड करा लेते ! आखिर पैसे की कौन सी कमी है ।
इन अकादमियों के लिए कार्यक्रम करने वाले समूह की चयन प्रक्रिया क्या है इसे सार्वजनिक करने की आवश्यकता है ।

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