दिसंबर 30, 2013

प्रदर्शन से जरूरी संबंध


और ये महान धोनी की महान टीम भी दक्षिण अफ्रीका में सीरीज नहीं जीत पायी बल्कि हार गयी ! उम्मीदें तो बहुत लेकर गए थे ये लोग लेकिन उन पर खतरे के बादल बिलकुल शुरुआती दिनों में ही मंडराने लगे थे जब 'धोनी और साथी' एक भी एकदिवसीय नहीं जीत पाये और जो हारे वह ऐसे वैसे नहीं बल्कि भरी अंतर से हारे ! उन दिनों में आंध्र प्रदेश में था । वहाँ धोनी की फैन फोलोइंग देख कर दंग रह गया । हारते हुए मैच में भी एक चौका लगते ही लोगों का उत्साह हिलोरें लेने लगता था । और वे सोचते कि आगे और ये चौके पड़ते ही रहेंगे । पर अफसोस अगली ही गेंद किसी महान को ले उड़ती थी और मेरे साथियों के चेहरे बुझ जाते जैसे कि वो एक दीया !
               
शिखर धवन इधर हाल में भारत की टीम में धोनी का नया पत्ता है जो एक बार भारत में चलते ही उसके हाथों का ट्रम्प कार्ड बन गया था । कप्तान के हाथों का पत्ता बनना शिखर के लिए इतने गर्व की बात रही कि जिस भी दिन कैच छूटा और उसने शतक बनाया तो अपनी मूछों पर ताव देता । तब वह इतना भद्दा लगता कि पूछो मत । पर धोनी और उसके ख़ैरख्वाहों के लिए वह इस सामंती खेल का नया सामंती चेहरा था । इस बीच उसे एक बार बच्चों के साथ अफ्रीका भेजा भी गया था और वहाँ उसने पता नहीं कहाँ के बच्चों की धुलाई कर दी थी और घोषणा कर दी कि एकदिवसीय क्रिकेट में अब तीन सौ रन भी बन सकते हैं । यह तो नहीं कहा कि वह तीन सौ रन बनाएगा पर उसके भाव यही थे । लेकिन इस दौरे ने उसकी मूछों पर ताव भी नहीं पड़ने दी ।  बिचारा  पूरे दौरे पर एक अर्धशतक के लिए तरस गया !

जय हो रोहित शर्मा आपको तो उघाड़ दिया अफ्रीका दौरे ने ! रोहित को बंबई की ओर से खेलने का फ़ायदा बहुत मिला जैसे कि किसी भी बंबईय्ये को भारत की क्रिकेट में मिलता है । हाँ वसीम जाफ़र और मुरली कार्तिक  को नहीं मिलता है जो ओवरस्मार्ट बनते हैं । बीसीसीआई वैसे भी ओवरस्मार्ट लोगों को नहीं पसंद करती उदाहरण के लिए मोहिंदर अमरनाथ , वीरेंद्र सहवाग , गंभीर , युसुफ पठन आदि (एक दौर में गांगुली और द्रविड़ भी स्मार्ट बने और गए बूट लादने ) । बाहर हाल रोहित शर्मा ! उसने औस्ट्रेलिया की दोयम दर्जे की टीम को पीट के दोहरा शतक बना दिया था यहाँ भारत में जो धोनी उसके आक़ा और उनके चमचों -बेलचों की नजर में उसकी प्रतिभा को साबित करने वाला सिद्ध हुआ । नहीं तो जीतने मौके उसे मिले थे उतने किसी को नहीं मिलते । लोग उसकी कम उम्र और प्रतिभा का हवाला देते हैं उनके लिए यह कि उसी उम्र में उससे ज्यादा मैच खेलने और रन बनाने वाले मुहम्मद कैफ को सीनियर मान कर और बहुत मौके दिए ऐसा कह कर टीम से निकाल दिया गया । उन्हीं रोहित शर्मा को अफ्रीका दौरे ने फिर से उस हालत में ला दिया जहां वह पहले थे । उनकी प्रतिभा उनके भीतर रह गयी और उघड गया उनका खेलने का कौशल ! पर फिर भी उनकी उम्र अभी कम है और उन्हें अभी बहुत से मौके मिलने हैं !

बची इज्जत तो थोड़ी सी विराट कोहली , पुजारा और रहाणे की जो धोनी की जिद से नहीं बल्कि अपनी प्रतिभा से टीम में हैं । धोनी के चाहने और न चाहने से जिनके चयन पर कोई फरक नहीं पड़ता । इन खिलाड़ियों के दम पर ही भारत के खेल प्रशंसक और समीक्षक कह रहे हैं कि भारत के लिए  दक्षिण अफ्रीका में कुछ  सकारत्मक रहा !  

और रही बात धोनी की तो भाई साहब ने एक बार एंग्लैंड के एक दोहरा शतक बना लिया और उनके दायित्वों की इतिश्री हो गयी । यह उनका वही दोहरा शतक था जिसका धोनी से लेकर श्रीनि तक इंतजार कर रहे थे । उससे पहले धोनी , गंभीर, सहवाग और यहाँ तक कि तेंदुलकर सब खराब फॉर्म में चल रहे थे । और जैसे ही धोनी का दोहरा शतक बना बाकी सब पीछे हो गए और उन्हें नकारा साबित करने में चयनकर्ताओं ने कहाँ देर लगाई ! उसके बाद से धोनी फिर वही धोनी हैं जो बस श्रीलंका जैसी गेंदबाजी या वेस्ट इंडीज जैसी गेंदबाजी वाली टीम के साथ रन बनाएँगे । 

भारतीय  गेंदबाज तो भाई हमेशा से निराश करते आ रहे हैं इसलिए उनपर कोई विशेष बात करना बेकार सा ही है । उनके  टुकड़ों में एक दो प्रदर्शन को छोड़ दें तो वही हालत रही जो पूर्व के दौरों पर रहती थी ।
पर इतने पर भी यह देख के हैरानी होती है कि ये रवि शास्त्री और गावस्कर जैसे लोग अपनी कमेंटरी में इन नॉन-पेरफोरमर्स पर जरा भी तल्ख़ नहीं हो पा रहे हैं । अरे भाई डरते काहे हो श्रीनिवासन हमेशा के लिए रहने नहीं आया है । कहने के लिए डरना कह दिया लेकिन यह डरने से ज्यादा पैसे का मामला है । अभी बहुत दिन नहीं हुए जब यह टीम इंग्लैंड में खेल रही थी तो कमेंटरी करते हुए नासिर हुसैन ने कहा था कि गावस्कर और रवि शास्त्री बी सी सी आई से पैसे लेकर श्रीनि के विचारों को प्रमाणित करते हैं ।
फिर रही बात कपिलदेव जैसे धोनी के परम प्रशंसकों की जो किसी न किसी टीवी पर बैठकर फर्जी प्रवचन देते मिल जाएंगे तो मामला अब ऐसा बन गया है कि उन्हें यदि जीना है और खाना कमाना है तो धोनी की प्रशंसा करनी पड़ेगी क्योंकि धोनी ठहरा श्रीनि का पिद्दी । पिद्दी की प्रशंसा न करोगे तो कैसे टिकोगे यार जल में रहकर मगर के कानून की ही बात करो !

यहाँ मैं मैच के ताजा स्कोर को टीवी नहीं बल्कि क्रीकबज़ नामक एक वेबसाइट के माध्यम से जनता हूँ । वहाँ लाइव कमेंटरी भी लिखी जाती है । पूरे अफ्रीका दौरे के दौरान एक बार भी ऐसा नहीं देखा कि इस पर लिखने वालों ने किसी अफ्रीकी खिलाड़ी की प्रशंसा की हो । दो लगातार चौके मार कर आउट हो जाने वाले शिखर धवन को  शतक बनाने वाले कैलिस से ज्यादा प्रशंसा मिलती थी । और धोनी के हर निर्णय की जम कर प्रशंसा । भारत के पिछले अफ्रीकी दौरे के दौरान वहाँ के कमेंटेटर भी ठीक इसी तरह अपने खिलाड़ियों की ही प्रशंसा करते थे ।

बहरहाल मुझे दक्षिण अफ्रीका दौरे का इंतजार था क्योंकि धोनी की टीम से संबंध में मेरी जो समझ बनी है उसे एक बार और साबित होते देखना चाहता था । धोनी ने जो टीम बनाई उसमें प्रतिभा से ज्यादा संबंध चल रहे हैं और क्रिकेट ऐसा  खेल है कि घिसते घिसते कोई भी एक शतक बना ही देता है और डेढ़ दो सौ रन खा कर रवीद्र जडेजा की तरह एक बार पाँच विकेट ले सकता है लेकिन न तो एक बार भी यह टीम पाँच सौ रन बना पायी है और नहीं किसी मजबूत टीम को पारी से हरा  पायी है । फिर भी पैसे लेकर विशेषज्ञ धोनी को महान साबित करने में लगे हैं क्योंकि खिलाड़ियों ने उसे दो दो विश्वकप उठाने का मौका जो दे दिया !


दिसंबर 25, 2013

ग्लोरीफिकेशन ऑफ ए फेज़ : भाग दो


दिल्ली में कितने ही लोगों से मिलने के वादे कर रखे थे वे किए गए वादों की तरह ही रह गए और मैं किसी से नहीं मिल सका । न मिल सकने का उतना अफसोस नही है जितना लोगों के न समझ पाने का है कि मैं सचमुच बीमार था । खैर मैं बीमार रहूँ या ठीक काम पर लौटना ही था । दवाओं ने असर करना शुरू किया था लेकिन  जैसा कि मेरे परिवार में होता है ठंड और बुखार जाते जाते भयंकर खांसी दे के जाती है । मेरी माँ खाँसते खाँसते बेदम हो जाती है । और प्राप्त सूचना के अनुसार वह अभी भी इसी खांसी की शिकार है । मैं भी खाँसने लगा और कई बार खाँसना इस तरह ज़ोर पकड़ता कि कक्षा में एक पंक्ति भी बोलना दूभर हो जाता ।

शुक्र है मैं अभी अपने घर पर नहीं हूँ या कि यहाँ लोग एक दूसरे की जिंदगी में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते हैं । अन्यथा इस खांसी को छुड़ाने के लिए क्या क्या न खाने-पीने को कहा जाता ! मैं यहीं से अंदाज़ा लगा सकता हूँ माँ ने अपनी खांसी छुड़ाने के लिए कितनी बार तुलसी, हर-शृंगार के के पत्तों का काढ़ा पिया होगा, काली मिर्च या लौंग मुंह में रखा होगा , मछली का शोरबा पिया होगा होगा । और जब वह रात को उठकर खाँसती होगी तो पिताजी दबे हुए गुस्से से कहते होंगे कि कितनी बार कहा है दिन भर गले में गरम कपड़ा लपेटकर रहा करो । कई बार मैंने माँ को दिन भर गले में गरम कपड़ा लपेटे देखा है लेकिन इन तमाम उपायों का कोई फायदा नहीं होता देखा । हाँ एक बात और हमारे यहाँ यदि पड़ोस में यदि किसी कि खांसी ठीक हो जाय या कि उसके कहीं के किसी रिश्तेदार की खांसी ठीक हो जाए तो उसकी स्थिति लगभग खांसी के डॉक्टर की हो जाती है । लेकिन हास्यास्पद स्थिति तब हो जाती है जब इस मौसम में खांसी की दवाई बताने वाला अगले मौसम में महीने भर खों खों करता रहता है । अभी बहुत दिन नहीं हुए । हमारे सामने एक चाची (सहरसा में रहती हैं इसलिए चाची और दिल्ली में होती तो आंटी या आंटी जी ) जब भी मेरी माँ को खाँसते देखती तो अपनी गैलरी से आधा धड़ लटकाकर माँ को कई सलाह दिया करती । अगली बार खुद उनकी ही खांसी दो-तीन महीने तक चली थी ।

इसलिए मैं इस बार घरेलू उपायों और दादी माँ के नुसख़ों को मानने वाला नहीं था । एक नए डॉक्टर के बारे में पता चला जिससे हमारे विद्यालय के ही एक अध्यापक ने अपनी खांसी का इलाज़ करवाया था । भारत में तो डॉक्टर से लेकर नीम हक़ीम तक के बारे में ऐसे ही पता चलता है । डॉक्टर ने कुछ महंगी दवाइयाँ दी और एक अजीब से स्वाद वाला कफ का शर्बत । जब मैंने उपचार लेना शुरू किया तो गज़ब ! दिन भर आलस रहने लगा । पलकें ऐसी कि हमेशा नींद में हो । कक्षा में मैं क्या पढ़ा रहा था मुझे खुद पता नहीं चल पाता । जहां दो कक्षाओं के बीच समय मिलता स्टाफ़रूम में अपनी टेबल पल ही सिर टिका के सो जाता । मैं जनता था कि ऐसा उन दवाओं के कारण हो रहा है लेकिन एक तो खांसी लगभग ठीक हो गयी थी दूसरे डॉक्टर के पास जाने का समय नहीं मिल पाता कि जाकर उससे अपनी दशा कह सकूँ । इसलिए जबतक दवाएं चलती रहीं नींद का जोरदार असर भी तबतक रहा ।

आगे दवा तो खत्म हो गयी  उसके साथ खांसी और हमेशा नींद में ही रहने का एहसास ही लेकिन आलस अभी तक तारी है । लिखने पढ़ने और कहीं हिलने डुलने का मन नहीं करता है । जो लिखना पढ़ना यात्राओं और बीमार होने की वजह से लगभग महीने भर से छूटा था उसमें इस नए इलाज़ ने और वृद्धि कर दी । लिखना पढ़ना तो दूर की बात है साधारण दैनिक काम जैसे कि नहाना और दाढ़ी बनाना तक रुका हुआ था । दिन भर लेटे रहना और नहीं तो सो जाना । किसी तरह कक्षाएं खत्म कर के आना और फिर सो जाना । वो तो भला हो दिसंबर महीने का कि इसमे कुछ परीक्षाएँ पड़ गयी और उन कक्षाओं को पढ़ाना नहीं पड़ा ! इस बीच क्रिसमस की छुट्टियाँ और पड़ गयी सो आलस को बढने का पूरा अवसर भी मिल गया ।


इस बीच एजुकेशन विषय से नेट देने की सोच रहा था । जब फार्म डाल दिया तब सोचना कैसा ! पर हालात ये हैं कि तैयारी करना और समझना तो दूर ध्यान तक एकाग्र नहीं कर पा रहा हूँ । अभी परसों मैंने सोचा किसी को बता दूँ कि मैं किस हालत में हूँ ताकि यदि परीक्षा में पास न हो पाऊँ तो वह व्यक्ति मेरी हालत का गवाह रहे । बात हुई और उधर से गवाह रहने के बजाय किसी तरह मुझे सही हालत में लाने के प्रयास के तौर पर ब्लैकमेल किया जाने लगा । खैर जो हो रहा था वह मैं तो समझ ही रहा था पर शरीर और मन अब तक इस हालत में नहीं आ पाया है कि कुछ करने या पढ़ने का प्रयास कर सके । डरता हूँ कि कल से जब स्कूल शुरू हो जाएगा कक्षाओं में जाना पड़ेगा तब क्या होगा । वैसे हिन्दी के अध्यापक के पास बिना तैयारी के ही कक्षा में जाने का अवसर रहता है लेकिन अपनी आदत वैसी रही नहीं । लगता है कुछ दिनों के लिए वही हिन्दी का मास्टर बन जाऊँ जो कक्षा में जाकर पूछता है कि हाँ तो कल मैं कहाँ पढ़ा रहा था

ग्लोरीफिकेशन ऑफ ए फेज़ : भाग एक


इस स्थिति की शुरुआत तो आंध्र प्रदेश में ही हो गयी थी । हल्के बुखार का एहसास तो वहीं मिल गया था । लेकिन जिद थी कि सबकुछ को दाब के चलने वाले अंदाज़ में चलना ही जैसे सब कुछ हो । सो वापसी की यात्रा में न तो कोल्डड्रिंक को बख़्शा और न ही सर्दी पानी को । सब को निराले अंदाज़ से बरतता गया । वापस जब ठीहे पर पहुंचा तो देह हल्की गरम थी और चेहरे से रंग उड़ा हुआ । मुझे न भी पता चले पर छात्र जिनसे प्रतिदिन कुछ घंटों के लिए रू ब रू होता हूँ उन्होने झट से पकड़ लिया । इसका पता मुझे तब चला जब दसवीं ,ग्यारहवीं और बरहवीं तीनों कक्षाओं के छात्रों ने वहाँ के पंखे को बंद करना शुरू कर दिया जहां मैं खड़ा होता हूँ ।

मैं केरल वालों को बहुत कमजोर मानता हूँ जो मौसम की जरा सी शीतलता बर्दाश्त नहीं कर सकते । यहाँ तक कि पीने के लिए भी गरम पानी का प्रयोग करते हैं और पंखे-वंखे की बात तो जाने ही दीजिये । इनका वश चले तो स्टाफ़रूम से क्लासरूम तक के पंखों को निकलवा दें । कक्षाओं में तो अध्यापक से बड़ा शेर कोई नही होता ! इस दम पर कम से कम अपने ऊपर लगे पंखों को कभी बंद नहीं होने दिया लेकिन स्टाफ़रूम में मजाल कि कोई पंखा चला लूँ ! जहां बटन दबाया नहीं कि शिकायतें शुरू – किसी का गला खराब , किसी कि कमर में दर्द तो किसी को बुखार निकल आता है ! मतलब ये कि यहाँ ठंड को लेकर बहुत डर बैठा है । कोल्डड्रिंक तक फ्रिज़ में रखे नहीं मिलेंगे ! अब जब इनको कमजोर मानता हूँ तो जब तब अपने शक्तिशाली होने का परिचय देना पड़ता है । उसी परिचय देने में अगले दिन बुखार में भी पूरी असेंबली पंखे के सामने रहा और एक दो कक्षाओं में भी । पर छात्रों ने स्वयं ही अपने बहाने पंखे बंद कर दिए ।

दवाएं ली गयी और उन दवाओं के ज़ोर से बुखार भी कभी कभी उतर जाता देखा पर न तो पूर्णतः ठीक ही हुआ और न ही मेरा बीमार लगना खत्म हुआ । दो दिन बाद दिल्ली जाना था । जहां सर्दी लहकनी शुरू हो गयी थी । दिन में भले ही पता न चले पर सुबह शाम और रात को तो लग ही रही थी । लोगों ने जो अंदाज़ा दिया था उसे मैं यूं उड़ाता चल रहा था जैसे कि धुआँ हो या नहीं तो फलां के बात , घोड़ा के पाद ! अपने घमंड का कारण ये था साहब कि खुद दिल्ली में दस साल रहा और अभी पिछले साल तक उसी दिल्ली में ठंडे पानी से नहाता था । ऊपर से एक बात यह भी कि सारे गरम कपड़े दिल्ली में छोड़ आया था जैसे मैने तय कर लिया हो कि सर्दी में कभी दिल्ली वापस आना ही नहीं हो । वैसे भी केरल में जितनी सर्दी पड़ती है वैसी तो दिल्ली में अक्तूबर के दिन हुआ करते हैं !
मैं जब दिल्ली के लिए चला तो शरीर बुखार से तप रहा था और मैं आधी बाजू की टी-शर्ट और जीन में मैडम बना हुआ ! मैडम बनना मेरी एक दोस्त की माँ का मुहावरा है जो वह अपनी बेटी के लिए तब इस्तेमाल करती हैं जब वह सर्दी में भी टिम-टॉम बनकर बाहर निकलती है । बुखार की वजह से डर तो मैं भी रहा था लेकिन वह डर एक ऊनी चादर रखकर ही भगा देना चाहता था । कोचीन हवाईअड्डे से लेकर जहाज़ के दिल्ली पहुँचने तक मैं कितना भी मैडम बन जाता कुछ भी फर्क नही पड़ने वाला था क्योंकि ये सभी लगभग गरम स्थान ही थे । लेकिन जहाज से उतर कर समान मिलने तक के पाँच-सात मिनट में जब तक मैं चादर ओढ़ नहीं पाया लगता है सारा काम उतनी ही देर में हो गया । हवाईअड्डे पर लंबी ऊनी चादर ओढ़ कर चलना अलग ही लुक दे रहा था और मैं उसका मजा भी ले रहा था । उस समय जरा भी शुबहा नहीं था कि सुबह मेरी क्या हालत होने वाली है !


यूं तो अपनी बीमारी के बढ़ जाने का अहसास रात में ही कभी हो गया था लेकिन सुबह उठते ही आईने में चेहरा देखा तो चेहरा अपनी औकात से डेढ़ गुना बड़ा दिख रहा था और तभी से लगने लगा कि बाहरी त्वचा लुढ़क सी रही हो ! बचपन का एक साथी याद याद आ गया वह और उसका भाई हमारी ही कक्षा में पढ़ते थे । दोनों जुड़वा ! एक दिन इसी तरह सर्दी के किसी दिन उसका चेहरा सूजा हुआ था फिर धीरे धीरे उसने स्कूल आना बंद कर दिया और एक दिन हमने सुना कि उसकी मृत्यु हो गयी । उसका जुड़वा भाई अब भी मिल जाता है । वह किराने की दुकान चलाता है और उसके चेहरे में उसके मरे हुए भाई को देखा जा सकता है लेकिन अब वह अकेले है । अपने चेहरे की सूजन देख कर मुझे वही मरा हुआ लड़का याद आ रहा था । और उन दो दिनों में जबतक मेरा चेहरा सामान्य अवस्था की ओर लौटने नहीं लगा तबतक मुझे वह लड़का याद आता रहा । 

दिसंबर 07, 2013

गुंटूर और आसपास !

इधर दक्षिण भारत में भाषा का मामला बड़ा तगड़ा है । जरा सा हिलना हुआ नहीं कि एक नई भाषा सामने आ गयी । और जब से इस नवोदय की नौकरी में आया हूँ तब से घूमना फिरना कुछ ज्यादा ही हो रखा है । बल्कि ये इधर उधर जाना इसी नौकरी में आने के बाद संभव हुआ है । स्कूल में लोग कहीं जाना नहीं चाहते पर अपने को यह देश देखने का अवसर ही नजर आता है । इसलिए जब भी मेरा नाम आता है ख़ुशी ही होती है कि चलो जी एक और जगह देख लेंगे । यह ख़ुशी गुंटूर आने के नाम पर भी हुई पर जो यहाँ आ चुके थे उन्होंने कहा था कि बहुत बेकार सी जगह है । उस समय यह पता नहीं था कि गुंटूर ऐसा भी हो सकता है इसलिए ख़ुशी बहुत देर टिक नहीं पाई थी ।

जहाँ हमें ठहराया गया है वह स्टेशन के करीब ही है बीच शहर में । नवोदय में रहते हुए कुछ भी बीच शहर सा मिल जाये तो बड़ी बात होती है । स्टेशन से जब यहाँ पहुंचे उस समय कोई नही था सिवाय एक कुत्ते के जिसने हमें देखते ही भौंकना शुरू कर दिया । कुत्ते की आवाज सुनकर एक सज्जन ऊपर छत पर आये । हम तीन थे और सभी उत्तर भारतीय जिनका मुंह खुलता ही हिंदी में है और ऊपर वाले सज्जन पता नहीं कौन सी भाषा बोल रहे थे । फिर उनकी टूटी हुई हिंदी और हमारी टूटी-फूटी अंग्रेजी में जो संवाद बन पाया उसके अनुसार यही जगह थी जहाँ हमें ठहरना था और जहाँ हमारी ट्रेनिंग होनी थी ।

छिः ऐसी जगह में रहेंगे हम । मेरे साथ साथ सबके यही भाव थे । बहुत पुराना घर उसी में दीवारें डालकर छोटे छोटे कमरे बना रखी हैऔर सबसे ऊपर लकड़ी की सीढ़ी जिसका प्लेटफोर्म भी लकड़ी का ही है ।  भीतर दीवारों पर पुरानी पड़ती श्वेत श्याम तस्वीरें जो यह बताती थी कि यह घर कुछ ऐतिहासिक महत्त्व रखता है । बाद में पता चला कि यह घर आजादी के आन्दोलन में खासकर आंध्र प्रदेश का केंद्र था जहाँ बड़े बड़े लोग आकर ठहरते थे और आन्दोलन को आगे बढ़ने पर विचार विमर्श करते थे । बाद में यह संपत्ति इसके मालिक ने देश को दे दी और देश ने  नवोदय को अपना ट्रेनिंग सेंटर चलाने के लिए ।

हम पहले आनेवालों में से थे और कमरे खुलवाकर अपने लिए बढ़िया जगह तलाश कर सकने वालों में से भी । कमरों का छोटापन और उनमें तैर रही घटिया सी गंध और मच्छरों की भरमार ने सबसे पहले यही सोचने को विवश किया कि ठीक है यह एक ऐतिहासिक स्थान है पर यहाँ इस सडी सी जगह में हमें ठहराने का क्या अर्थ है । यह सही बात है कि हम इस जगह को पाकर दुखी थे पर देश के इतिहास का हिस्सा बनने का भाव तो था ही । जिस कमरे में हमने अपना सामान लगाया बताया जाता है कि उसमें महात्मा गाँधी सोये थे । यह और कुछ दे न दे एक रोमांच तो देता ही है । उसी रोमांच पर टंग कर हमने संतोष करना चाहा कि मच्छरों ने बता दिया कि इस घर पर उनका अधिकार वर्षों से है । तभी एक मित्र ने चुटकी ली कि ये मच्छर महात्मा गाँधी को काटने वाले मच्छरों के वंशज हैं । हंसी छूट गयी और इसके साथ ही भूखे होने का एहसास भी होने लगा ।

नहा -धोकर निकले तो किस दिशा में खाना ढूंढने जाएँ यही तय करने में समय लग गया । वो कहते हैं न ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वही वाली मिसाल सामने आ गयी थी । खैर किसी तरह एक सड़क पकड़ी तो पता ही न चले कि खाने की दुकानें कौन सी हैं । और पता करने जाएँ तो हमारी भाषा आड़े आ जाये । हमने बहुत कुछ ट्राई कर लिया था यहाँ तक कि जो थोड़ी बहुत मलयालम सीखी वो भी लगा दिया । फिर भी वह भाषा न बना पाए जो हम किसी को सामझा सकें और कोई समझ सके । बड़ी मशक्कत के बाद एक ने एक दुकान का रास्ता बताया और जब वहां गए तो वह भी बंद थी । आंध्र प्रदेश जबसे बंटने के रस्ते पर चढ़ा है तब सइ यहाँ दुकानों का बंद होना सहज सा लगता है । खैर पैदल चलकर भूख और अगले स्तर पर चली गयी थी आगे एक दुकान दिखी और हम घुस गए । उस दुकान में हम क्या खाते यह समझाने में बहुत समय लग गया और आगे हम जब भी बाहर गए यह हमारी मुख्य समस्या बनी रही ।

किसी तरह खा कर बाहर आये और पेट भरते ही हमारी इच्छाओं ने हिलोरें मारनी शुरू कर दी कि दिन भर के फ्री टाइम का उपयोग करने के लिए यहाँ कोई देखने योग्य जगह है तो देख लिया जाये । यह पता करने में भी भाषा आड़े आ गयी । पर भाषा इस बार हमसे ज्यादा देर तक खेल न सकी । अपने एक साथी को जनकारी थी कि यह समुद्र से ज्यादा दूर नहीं है सो उन्होंने वही पूछा और जवाब भी सकारात्मक मिला । 50 किलोमीटर के बाद समुद्र । वही जो बांछें होती हैं खिल गयी । हम वापस उस ऐतिहासिक भवन की और न गए और न ही उन मच्छरों के वंशजों के पास जिन्होंने गांधीजी को काटा था ।

बस वाले ने हमें जहाँ उतारा वहां से समुद्र पांचेक किलोमीटर रहा होगा जो दूरी निश्चित रूप से तिपहिये से की जानी थी । उससे पहले हमने बहुत से संतरे बिकते देखे । एक अम्मा के खोमचे के पास पहुंचे और उनसे संतरे का रेट पूछा । उन्होंने अपनी भाषा में पता नही क्या समझा । कुछ बोली और कुछ इशारा किया जो हमें समझ नहीं आया । उन्होंने फिर कोशिश की हमें फिर समझ नही आया । फिर उन्हें ही एक युक्ति सूझी । अपनी अंटी से एक पचास का नोट निकाला और छह संतरे सामने रख दिए । हमें भक से समझ आ गया । अब एक बार समझ में आ गया तो मेरी मोलभाव की आदत जाग गयी । सोच लीजिये कितना कठिन रहा होगा पर साहब किसी तरह उँगलियों को बारह से घटाकर दस तक लाया और वो छह से बढ़कर दस तक आयीं उन्होंने भी ऊँगली का ही सहारा लिया । और जब संतरे चुनने की बारी आई तो 'बिग' और 'टाईट' हमने कई बार बोला । वहां कुछ और स्त्रियाँ थी ।
तिपहिये वाले ने जहाँ उतारा वहां से समुद्र दिख रहा था । धूप में उठती लहरें और उनकी आवाज और उन आवाजों में भीगते खेलते लोग-लुगाईयां । हम बिना किसी तयारी के आ गए थे । अब इस धूप में तैयारी करने लगे । वहां हमलोग सबसे अलग लगते होंगे । हाथों  में अपने कपडे जूतों के थैले लेकर यहाँ वहां फिरने वालों में केवल हम ही थे ।
यूँ फिरते फिरते भूख लग आई थी । पर बहुत तलाश करने पर खाने में तली हुई मछलियों के अलावा कुछ भी नहीं था । हम जब वहां पहुंचे तो वहां भी हमारी भाषा हमें पहुँचने से रोकने लगी । उस जगह कई स्त्रियाँ थी और पहली बार हमने यह देखा कि वे हम पर तरस खा रही थी ।

उस दिन के बाद से आजतक चार पांच दिन हो गए । यहाँ कई बार बाहर जाना हुआ और कई बार ये महसूस हुआ कि हम यहाँ भाषा के मामले में कितने अज्ञानी से हो गए हैं । खाने पीने से लेकर जरूरत के सामानों तक के लिए यदि बाहर गए तो भी भाषा नहीं समझ पाने का और दूसरों को न समझा पाने का दुःख बना रहता है ।

एक शहर में कुछ दिन

पिछले कुछ दिनों में एक बात ने बहुत परेशान किया है कि भई कितनी भाषाएं जानी जाएँ । कितनी कि काम चल सके । जब बहुत ज्यादा यात्रा करनी हो तो यात्रा के हिसाब भाषा का गंभीर असंतुलन पैदा हो जाता है । उस समय उन तमाम दावों और दलीलों की हवा निकल जाती है जिनमें यह कहा जाता है कि भारत में हर जगह हिंदी समझी जाती है और सबसे बड़ा तो ये कि अंग्रेजी विश्वभाषा है । इन यात्राओं में हमने देखा कि न तो विश्वभाषा काम देती है और न ही देश की संपर्क भाषा । तब लग जाता है कि यार हम तो जो भाषा सीख लें लेकिन वह हमेशा काम देंने वाली नही है । इधर यात्रायें बहुत की हैं और ये यात्रायें ऐसी हुई हैं कि ज्यादातर दक्षिण भारत के भीतरी इलाकों में जाना पड़ा है । एक बार को दक्षिण भारत के बड़े शहरों में अंग्रेजी बोल के काम चला लिया जाये पर उन शहरों के कुछ किलोमीटर दायें बाएं निकल गए तो साहब फिर शहर क़स्बा या गाँव कुछ भी हो आप समझाते रह जाओ सामने वाले भी समझाते रह जायेंगे । अंतिम किस्सा तो जनाब इसी आंध्र प्रदेश का है जहाँ अभी टिका हुआ हूँ ।

उस किस्से पर जाने से पहले थोड़े समय में इस शहर और इसकी संभावनाओं को देखते हैं जो शायद इसलिए जरुरी जान पड़ता है कि ये शहर दक्षिण के उन शहरों में से है जिसका जिक्र बहुत ज्यादा नहीं आता है ।

एक शहर है गुंटूर । वैसा ही जैसा एक शहर हो सकता है ।  बहुत सी गाडियों की चीख पुकार , उनकी एक दुसरे से आगे निकल जाने की होड़ और उनके बीच से स्कूटी से निकल जाती खुशनुमा चेहरे वाली युवती सब है इस शहर में । हाँ इस बीच बड़ी - छोटी दुकानों और लाइन से लगे कोचिंग संस्थानों की भीड़ भी है । इन कोचिंग में भीड़ सी लगी देखी है सुबह सुबह और उन चेहरों में कहीं अपना चेहरा तलाशने की कोशिश की जो पंद्रह साल पहले इसी तरह इंटर की कोचिंग के लिए सहरसा की गलियों में घूमता था । छात्रों के चेहरों पर वही किशोर भाव लेकिन यहाँ दबाव ज्यादा दिख रहे थे । हो सकता है ऐसा ही दबाव सहरसा के कोचिंग जाने वाले छात्रों पर रहा हो लेकिन चूँकि बहुत दिनों से वहां गया नही इसलिए उन भावों की कोई जानकारी नहीं है । आगे ये दबाव बहूत सी परीक्षाओं के पास करने की है । नौकरी कम हुई लेकिन बहुत सी नयी परीक्षाएं आ गयी और उनकी तैयारियों के लिए कोचिंग ।

कोचिंग के बोर्ड पर सबकुछ तेलुगु में लिखा है पर बैंक, एसएससी ,आइ बी पी एस आदि अंग्रेजी में । ये सब अंग्रेजी में लिखकर क्या सन्देश दे रहे हैं यह जानना बहुत कठिन नहीं है । ये तो उस सपने के लिए है जिसको पूरा करना अंग्रेजी के हाथ में माना जाता है । हिंदी हो या कि तेलुगु मैं इन सबको हाशिये से ऊपर की भाषा नहीं मानता हूँ और शायद इससे ज्यादा इन सबकी स्थिति है भी नहीं । तेलुगु में आदमी सपने तो देख सकता है लेकिन उन्हें पूरे करवाने की हैसियत इसकी नहीं रही । इसकी ही क्यों किसी भी भारतीय भाषाओं की यह औकात नहीं रह गयी कि सपनों को पूरा करने में मदद कर दे ।

भारतीय भाषाएँ बहुत जल्दी से अपनी हैसियत खोती जा रही हैं । हम चाहे लाख अपनी भाषा को लेकर उठते बैठते रहें पर ये सब अब कुछ कौड़ियों के बराबर हैं । यहाँ ये कौड़ियाँ चिनुआ  अचबे के अफ्रीका की तरह ही है जहाँ स्थानीयता ने बड़ी जल्दी  अपना स्वाभिमान खो दिया । यहाँ गुंटूर के कोचिंग सेंटरों को मैं उन दुकानों की तरह देख रहा हूँ जहाँ पौ फटते ही सपनों की बिक्री शुरू हो जाती है और खरीददार इस भाव में आते दीखते हैं कि सपना अब पूरा हुआ कि तब । पर यह इतना ही सहज होता तो कोचिंग सेंटर वाला भी कोचिंग के बदले सरकारी नौकरी ही कर रहा होता ।

गुंटूर को बचे हुए आंध्र की राजधानी के काबिल माना जाता है इसलिए लोग कहते हैं कि जबसे राज्य के विभाजन की बात चली है तब से इन कोचिंग सेंटरों ने कमर कस ली है वह भी इसलिए कि राजधानी बने तब तो जरुरत है ही पर यदि  विजयवाड़ा से राजधानी की लड़ाई हारने की नौबत भी आ जाये तो भी दोनों के बीच की कम दूरी इस शहर को बहुत महत्वपूर्ण बनाये रखेगी । उस स्थिति में और कुछ चाहिए न चाहिए अंग्रेजी चाहिए । क्योंकि गुंटूर में सिकंदराबाद बन्ने की क्षमता देख रहे हैं कोचिंग वाले । इसलिए वे अपने यहाँ अंग्रेजी सिखाने की विशेष व्यवस्था कर रहे हैं । इन बहुत सी स्थितियों में कोचिंग कोई धर्मार्थ काम नही  कर रहे बल्कि एक और नया भ्रम बेचकर पैसे पीट रहे हैं । और इस पूरी प्रक्रिया में स्थानीय भाषा पीछे छूट रही है ।

पर इसी गुंटूर में इसी बाज़ार को अपने लिए  तेलुगु भाषा को इस्तेमाल करते हुए भी  देखा जा सकता है । हालाँकि बाजार के सम्बन्ध मं यह कोई नयी बात नहीं है लेकिन वही तेलुगु बाजार के दबाव में लोगों के संदर्भों से बाहर हो रही है और दूसरी तरफ वही स्थानीय भाषा बाजार की मांग के दबाव में बहुराष्ट्रिय कंपनियों की संपर्क भाषा बन रही है । सभी बड़े ब्रांड यहाँ तेलुगु में अनूदित होकर लोगों को बाजार तक लाने का कार्य कर रही है । इससे भी घाटा भाषा का ही है और फायदा बाजार का । लेकिन इसकी यह जटिलता इस स्थानीय भाषा को सीमित कर रही है जहाँ कुछ ही शब्द होंगे जिनसे काम चलाया जायेगा और बहुत सी स्थितियों के लिए न तो संबोधन रह जायेंगे और न ही नाम पर कोचिंग और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ उसी तरह काम करती रहेंगी जैसे पहले करती थी ।

इस शहर का होना इसके बड़े या कि छोटे होने में नहीं है बल्कि विजयवाड़ा के पास होने में है । जैसे जैसे गुंटूर के राजधानी बनने की उम्मीद कम होगी इसके विकास की सम्भावना बढ़ेगी । क्योंकि विजयवाड़ा के पास फैलने का स्कोप नहीं है और गुंटूर अभी बढ़ रहा है जो ज़ाहिर है सबको आकर्षित करेगा ही । उस  बैकड्राप में यहाँ का भाषाई संतुलन बहुत कुछ कहता है । इतना कि भाषा जिन्दगी बदलने वाली बन जाय । कोचिंग संस्थान तेलुगु को 'रिप्लेस' करने में लगे हैं ताकि वे अपने बाजार को एक 'मोमेंटम' दे सकें ।

यह शहर बहुत सी संभावनाओं से भरा है पर जहाँ तक उन संभावनाओं की बात है वह यहाँ की स्थानीयता की कीमत पर टिकी है । अब देखने की बात रह जाती है कि यह स्थानीयता जो टूटनी शुरू हो गयी है कहाँ तक अपने को बचा पाती है । कल थोड़ी बहुत घुमा फिरि और बातचीत के बीच ऐसे लोगों की भरमार देखी जो 'सॉफ्ट स्किल' 'लाइफ स्किल' सीखने की बात कर रहे थे । पता नहीं क्यों वे इस बात पर जोर दिए हुए हैं कि यहाँ के बच्चों में इन सब की कमी है । ये अमेरिकी चिंतन को सीधे लागू कर देते हैं बिना यह सोचे कि ये गुंटूर है ! कम से कम हैदरबाद भी होता तो मान लिया जाता कि अब बच्चों पर से माँ बाप का ध्यान हट गया है और वे बहुत व्यस्त हो गए हैं । यहाँ तो ससुरा बाप कुछ काम धाम ही न करता तो किस बात का व्यस्त भैया । खैर ये इन कोचिंग वालों और चंद मनेजमेंट वालों के सपनों को पूरा करने वाला शहर बन रहा है तो चाह कर भी इसे कोई आयातित मानसिकता से बचा नही सकता क्योंकि प्रभावित करने वाली स्थिति में वही हैं ।

नवंबर 29, 2013

खलनायकों का साहित्य में स्वागत


पप्पू यादव दो है एक आज से 20 साल पहले वाला और दूसरा आज वाला । ज़ाहिर है आज वाला हमें ज्यादा दीखता है इसलिए पिछले कुछ समय से देख रहा हूँ कि उसकी आज की छवि को ही लगातार उछाला जा रहा है । आज का पप्पू यादव पहले के पप्पू यादव से अलग एक  संन्यासी सा दिखाई देता है और लगता नही कि यह वही व्यक्ति है जो कुछ वर्ष पहले उत्तर पूर्वी बिहार की राजनीति पर इतनी दखल रखता होगा । आज उसे देखें तो बीमार और राजनीति से बाहर हो चुके या कर दिए व्यक्ति की तरह दीखता है । जो हरशंकर परसाई के व्यंग्य ' भेड़और भेड़िये ' के चुनावी भेड़ियों सा ज्यादा दीखता है । हाल में उसने जिस तरह खोल ओढ़ी है उससे नए लोगों और बाहर के लोगों को तो अंदाजा भी नहीं लग सकेगा कि वह क्या चीज था और आज क्या बन रहा है ।

आज से बीस साल पहले के उत्तर  पूर्वी बिहार में आनंद मोहन के साथ वह एक अनिवार्य व्यक्ति जैसा लगता था । इसलिए नहीं कि दोनों बहुत अच्छे राजनेता रहे हों बल्कि इसलिए कि दोनों उस समय के नामी गुंडे थे । जिनकी गुंडई पर मंडल कमीशन के पक्ष और विपक्ष की अपने अपने हिसाब से स्वीकृति और मुहर थी । इन दोनों की गुंडई के किस्से ऐसे सुनाये जाते थे जैसे कोई वीर हों ।  यह मानना कोई नयी बात नहीं होगी कि उस समय कितने ही युवा इन दोनों सा बनना चाहते थे । और यदि आज भी कोशी और पूर्णीया प्रमंडलों में जाकर देखें तो कितने ही लोग जो इन उस समय बच्चे थे वे अपने अपने इलाकों में आज के गुंडे बने हुए हैं । यह अकारण कहाँ है कि किशोर कुमार मुन्ना , जो कभी आनंद मोहन का दायाँ हाथ था वह भी आज दो बार विधायक बन चूका है और सांसदी के सपने देखता है । आजकल खुद आनंद मोहन की हालत पतली है तो उसका हाथ (दायाँ हो या बायां ) कहाँ से वह नंगा नाच नाच सकता है जो पहले पप्पू यादव और आनंद मोहन  ने नाचा है ।

पप्पू यादव उस समय यादव होने के नाम पर राजनीतिक रूप से संरक्षित था और लालू यादव की पार्टी उसकी सहज पनाहगाह थी वहीँ आनंद मोहन राजपूत समुदाय का माना हुआ 'कुँवर' । इत्तेफाक से उस समय उठे आरक्षण के मसले ने दोनों को अपने अपने समुदायों ही नही बल्कि अन्य समानधर्मा समुदायों का नायक बना दिया । ये नायक अपने हितों को सामने रखने के नाम पर सरेआम गुंडागर्दी करते थे । इनके प्रभाव क्षेत्र के भीतर से गुजरने वाला कोई भी 'बाहरी' अपने जान तक की सलामती नहीं मान सकता था माल की तो जाने दें । बिहरा -पंचगछिया से कोई यादव नहीं गुजर सकता था और उसी तरह यादव बहुल गावों से कोई सवर्ण । यह स्थिति थी । आरक्षण के समर्थन और विरोध के नाम पर इन दोनों ने अपनी आपराधिक छवि को मांजने का खुला खेल खेला ।  पर मजाल है कि कहीं कोई अपराध रिकोर्ड हो जाये । दोनों ने आपस में एक खुली गैंग वार जैसी चीज छेड़ रखी थी हर दिन कहीं न कहीं से इनकी झडपों की खबरें आती । ये न लड़ते पर इनके लोग तो थे ही जो इनके नाम पर लड़ते थे । उन लड़ाइयों का रिकोर्ड उठाने जाएँ तो आपको कुछ भी हाथ नहीं लगेगा क्योंकि कहीं कुछ दर्ज नहीं है । पर जहाँ दर्ज है वहां से हम उठा नही सकते । प्रभावित लोगों कइ जेहन में दर्ज है और सहरसा, सुपौल, मधेपुरा और पूर्णिया के बाजारों में दुकानदारों के मन पर दर्ज हैं । इन इलाकों के बाजारों से आज भी इनके नाम पर उगाही होती है । हालाँकि आज इस तरह के कई लोग उठकर खड़े हो गए हैं लेकिन इनमें पप्पू यादव और आनंद मोहन की छवि , हाथ और प्रभाव को खोजना कठिन नहीं है । जैसे जैसे आरक्षण आन्दोलन के बाद समय गुजरा इन दोनों ने अपराध के बदले राजनीति में पैठ बनायीं फिर सफल भी हुए । लेकिन इस बीच इनके अपराध छोटे से बड़े में बदल गए । और इन पर आंच ही तभी आई जब ये दोनों बड़ी और राजनीतिक हत्याओं को अंजाम देने लगे । आज दोनों राजनीति से पूर्णतया निर्वासित जीवन जी रहे हैं पर अपने चमचों पर गहरी पैठ के नाम पर और दलबदल कर गुजारा चला रहे हैं और बड़े आश्चर्य की बात ये है कि इनका ये सारा काम जेल से भी सम्पन्न हो जाता है ।

गरज यह कि आज का पप्पू यादव अपने समय के छंटे हुए गुंडों में से एक रहा है जिससे उत्तर बिहार के युवाओं ने अपराध का ककहरा सीखा है । अभी हाल में पप्पू की एक किताब आई है पता नही उसने खुद लिखी है या किसी से लिखवाई है पर आई जरुर है । इस किताब के आने से पहले पप्पू राजेन्द्र यादव के जलसों में भी देखा गया । इसे हिंदी साहित्य में पप्पू  का पदार्पण मानिये । और जल्दी ही उसने अपनी आत्मकथा लिख कर गिरा दी । आत्मकथाएं और विशेषकर अपराधियों की पहले भी आई हैं पर अन्य किसी को साहित्य के इतिहास में शामिल होने की शायद न तो जिद रही हो और न ही उसके लेख छिपे रूप में साहित्यकार रहे हों इसलिए वे हिंदी साहित्य के लोगों के लिए चर्चा का विषय नहीं बने । पर इस पप्पू का मामला ही दूसरा है । वह अपराधी है पर उसके समर्थक साहित्य में बहुत ज्यादा हैं क्योंकि वह साहित्यिक जलसों में देखा गया या कि उसने इसकी फंडिंग की ।  इस तरह से साहित्य में खड़े दो कौड़ी के लोगों और हाशिये पर के लोगों को लगने लगा है कि साहित्य मेनस्ट्रीम की चीज हो जाएगी पप्पू को शामिल करने से । पर मामला अभी भी पैसे और संपर्क का ही है । यदि अभी भी वहां देखा जाये जहाँ से ये पप्पू आता है वहां इसकी किताब फिताब की कोई खबर नहीं चलती क्योंकि वहां सभी जानते हैं कि यह राजनीतिक रूप से चुका हुआ व्यक्ति है लेकिन हिंदी साहित्य जहाँ हाशिये के लोगों की इतनी भरमार है वहां उसका आना ऐसा लगता है जैसे सेठ आ गया हो इसलिए इस अपराधी की चरण वंदना और समर्थन के लिए लोग मिल गए !

अब हमारे प्रभात रंजन जी पप्पू यादव को साहित्यकार मान बैठे हैं और उनके समर्थन में खुलकर बोल रहे हैं । उन पर तरस आता है कि कैसे वे इसे जाति के दायरे में खींच लाये हैं । भाई आप सच्चे सीतामढ़ी एक्सपर्ट हैं जिसको सहरसा ,मधेपुरा ,सुपौल और पूर्णिया नहीं दीखता है । इस पप्पू ने वहां जो गंद मचाई है वह आप तक नहीं पहुंची हो शायद । आगे आप जिसे जाति आधारित विरोध मानकर फेसबुक रंग रहे हैं वह और कुछ नहीं आपकी मासूमियत को दर्शाता है जो परसाई के भेड़िये को भेड़ समझ रहा है । बिहार में गुंडई और राजनीति दोनों में जातियां दिखती तो हैं पर उसकी प्रकृति दूसरी है । वहां फायदे के लिए ब्राहमण यादवों के संपर्क में आज से नहीं काफी पहले से हैं । सहरसा को पप्पू यादव ने अपने कई सवर्ण उत्तराधिकारी दिए जो अभी भी सक्रिय हैं । फिर रही बात साहित्य में उसके विरोध की तो मामला ऐसा है भई साहाब की वह तो होना ही चाहिए । साहित्य में भी लोग ठकुरसुहाती पर और डर से या फिर पैसे के मोह में चुप लगा जाये तो हो गया साहित्य ।
आगे यह बताते चलें कि उधर सहरसा जेल में बंद आनंद मोहन भी कवितायेँ लिखता है । फांसी की सजा पाया वह व्यक्ति कल को जेल से रिहा होकर किसी नामवर या कि किसी अन्य सिंह से अपनी किताब का विमोचन करवा लेता है तो क्या हम उसे मार्क्वेज़ बना दें ? लोग इस बात को लेकर उठबैठ रहे हैं कि पप्पू ने अपनी किताब में खुलासे किए है । मेरे लिए यह जानना जरुरी है कि क्या उसने ऐसे खुलासे किए हैं कि उसने कितने निर्दोष को मारा या उसके अन्याय किया । क्या वह अपने को एक अपराधी स्वीकार करता है ? इनका उत्तर नहीं में ही होगा । बस ये है कि पैसे के गणित को राजनीति की कॉपी पर बनाने का समय है तो सब साहित्यकार हो जाएँ और आपलोग जिसको चाहें स्थापित कर दें ।

अपराधी का विरोध तो होना ही चाहिए यह उन सबका सम्मान होगा जिन्होंने ऐसे गुडों का ताप झेला है ।

नवंबर 24, 2013

सौंवी पोस्ट


मेरे पास मेरी एक तस्वीर है । उसमें मैं बहुत बच्चा हूँ । काफी पुरानी वह तस्वीर धुंधला सी गयी है इसके बावजूद उसमें साफ़ नज़र आता है कि मेरे बाल कितने लम्बे थे । कल जब बाल बनवा रहा था तो अचानक याद आई वो तस्वीर और याद आया पहली बार बाल बनवाना ।

बहुत दिन हो गए जब नानी के यहाँ रहता था । ये रहना ठीक उसी तरह था  जैसे देहातों में कोई अपने नानी के यहाँ रहता है । कहने का अर्थ यह कि वहां का पूरा वातावरण यह अहसास दिलाता था कि आपको यहाँ रखा जा रहा है तो वह एक भरपूर एहसान है । अपने बाल बनवाने की पहली याद बहुत पुरानी है पर बचपन के बहुत से रंगीन चित्रों की तरह वह अब भी ताज़ी है । लगभग पांच साल की उम्र तक मेरे बाल काटे नहीं गए थे क्योंकि पारिवारिक मान्यता मुंडन की थी । उस उम्र तक आते आते मेरे बाल बहुत लम्बे हो गए थे ।  इतने लम्बे कि लड़कियां तक चिढ जाएँ । जब कभी नदी या पोखर में मैं नहाने जाता था तब बालों के छोर में छोटी छोटी मछलियाँ लटक जाती थी । जब पहली बार किसी ने देखा होगा और दूसरों को बताया होगा तब से मेरे बाल मेरी मौसियों और हमउम्र मामाओं के लिए कौतुक जैसे हो गए ।

और मुझे वह दिन भी याद है जब महीने - डेढ़ महीने बाद मेरे बाल कटने वाले थे तो मेरे बालों की याद को रखने के लिए फोटो उतरवाये गए । जिस दिन फोटो के लिए मैं ले जाया गया उस दिन पप्पू मामा ने कंधे पर बिठाकर नदी पार करवाई थी । मेरी माँ , नानी और एक दो अन्य स्त्रियाँ जो निश्चित तौर पर नानियाँ ही होंगी मेरे पिताजी के साथ सहरसा गए थे । ये सारे लोग इसलिए नहीं गए थे कि बालों में मेरी फोटो ली जाएगी बल्कि इसलिए गए थे कि मेरी दादी मुझे और मेरी माँ को देखने आने वाली थी मेरे गाँव से । दरअसल मेरी माँ का गौना लम्बे समय तक नहीं हुआ था सो हमलोग गाँव नहीं जा सकते थे । गौना जब होगा तब होगा इस बीच वह बुढ़िया ( दादी) मर गयी तो बहू और पोते का मुंह देखे बिना संसार से विदा हो जाएगी । इसलिए तय हुआ कि शहर सहरसा जहाँ आज मेरा परिवार रहता है वहीं जमा होकर सभी एक दूसरे से मिल मिला लें । और इसी बहाने मेरी फोटो भी खिंच जाएगी ।

मैं बहुत रोमांचित था केवल इसलिए नहीं कि मेरी फोटो खिंचेगी बल्कि इसलिए कि अपनी दादी से मिलूँगा । दादी मेरे लिए एक कौतुहल का विषय थी क्योंकि जहाँ मैं अब तक रहा था वहां सभी मेरी नानी थी और वे सब किसी न किसी की दादी । इसलिए दादी से मिलने का रोमांच मन में  था । जब उनसे मतलब एक बुढ़िया से मिला जिसे मेरी दादी कह कर मिलवाया गया और जिसे मेरे पिता ने भी माँ कहा तब मैंने पाया कि वह मुझसे मिलकर उतनी रोमांचित नहीं थी जितनी कि मेरी नानी और उसकी सास एवं एक दो अन्य स्त्रियों से । मेरी माँ तो खैर घूँघट में लिपटी थी सर हिलाने के अलावा कोई और तरीका जवाब देने का न तो उन्होंने अपनाया और न ही उन से अपेक्षित ही था । बहरहाल उस बुढ़िया स मिलने का भूत उतर गया और महावीर चौक सहरसा के महावीर मंदिर का वह हाता जिसमें आज थूकने भी न जाऊं मेरे लिए समय काटने का  एक मात्र जरिया रह गया । मैं जल्दी से अपने नानी के यहं लौट आना चाहता था ताकि अकेलापन कम हो सके । और कुछ नहीं तो कम से उन लोगों के साथ 'ढेंगा-पानी' ही खेल लूँगा जो मेरे साथ रोज खेलते थे और मेरे आने का इन्तजार करते थे ।

खैर मैं लौटा भी और फोटो भी खिंची । उसके बाद बहुत दिन हुए जब सहरसा में रहने लगा तब उस महावीर मंदिर को देखता और आज भी देखूं तो अपने पर तरस आता था । बूजुर्ग चेहरों के बीच एक बालक सा मैं कैसा उदास कैदियों सा लगता होऊंगा ।  उस मंदिर के पास से आज भी गुजरता हूँ तो अपने को उसकी 'ढढी'(बांस की बत्तियों का घेरा ) के पास गुमसुम सा पाता हूँ । यह तो तय ही है कि वह मैं नहीं होता हूँ पर अपने जैसे किसी बच्चे को उधर खेलता कूदता पाता हूँ । वह मंदिर अज भी इस तरह के मेलजोल का गजब स्थान बना हुआ है । शहर तो आखिर शहर ही है वह अपने यहाँ नहीं रह रहे लोगों को अलग ही तरह से देखता है ।

थोड़े दिनों बाद तस्वीर आई तो मैं ठीक उसी उदासी से भरा था जो उस दिन महसूस हुई थी । दादी के प्रति थोड़े से नकारात्मक भाव उसी दिन बन गए जो आगे चलकर मजबूत ही हुए । और ताज्जुब ये कि जिस दादी के मरने की आशंका जताई जा रही थी वह अभी तक जीवित है और बिना किसी लाग-लपेट के परिवार के अन्य सदस्यों को गालियाँ देती हैं जैसे नुक्कड़ पड़ बैठा कोई पागल हो ।

आखिर मेरी माँ का भी गौना हुआ और हमलोग अपने गाँव पहुंचे । एक दो दिनों के भीतर ही मेरे मुंडन का आयोजन था । वहां अपने गाँव जाकर मैंने महसूस किया कि एक गोद से दूसरे गोद में जाना क्या होता है । और जिस दिन मेरा मुंडन था उस दिन तो मैं हीरो था । उस बड़े आयोजन में बड़ा सा भोज रखा गया था । बहुत से कपड़ों और बहुत से हजार रूपए भी मिले । मिले हुए कपड़ों में से दुसरे बच्चों को दिए जाने के बाद जो बचे वे मेरे थे और रूपए पिताजी के । इस सारे आयोजन के कुछ दिनों के बाद हमें वापस नानी के यहाँ आना था क्योंकि यहाँ मामा का गौना था । आने से पहले माँ को दहेज़ में मिले ड्रेसिंग टेबल के पास मैं कई बार खड़ा होता और अपने नए चेहरे को आत्मसात करने की कोशिश करता था । उससे पहले का चेहरा एक लम्बे बालों वाले एक लड़के का था जो दूर से किसी लड़की के होने का ही भान देता था । और एक दो बुजुर्ग की बात सुनकर तो बहुत गुस्सा भी आता था क्योंकि उनको लगता था कि मेरे माता पिता इसलिए मेरे बाल बढ़ा रहे हैं क्योंकि वे मुझे लौंडा नाच का नटुआ बनायेंगे । इतना सुनते ही मैं बहुत दुखी हो जाता था और चाहता था कि ये बाल जो कल कटने हैं आज कट जाएँ । पर ये इतने भी आसन नहीं था । क्योंकि उन बालों के कटने के लिए मेरा अपने गाँव जाना जरुरी था उसके लिए मेरी माँ का गौना होना और उसमें दहेज़ देने के लिए नाना की अंटी में पैसा होना ।
जब नाना के हाथ पैसे आ गए तब वह बहुप्रतीक्षित गौना दिया गया । और फिर मेरा मुंडन । उस बाल काटने वाले का चेहरा मैं बूल नहीं सकता जिसने पहली बार मेरे बाल काटे थे । आज भी उनके बच्चे उधर हमारे गाँव में बाल ही काटते हैं । उनके परिवार से कोई बाहर गया भी तो केवल इसलिए कि बाल काटने से गाँव में नकद आमदनी नहीं होती और जो भी होती है वह इतनी नहीं कि सबका पेट चल जाये । खैर , मेरे मुंडन कें बहुत से लोग आये थे । इतने कि लग सके कि कोई बड़ा आयोजन है और शायद इसलिए भी यह सब याद रह गया है । यदि वह एक साधारण सा आयोजन होता तो शायद ही इतने दिनों तक याद रह पाता । बाल काटने के वक़्त गीत गए जा रहे थे । मेरी माँ और पिता दोनों ही पक्ष की स्त्रियाँ आपस में हंसी मजाक कर रही थी और डहकन के गीतों में एक- दूसरे को नाई को बाल काटने के एवज़  में दे रही थी । माँ के पक्ष से गयी स्त्रियों की संख्या कम थी इसे भी ध्यान में रखना चाहिए । मेरे बाल कटे तो नए कपडे, सर पर पीले तौलिये का साफा और पता नही क्या क्या खातिर की गयी मेरी । पर सबसे ज्यादा ख़ुशी तब होती थी जब पैर छूने के एवज में कुछ न कुछ रूपए देते थे ।

तब से बालों के कटने का सिलसिला चल पड़ा । कल जब बाल बनवा रहा था तो नहीं सोचा था कि अनायास ही एक साथ इतने सन्दर्भ याद पड़ जायेंगे । पर लिखने लगा तो एक से दूसरे में आते जाते बहुत से ऐसे बिंदु मिले जहाँ से हजार और जगह जाया जा सकता है । शायद इसी बाल काटने पर एक और छोटा सा कुछ बन जाये ।

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...