मई 20, 2013

पूर्वोत्तर के बारीक रेशे ब-रास्ता 'यह भी कोई देश है महराज'



लिखने से पहले कई तरह से सोच रहा था कि पूर्वोत्तर और शेष भारत के रिश्ते के लिए किस प्रकार के प्रतीक का प्रयोग किया जाए । एनजेपी के 21 किलोमीटर चौड़े मुर्गे की गरदन जैसे गलियारे के उस पार को किस प्रकार से हम अपना कहने की जुगत भिड़ाते रहते हैं जबकि इस गरदन के ऊपरी हिस्से को एक अलग दुनिया मानने की मनोदशा दोनों ओर ही विद्यमान है । इसमें प्रतीक ही होते हैं जो हमारी मदद कर सकते हैं जैसे कि पूर्वोत्तर हमारे मन का वह हिस्सा है जिसमें झांकना या उतरना कष्टसाध्य और इस कष्ट में न उतारने के अभ्यास में हम इतने माहिर हो चुके हैं कि हम यह मानकर भी नहीं चलते कि यह देश में ही है । इसके देश में होने की बात तब पता चलती है जब चीन का जिक्र आता है । यह तो है विश्व कूटनीति का मनोदशा पर पड़ने वाला प्रभाव । इसके लिए अगला प्रतीक जो सोच रहा था वह यह था कि पूर्वोत्तर समूचे भारत के लिए एक हाथ से निकल चुके बेटे की तरह है जिससे बाप अपने निरीह बुढ़ापे से पार नही पा सकता । प्रतीक खोजने या कि भारत के साथ उसके संबंध जोड़ने की यह कवायद तभी तक एक आकर्षक काम लगता है जबतक कि हम उस इलाके को एक ही इकाई मानकर चलते हैं । यह इकाई मानने की प्रक्रिया बड़ी सहज है जिसने अफसरों की रपटों , सरकारी दस्तावेजों और नीतियों और क्रियान्वयन के मध्य आकार लिया होगा और यहाँ तक आते आते इस तरह हो गया कि मंगोलाइड मूल का कोई भी दिख गया तो साधारणतया उसे मणिपुरी मान लिया जाता है । एक प्रवृत्ति नेपाली मानने की भी थी ।

हाल के एक दो सालों में भारतीय समाज के प्रति मेरी रुचि बढ़ी है लिहाजा इसके बारे में जानने के विभिन्न पुस्तकीय स्रोतों का सहारा ले रहा हूँ । समाजशास्त्र की बाइबिल कही जाने वाली किताबें भी भारत के उस भाग पर चंद सरलीकरणों और एक-दो अनूठी बातों को बताने के अतिरिक्त कोई विशेष कार्य नहीं करती । परिणामस्वरूप गंभीर समाजशास्त्रीय बहसों और कक्षीय परिदृश्यों में भारतीय समाज की बात करने पर पूर्वोत्तर का कोई जिक्र नहीं आता । हाँ राजनीति शास्त्र के मित्रों को पूर्वोत्तर से जरूर साबका पड़ता होगा क्योंकि देश की एक सीमा उस ओर भी है और सीमा पर बात करना जरूरी भी है । संभव है बहुत सी किताबें होंगी पर विशुद्ध राजनीतिशास्त्रीय बहस के अलावा कोई गुंजाइश की संभावना प्रतीत नहीं होती ।

अभी एक किताब हाथ लगी वह भी कोई देश है महाराज लेखक हैं अनिल यादव । अंतिका प्रकाशन से छपी इस किताब के कवर पर कुछ आदिवासी लोगों और उनके भाले के चित्र बने हैं और ये आदिवासी गोरे हैं । तीसरी कक्षा खत्म होते-होते सामाजिक विज्ञान की पुस्तक  बिहार गौरव शृंखला की तीसरी पुस्तक खत्म हो जाने पर चौथी कक्षा में मिली हमार भारत पुस्तक में ठीक वैसे ही भालों के चित्र थे जो इस पुस्तक के कवर पर है । सो सहज ही अनुमान किया कि ये पूर्वोत्तर से जुड़ी किताब है । थोड़ी सी अलट-पलट ने पता दिया कि प्रकाशक ने इसे यात्रा वृत्तान्त की श्रेणी में रखकर छापा है । यात्रा – वृत्तान्त हिन्दी में एक विधा के रूप में तो स्वीकृत है पर इसे साहित्य मानने का चलन हिन्दी में तो नहीं है । इस लिहाज से ये विधा एक उपेक्षित सी है जो अब पत्र-पत्रिकाओं में भी न के बराबर स्थान मिलने के कारण मौत की राह देख रहे बीमार जैसी हो गयी है । बहरहाल , वह पुस्तक जो एक यात्रावृत्तान्त है बड़े ही नाटकीय ढंग से अपने में उतारती है और नयी दिल्ली स्टेशन से  ले चलती रहस्यमय इलाके की ओर जिसे हम पूर्वोत्तर के रूप में मानते और जानते आए हैं ।
दो ऐसे बेरोजगार दोस्तों की यात्रा की कमेंटरी जो मानते हैं कि इससे उनके पत्रकारिता के  करियर को किक मिलेगी । इनमें से एक तो अनिल स्वयं हैं दूसरा कभी-कभी संदर्भित शाश्वत । अनिल ने जितना शाश्वत को बाहर आने दिया उतने में वह एक गौण पात्र ही था ।  शुरू ही के कुछ पन्ने इस बात के संकेत दे देते हैं कि लेखक की यह यात्रा उसी तरह की नहीं है ट्रेन में चढ़े और कहीं निकल लिए और जब मन किया वापस आ गए बिना चोट-ओ-खरोंच के ।

मैं बिहार का हूँ और दिल्ली से उस ओर जानेवाली अधिकांश रेलगाडियाँ पूर्वोत्तर के लिए ही हैं और उनमें यात्रा करते हुए उस क्षेत्र के लोगों के बारे में जो किस्से सुनता रहा हूँ उन्हें एक पंक्ति में समेटूँ तो यह कि उधर के लोग खतरनाक होते हैं बात बे-बात खुकरी निकाल कर कचरम-वध करने वाले ।  इस यात्रा वृत्तान्त की शुरुआत भी उसी तरह की कहानियों, चिंताओं और बहुत सी सलाहों से होती है । जिससे पूर्वोत्तर एक खौफ की तरह किताब के आरंभ में आ कर जाम जाता है और अंत तक इस मामले में निराश नहीं करता । ये खौफ जिनका है और जहां इसकी जड़ है उनका एक चरित्र भले ही न हो पर लाभ और राजनीति पर बनी संरचना सबके पनपने में एक सी मदद करती है । चालाकी से इसे संस्कृति से जोड़कर अपने लिए मानव संसाधन और सामाजिक मान्यता जुटाई जाती है । बाहरी लोगों का प्रवेश किसी भी स्थानिक समुदाय के लिए वांछनीय नहीं है लेकिन इसके नाम पर जो लाभ चंद लोग उठाते हैं वह भी तो एक नए प्रकार का संकट है ।
लेखक कभी दावा नही करता कि वे इस इलाके को समझने के लिए गया है और एक बहुत दूर की कौरी हाथ लाएगा । पर उसकी पूर्वोत्तर के सभी राज्यों की यात्रा जिस तरह एक एक परत को हटाती चलती है वह इन अलग अलग नाम वाले स्थानों की बहुत सी बारीकियों से परिचित कराता चलता है । यदि हिंसा बंगाल के पूरब के इलाके की पहचान है तो वहीं वहाँ का प्रकृतिक सौन्दर्य एक स्थायी भाव । बारिश , काली होती गहन हरियाली , दाँत किटकिटाती ठंढ और पहाड़ों से निकलते सूरज की शुरुआती किरणों का पीली नारंगियों पर पड़ना अपने अपने तरह से सम्मोहित करती है । लेकिन यह सम्मोहन वहाँ किसी भी इलाके में बहुत देर नहीं टिकता । हवा में तैरता अपराध और हिंसा इतने सामान्य हैं कि कुछ लोगों के मारे जाने पर भी न सड़क जाम होती , न बाजार बंद होते और न ही कहीं कोई प्रतिक्रिया होती है । लगता है वे भी जीवन का हिस्सा हों । ऊपरी तौर पर यह सामान्य रहने की दशा मन को उद्वेलित करती है पर लेखक की गहरी पैठ जल्द ही इसके कारण को समझा देती है । पूर्वोत्तर की हिंसाओं में ज़्यादातर बाहरी मारे जाते हैं । क्यों इसके पीछे बहुत बड़ी अकादमिक बहस करने की जरूरत यह किताब नहीं रहने देती । यह सारा मामला सीमित संसाधनों के कब्जे से जुड़ा हुआ है । स्थानीय लोग बहुत ज्यादा श्रम में विश्वास नहीं करते सो बहुत से बिहारी और मैनमनसिंघिया मुसलमान मजदूरों के रूप में आए । उनहोंने मेहनत कर के अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली अतः सीमित संसाधनों पर दबाव बढ़ा और इसी ने बाहर के लोगों के प्रति द्वेष की नींव डाली । यह पूर्वोत्तर में चल रही हिंसा की एक सर्वमान्य और सरल व्याख्या है पर यह किताब इस सर्वमान्यता को तोड़ते हुए आगे बढ़ती है । अलग अलग स्थानों पर हिंसा के कारण अलग हैं ।

कुछ स्थानों पर छोटे समूहों का विरोध इसलिए शुरू हुआ क्योंकि उन पर बंगालीकरण नहीं तो आसामियाकरण थोपा गया । विरोधियों का अपहरण , सरकारी कर्मचारियों व व्यापारियों से वफादारी टैक्स की वसूली मुखबीरों की हत्याएँ रूटीन हैं जिन पर ध्यान नहीं दिया जाता । जिन आदिवासियों की आबादी कम है वे नए जातीय गठबंधन बना कर अपनी भाषाओं के लिए मान्यता और अपने स्वायत्त क्षेत्र की मांग कर रहे हैं । रणनीति वही है –बिना हथियार उतहये माँ बच्चे को दूध नहीं पिलाएगी ।

स्थानीयता के प्रति किसी भी समुदाय का आग्रह अपने तरीके का होता है । भारत के मैदानी इलाके में जहां आपसी आवाजही के कारण आपस में बहुत विभाजन नहीं है वहाँ इस बात को समझ पाना कठिन नहीं रह जाता है लेकिन पूर्वोत्तर में जहां कदम कदम पर विभाजन है वहाँ यह जटिलता का सूत्रपात करती है । अकेले नागालैंड में नागा के बहुत से कबीले हैं जो एक दूसरे की भाषा भी नही समझ पाते । यह तो एक उदाहरण है अंदर मामला और जटिल है । इसके बावजूद उनके प्रति हमारी समझ बहुत एकरेखीय ही बनी हुई है । भारत सरकार और उसके अमले हर चीज को एक ही तरीके से डील करने के आदि हैं और यदि इसने काम न किया तो इनका परम विश्वास धन पर है । उनका विश्वास है कि जब सुवधाभोगी हो जाएंगे तो बंदूक उठाकर जंगल में भटकना बंद कर देंगे । कुछ इलाकों में लगभग सभी को कोई न कोई तय रकम सरकारी तौर पर मिलती है । इस ईजी मनी ने भ्रष्टाचार और नशेबाजी , महानगरों जैसी रेव पार्टी को बढ़ावा दिया है ।

इस किताब में ब्योरे बहुत हैं , लेखक ने घूम घूम कर जो भी देखा महसूस किया उसे दर्ज किया है  । चाहे माजुली के सिकुड़ने की बात हो या नगा लोगों द्वारा कुछ भी मारकर खा लेने की बात या फिर बर्मा सीमा में सस्ती वेश्याओं की बात लेखक ने उसने जो भी देखा लिख दिया है । इस हिसाब से यह किताब अनुभवों के समृद्ध भंडार के रूप में सामने आती है जो पूर्वोत्तर संबंधी हमारी बहुत सी मान्यताओं को तोड़ते हैं । हम जींस पहनने वाले और खेती करने वाले बौद्ध संतों की कल्पना तक नहीं कर सकते और महायान बौद्ध के उपासकों का शराब के बदले कोल्ड ड्रिंक अर्पित करने की बात पर हम सहजता से विश्वास नहीं कर सकते । इसके अलावा मुख्य समस्या वहाँ की हिंसा के किसी भी क्षण घट जाने दृश्य । यह किताब एक फिल्म की तरह सबकुछ दिखाती चलती है । हालांकि पूर्वोत्तर पर इस तरह की किताब अँग्रेजी में भी न के बराबर है ऐसे में इसका हिन्दी में होना एक सुखद आश्चर्य है । इससे भारतीय समाज के एक हमेशा से अलग पड़ गए या कर दिए गए क्षेत्र को समझने का मौका मिलता है । इस लिहाज से यह एक जरूरी किताब बनती है । भले ही इसे साहित्य की ही एक विधा में लिखा गया हो पर हिन्दी साहित्य में ऐसी पुस्तकों पर चर्चा करने का चलन नहीं रहा है क्योंकि यह उसकी सामान्य आरामतलबी को तोड़ता है । जानने-समझने के बदले आनंद लेने की प्रवृत्ति ने हिन्दी साहित्य से बहुत सी चीजों को बाहर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है ।

एक अंतिम बात -शिक्षा , स्मजशास्त्र , इतिहास ,राजनीति विज्ञान , मानव भूगोल और साहित्य के अध्ययन में यह पुस्तक एक रिसोर्स बुक हो सकती है और इस तरह के और अध्ययन हों तो हमारी बहुत सी सामान्य मान्यता और शैक्षिक प्रयासों को बदलने की आवश्यकता निश्चित रूप से आएगी । 

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