दिसंबर 19, 2012

समाधान मोमबत्ती जलाना भर नहीं है .....

पूरा भरोसा है कि जिस  समय में हम जी रहे हैं वह बहुत जल्द भुला दिया जाएगा । जिस शिद्दत और घनत्व से हम आज ये सब महसूस कर रहे हैं वह काफ़ूर होना है और इस घटना को बहुत तेज़ी से बदलते वक़्त के हाथों में दे देना है । फिर ऐसी ही घटना बिलकुल नयी लगेगी , लगेगा ऐसा तो कभी हुआ ही नही था , ये तो पहली बार हो रहा है । एक शर्म , कुछ न कर पाने की निरीहता और प्रतिक्रिया देने की सहज प्रवृत्ति और भावनात्मक कौतुक से मिली जुली गरम हवा बह रही है । इस सर्दी में भी इस समूहिक शर्म के समय शरीर का पसीने से तर हो जाना स्वाभाविक है । इसके साथ ही तकनीक एवं सामाजिक संचार भी उसके लिए या किसी भी अन्य घटना के पक्ष में कुछ करने का विकल्प दे रहा है और इसी का गवाह बन रहा है मोमबत्ती से रौशन इंडिया गेट । पर यह सब किसलिए ? कब तक ?


बलात्कार आज एक आम फहम शब्द और एक सुबोध सी संकल्पना लगती है क्योंकि यह सूरज उगने जैसी घटना बन गयी है । आज इस शब्द को बच्चों के सामने भी बोला जा सकता है वो भी इसका अर्थ जानते हैं और हम ये कहते हैं कि बच्चे अब मासूम नही रहे । अर्थात यह शब्द आए दिन आए दिन होने वाली घटना से  प्रचलन में आने कर एक अलग सामाजिक स्वरूप को समझा रहा है । भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से यह कोई बहुत बड़ी बात हो ऐसा नही है लेकिन समाज के लिए इस शब्द का बहू-प्रयोग एक खतरे की घंटी है । यह भारतीय समाज की कोई बहुत उम्दा तस्वीर पेश करता हो ऐसा नही है ।

ये एक नयी घटना नही है और न ही बहुत दिनों बाद घटी है । लेकिन इस पर यह आक्रोश नया है । यह क्यों है इसकी व्याख्या के लिए यह समय नहीं है । बहुत सी घटनाएँ हमारे यहाँ होती रहीं हैं इस से भी वीभत्स पर जो खबर नही बन पायी वह रह गयी दाब कर । और जो खबर बनी भी जिस पर बहुत हाय तौबा मची भी वो भी किसी अंजाम पर पहुँचने से पहले ही दफन हो गयी । ऐसे सैकड़ों मामले हैं जिनकी सुधि लेने वाला कोई नहीं है । किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की हालांकि यह एक जल्दबाज़ी है पर ऐसा कहा जा सकता है कि हम बहुत जल्दी भूलने वाले डरपोक लोग हैं जो अपनी दो रोटियाँ बचाने की जुगत में किसी मुद्दे पर टिके रहने से डरते हैं फिर जितना डरते हैं उतना डराया जाता है । डराने की प्रक्रिया और इसके तौर तरीके स्थान, काल ,वातावरण और व्यक्ति  के अनुसार होते हैं । हमारा समाज डरने वाले  और डराने वाले के दो स्पष्ट विभाजनों में लिपटा है और निश्चित तौर पर यह विभाजन आर्थिक-राजनीतिक-आपराधिक शक्ति और इसकी हीनता से जुड़ता है । आज जो प्रदर्शन कर रहे हैं वे कौन लोग हैं -घर से खाये हुए ही न ! पर ये बस खाये हुए हैं इनकी इससे कोई बड़ी शक्ति हो ऐसा नही है । शक्तिशाली को पता है कि ये बहुत से बहुत एक जगह जमा होकर प्रदर्शन कर सकते हैं, और वह भी कुछ ही समय के लिए । बस नज़र रखने और चुप्पी साधने से काम चल जाता है सरकारी तंत्र का । दुर्भाग्य से इनमें से कोई तंत्र में जा नही पाता और जो जाता है वो काजल की कोठरी से ही आता है !
बलात्कार एक सामाजिक बुराई है तो इससे निपटने के लिए समाज में ही जाना होगा । ज़ाहिर है यह न सरकार कर सकती है , न पुलिस और न ही न्याय व्यवस्था । इस घटना पर जितनी तीव्र और तीखी प्रतिक्रिया हो रही है उसका एक चौथाई भी यदि इस विषय पर सूचिन्तित ढंग से काम करे तो बात बन सकती है ।

आज जो भी बातें हो रही हैं उससे लगता है कि सुराज आ गया है लोग सचेत हो गए हैं , पुरुष आज से बल्कि अभी से स्त्रियॉं को बराबरी की दृष्टि से देखेंगे  जिसने भी इसको तोड़ने की कोशिश की उसे राष्ट्र -राज्य से कड़ी से कड़ी सजा मिलनी तय है , सोशल मीडिया पर जो कवितायें लिखी जा रही हैं उससे पीड़ितों में उत्साह का संचार होगा और वे हिम्मत से उठ खड़ी होंगी । पर क्या ये इतना सरल है ? सबसे पहले तो उसके घर से निकलने को ही लीजिये । माँ - बाप क्या ताना देने का एक भी मौका छोड़ेंगे जब वो कहीं भी अकेले चली जाएगी ? जहां जाएगी वहाँ कितने संवेदनशील लोग हैं जो उसकी परिस्थिति को समझेंगे ? उसे कौन नौकरी देगा ? किससे उसकी शादी होगी ?

ये सब बताता है कि यह समय इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाने का या प्रदर्शन कर आक्रोश और ऊर्जा को खत्म करने का नही है बल्कि किसी और बात पर विचार करने से पहले समाज में स्त्री - पुरुष की बराबरी लाने या कम से कम उसे एक जीव समझने के लिए जरूरी काम करने का है । यह घटना केंद्र में हो पर यह केवल आम आंदोलन या प्रदर्शन का आधार बन कर न रह जाए ।
यह सब इतना सरल नहीं है क्योंकि लंबे समय से पुरुष वाद में समजीकृत मन भले ही वह स्त्री का ही क्यों न हो बाहर आने से डरता है । ऐसे में बहुत ज्यादा काम करने की जरूरत है ।  बलात्कार की घटना से पहले की जो बहुत सी घटनायें होती हैं उन्हें नज़रअंदाज़ करने से बचना होगा । हमारे यहाँ कहावत है ' लत्ती चोर , पत्ती चोर तब सीनियर चोर ' । आए दिन मेट्रो, बस, महाविद्यालय ,विद्यालय , सड़क , मैदान आदि जगहों में हम कितनी जगह स्त्रीयो को देते  हैं ? बाहर जाने दीजिये घर की संरचना में ही क्या हम ऐसा कर पाते हैं ? ऐसा करने वालों में लगभग हम सभी आते हैं और इन्हीं 'हम ' मैं बहुत सारे इन प्रदर्शनों में भी हैं , टिप्पणीकारों में भी हैं  । हमने स्त्री की अस्मिता को जिस तरह से समझा और आत्मसात किया है वही त्रुटिपूर्ण है । वह बताता है कि जो है पुरुष है, स्त्री कुछ  है ही नहीं । यही गैर बराबरी उन पर अधिकार करने के लिए प्रेरित करती है बल्कि हिम्मत देती है ।
एक आंदोलन में चले जाने भर से काम बनने वाला होता तो अब तक बहुत से हो चुके और बहुत से और होते रहेंगे । जरूरी अपने आस पास स्त्रियॉं को स्पेस देना है ,उनके अस्तित्व को स्वीकार करना  है । वरना इंडिया गेट या मुनीरका में प्रदर्शन कर के लौटते हुए मेट्रो के' महिला बोगी ' के पास हम खड़े होते रहेंगे और रात को उन सब को याद कर अपने- अपने लिंग सहलाते रहेंगे ! 

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