मार्च 07, 2013

संविधान , धर्म और स्त्री अधीनता


 वह उसे प्रतिदिन नहीं तो मौके – बेमौके जरूर पीटता है , क्या पहनना है और घर से बाहर कदम नहीं रखना है से लेकर किस रिश्तेदार के यहाँ जाना है किसके यहाँ नहीं यह भी वही तय करता है । फिर भी सीता मौसी को देखा जाये तो सप्ताह के एक दो दिनों को छोडकर हर दिन के स्वामी को जन्म-जन्मांतर तक उसी व्यक्ति को पति बनाने के लिए व्रत रखकर खुश करती रहती है । यदि सचमुच व्रत करने का फल मिल जाए तो यह बात कल्पनातीत नहीं है कि उसे जन्म-जन्मांतर तक कितना कष्ट भोगना है । उसकी पिटाई , उसकी अस्तित्वहीनता और उसे मिलने वाले दुत्कार निरंतर चलते ही रहेंगे उसके खत्म होने की स्थिति बस उतनी ही अवधि की होगी जबतक कि अगले जन्म में उसकी शादी फिर उसी व्यक्ति से नहीं हो जाती । इतना सब होने के बावजूद वह व्रत आदि करके उसी पति को मांग रही है । हम तमाम आर्थिक आत्मनिर्भरता की कमी को इसका कारण बता दें पर यह समुचित कारण बनकर उभर नहीं पाता । पति की लंबी उम्र के लिए करवाचौथ आदि तमाम तरह के व्रत वे भी पूरे होशो-हवश में करती हैं जो विश्वविद्यालयों में वरिष्ठ प्राध्यापकों तक पहुँच गयी हैं । इस तरह से सीता मौसी अकेली स्त्री नहीं है उनके ही ससुराल में बहुत सी अन्य स्त्रीयां हैं जो अपने पतियों से पिटती हैं । इस तरह से उसे या उस जैसी अन्य स्त्रियों को अपनी दशा अनोखी नहीं लगती । फिर कोई वजह ही नहीं बंता कि , पति को इसका कारण माना जाए । पति तो बस माध्यम है उनका तो भागे ( भाग्य ही ) खराब है
                दिल्ली में हमारी गली में रात के 11 बजे के बाद प्रतिदिन चीख पुकार होती थी (आज भी होती होगी) फिर गली में भाग-दौड़ होती कोई भाग रहा होता और कुछ कदम उसके पीछे दौड़ रहे होते । एक दिन गेट खोलकर देखा तो एक सिपाही जो शायद तभी तभी ड्यूटी से वापस आया था वह बानियान और खाकी पेंट में एक कमजोर सी दिखने वाली औरत को पीट रहा था , उसका बच्चा उसके पैरों से चिपका जा रहा था । जल्द ही हमारी मकान मालकिन ने गेट बंद केआर वापस आने का आदेश दे दिया । बाद में उनहोने ही बताया कि वह व्यक्ति दिल्ली पुलिस में सिपाही है इसलिए कोई उससे नहीं उलझता । मैंने भी कुछ नहीं किया अलबत्ता दिल्ली महिला आयोग को लिखा जरूर और हम सब गली वालों की तरह उसने भी कुछ नहीं किया । एक दिन उस स्त्री को भी गली भर की सुहागिनों के साथ बैठकर सुहाग के लिए कोई पूजा करते हुए देखा वो भी भारी मेक-अप के साथ ।
                यह बहुत ही रोचक सी दशा हुई कि जिसके हाथों रोज़मर्रा की मौत मिले उसकी ही लंबी आयु और उसे ही बार बार पाने की प्रार्थना की जाए । इसके पीछे समाज में नए सदस्यों के होने वाले प्रशिक्षण कुछ मदद करते प्रतीत होते हैं । लड़कियों को बचपन से ही इस तरह से सिखाया जाता है कि आगे चलकर सबकुछ बड़े स्वाभाविक ढंग से झेलने लगती है । उनकी तैयारी ही इस तरह कारवाई जाती है कि वह अन्तः एक दोयम दर्जे के नागरिक के हैसियत तक पहुँच जाती है । इस संबंध में लीला दुबे का लेख पितृवंशीय भारत में हिन्दू लड़कियों का सामाजीकरण देश भर में इस तरह के प्रशिक्षणों की सूचना देता है जो स्त्री को स्त्री बनाए रखने में आगे मदद करते हैं ।
प्राचीन भारतीय लेखन और धार्मिक साहित्य मिलकर स्त्री की असपष्ट और भ्रामक तस्वीर बना देते हैं फिर स्त्री को जीवन पर्यंत इसी उलझे स्वरूप में रखकर उसके साथ व्यवहार किए जाते हैं । एक तरफ तो यह कहा जाता है कि शास्त्रों में उसे देवी कहा गया है । वो देवी प्रसन्न होने पर किसी की भी इच्छा पूरी कर सकती है और यदि क्रोधित हो गयी तो भयानक विनाश ल सकती है जो केवल एक के विनाश तक सीमित नहीं है बल्कि समूहिक विनाश भी कर सकती है । तात्पर्य यह कि वह बहुत शक्तिशाली है । परंतु अगले ही लेखन में यह छवि बनाई जाती है कि उसका मन स्थिर नही रहता , वह मुक्ति या निर्वाण के रास्ते से भटकाने का कार्य करती है । अपरिपक्वता और लालच आदि उसमें कूट कूट कर भरे होते हैं । मेरे घर में स्त्रियों पर होने वाली बातचीत के समय मेरे पिता सहज ही शास्त्रीय मुद्रा धरण कर लेते हैं और शास्त्र से एक श्लोक कह उठते हैं-
              त्रिया चरित्रम पुरुशस्य भाग्यम
              देवो न जानती कुतो मनुष्यम     ।
और यदि किसी स्त्री से खुश हो गए तो –
               खन देवी नागिन
               खन अनुरागिन
               खन खन कन्याकुमारी   ।
इन दोनों तरह की छवियों को स्पष्ट ही स्त्रियों ने स्वयं नहीं गढ़ा अर्थात स्वयं अपने लिए नहीं लिखा । ऐसे समाज में जहां उन पर तमाम प्रतिबंध हों वहाँ उनकी शिक्षा दीक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती तो उनके लेखन को स्वीकार कर लेने की बात तो बहुत दूर है । यह सब उसके ऊपर एक तरह की श्रेष्ठता के अहंकार में लिखा गया है और लंबे समय तक दूरियाँ तय करते हुए सामाजीकरण दर सामाजीकरण यह आज के स्वरूप तक पहुंचा है ।
   लंबे समय से चूंकि कथित तौर पर स्त्री को हीं लिंग का माना जाता रहा है अतः उसे बहुत से अधिकारों और विशेषाधिकारों से वंचित रखने की परंपरा रही जिन अधिकारों और विशेषाधिकारों को पुरुषों का माना गया । इसी ने उन्हें पुरुषों के अधीन रखने की सैद्धांतिकी का निर्माण किया जहां कोई भी पुरुष योग्य से योग्य पत्नी के अस्तित्व को अपने से नीचे ही मानता है ।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह अधीनता मुख्य रूप से बहुसंख्यक हिंदुओं में है लेकिन यह यहाँ के इस्लाम और इसाइयों में भी देखे जा सकते हैं । एक तरह से स्त्री अधीनता की यह स्थिति भारत भर का सच है जिसमें धर्म का बहुत बड़ा योगदान है । भारतीय संविधान यह घोषित तो कर देता है कि कानून के सामने स्त्री और पुरुष दोनों समान हैं पर वह अपनी ही एक व्यवस्था से पुनः बांध जाता है और समानता संबंधी जो बात स्त्रियों के जीवन में आमूल परिवर्तन ला सकती थी वह प्रभावहीन होकर रह जाती है । संविधान में व्यक्ति को अपना धर्म मानने और उसके अनुसार आचरण करने की स्वतंत्रता है यही स्वतन्त्रता स्त्रियों के लिए घातक हो जाती है क्योंकि भारत में परिवार और वैयक्तिक कानून में धर्म का ही बोलबाला है । यहाँ धर्म स्त्रियों को यह अधिकार नहीं देता कि वह विवाह के बाद कहाँ पर रहेगी यह तय है कि वह पिता का घर छोडकर पति के घर आएगी इस लिए उसे बचपन से तैयार किया जाता है । फिर माइका उसे उसके भावी जीवन के लिए तैयार करता है । धर्म की व्याख्या समय समय पर बदलती रहती है जो अपने आप में आए कट्टर पंथी तत्वों के हिसाब से स्त्रियों पर तमाम तरह की पाबन्दियाँ लगाने का कार्य करती है ।
       सीता मौसी का ससुराल या कि भारत का कोई अन्य स्थान धर्म के चंगुल से मुक्त नहीं है अतः उन पर धर्म के अधीन आचरण करने का दबाव लगातार बना ही रहेगा । और कुछेक स्त्रियों के मुक्त होने को हम बहुत बड़ी उपलबद्धि मान कर बैठ जाएँ तो यह हमारी खुशी है ।   

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