दिसंबर 23, 2012

अब यहाँ किताब नहीं मिलते .....

दिल्ली में रहते हुए एक बात की लत सी लग गयी वो थी किताबें खरीदने की । 
मुहल्ले की दुकान बुक पॉइंट से लेकर हर बड़ी और प्रसिद्ध जगह पर किताबों की दुकानों ने न सिर्फ किताबों के लिए ललचाया बल्कि प्रभावित भी किया । एक बार की बात है , मैं और विकास कमरा छोड़ने वाले थे और चाह रहे थे के मुखर्जी नगर में रहने चले जाएँ । कमरा भी मिल गया था और सबकुछ तय भी हो गया था फिर विकास ने कहा के मुखर्जी नगर में कितनी किताबों की दुकानें हैं , ये तो हमारा खर्चा बढ़ा देंगी ! अब सोचते हैं तो लगता है के कितनी मामूली सी बात पर हमने मूखर्जी नगर में रहने का विचार त्याग दिया था लेकिन उस समय जब घर दिल्ली में रह कर तैयारी करने के लिए 2000 रूपय महीने के मिलते थे उनमें से यदि बहुत से रूपय किताब-पत्रिकाओं में ही चले जाएँ तो खाने का संकट आना लाजिमी था । और अच्छा किया कि नहीं गए मुखर्जी नगर, यहीं रहे और पैसे बचा कर किताबों पर लगाए । 

किताबों के मामले में  दिल्ली की स्थिति हमारे शहर से अलग थी । जहां सहरसा में अधिकतम इंजीनियरिंग की तैयारी की किताबें ही मिलती थी वहीं यहाँ पर अलग अलग रुचियों और स्वाद की किताबें । किताबों के स्वाद लेने के बारे में कृष्ण कुमार याद आते हैं पर उनकी बात कभी और .... 
कुल मिला कर सहरसा में रेलवे स्टेशन ही एकमात्र स्थान था जहां साहित्य से संबन्धित कुछ किताबें मिल जाती थी । तमाम सीमाओं के बावजूद सहरसा रेलवे स्टेशन पर बैठकर किताबें पढ़ने का अलग ही आनंद होता था । कितनी बार तो टी टी से झड़प हुई थी । फिर भी सारी किताबें वहाँ नहीं मिलती थी । मैं जब दिल्ली आ गया था तो दो तीन बार मित्र मिथिलेश जो आज एक नामी युवा कवि हैं उनके लिए यहाँ से किताबें भेजी क्योंकि सारी किताबें वहाँ नही मिलती थी । बहरहाल किताबों के मामले में दिल्ली ने न सिर्फ अवसर ही दिये बल्कि एक रुचि भी जगाई ...यहाँ समय समय पर होने वाले पुस्तक मेलों ने तो लगभग हर इच्छा पूरी करने की ठान रखी थी । और ऐसा ही किया कई बार यमुना विहार की उस दुकान ने जहां पुरानी किताबें आधी कीमत पर आज भी मिल जाती हैं । लेकिन दरियागंज में लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार ने खासा निराश किया वहाँ हर बार वो किताबें नहीं मिली जो लेनी थी । 

इस बीच एक लंबा अरसा गुजर गया है , यमुना विहार का बुक पॉइंट बंद हो गया । मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर में चलने वाली दुकान भी लगभग उसी समय बंद हो गयी । जिस मुहल्ले में रहता हूँ वहाँ भी हमारे शहर सहरसा की तर्ज पर अब केवल प्रतियोगिता की तैयारी करने वाली किताबें ही मिलती हैं । मुखर्जी नगर की बहुत सी किताब की दुकानें बंद हो गयी अब वहाँ फैशनेबल कपड़ों और खाने की दुकानें आ गयी हैं । इधर कोढ़ में खाज की तरह दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय में चलने वाली किताब की दुकान को विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा बंद करा दिया गया है वहाँ कुछ नया खुलने वाला है और कहा जा रहा है कि किताब की उस दुकान के लिए अन्यत्र कोई जगह उपलब्ध कराई जायी जाएगी । ये दौर एक साथ ही आया है ... हमले किताबों पर ही हो रहे हैं । यूं ऊपर से देखने पर यह कोई बड़ी बात नही लगती लेकिन किताबों का जिस तरह से विचारों की मजबूती , उनके निर्माण एवं परिवर्तन में योगदान रहता है उसे देखते हुए ये सब एक सोची समझी प्रक्रिया ही लगती है और एक हमला भी । किताबों का व्यवसाय बहुत मुनाफे का व्यवसाय भी नहीं है कि इसमें बहुराष्ट्रीय कंपनी आए और इसका पुनुरुत्थान हो । इस लिहाज से देखें तो हम काफी आगे बढ़ चुके हैं और विचारों की खुराक हमारी किताबें छुट रहीं हैं । 

कुछ दिनों पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग के एक पुस्तकालय कर्मी से बात हो रही थी , उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से कहा जा रहा है कि अब खर्च में कटौती के तहत मुद्रित शोध पत्रिकाएँ खरीदने के बदले 'इ-जर्नल' की खरीद सुनिश्चित की जाए । यहाँ समस्या ये है कि विभिन्न विभागों में जीतने छात्र पढ़ते हैं उतनी मात्रा में कम्प्यूटर नहीं हैं जिससे कि सभी छात्र सुगमता से इ-जर्नल पढ़ सकें । और सब के पास कंप्यूटर भी नहीं है कि उसे घर में बैठ के ही पढ़ा जा सके । 
दुकानों के बंद होने और शिक्षा संस्थाओं के बदलते नजरिए ने पढ़ने की संस्कृति को प्रभावित किया है । इसका प्रभाव दिल्ली में बहुत गहरा रहा है । एक किताब की जरूरत हो तो अब कोई निश्चित ठौर के नही रहने की दशा में सीधे प्रकाशन से लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है ... 
ऐसे समय में एक सुबह जब एक मित्र ने फोन पर अपने विभाग में पुस्तकालय के लिए समाज विज्ञान की किताबों के बारे में नाम बताने को कहा । आश्चर्य कि कोई विभाग अब भी ऐसा सोचता है ... पर ये विभाग दिल्ली नहीं पंजाब के एक जिले में है !

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