साल के ये कुछ
महीने ऐसे हैं जब घरों में लगभग एक-सी बात सुनाई देती है – मेडिकल या इंजीनियरिंग
और गलती से कहीं और कुछ सुन लिया तो वो है बिजनेस स्कूल्स के थोड़े से चर्चे !
मार्च में जब परीक्षाएँ खत्म हो जाती हैं और बच्चे के आगे के भविष्य पर विचार शुरू
होता है तो जबतक बच्चा कोई ठिकाना न पा ले तबतक के ये कुछ महीने इन्हीं चर्चाओं में
बीतते हैं । और सुई मेडिकल और इंजीनियरिंग के बीच ही झूलती रहती है । इसी दौरान
अपनी-अपनी क्षेत्रीयता के हिसाब से स्थानीय स्तर पर उपलब्ध अखबार आस-पास की कोचिंग
संस्थानों के विज्ञापनों और विज्ञापन-नुमा समाचारों से भर जाते हैं । ये कैसे और
क्यों किए जाते हैं इस पर ज्यादा बात करने की जरूरत नहीं है बल्कि यह देखना है कि
जिसके लिए यह सब किया जा रहा है वह इसमें कहाँ पर खड़ा है और उसकी अपने आगामी कोर्स
के चयन में क्या भूमिका है !
समान्यतया माँ-बाप और शिक्षक भी बच्चों को
विशेष व्यक्तित्व के बदले उत्पाद समझते हैं जिनकी अपनी योग्यताएँ , झुकाव और
जीवन-दर्शन हो सकते हैं जिनके आधार पर उनके करियर चयन की नींव बनती है । अतः
भविष्य के बारे में उनके अपने विचार , दृष्टिकोण व रुचियाँ
महत्वपूर्ण हो जाते हैं । उन्हें जरूरत है तो बस सलाह और समर्थन की न कि , बाहर से थोपे गए निर्णयों की । माता - पिता के इस प्रकार के व्यवहार की
बहुत सी समाज-आर्थिक व्याख्याएँ हो सकती हैं लेकिन इन व्याख्याओं में उलझने के
बदले बच्चों की स्थिति को समझने की जरूरत
है । करियर के विकल्प के शैक्षिक - सामाजिक पहलू ज़्यादातर मामलों में बच्चों के
लिए विकल्प की स्थिति नहीं रहने देते जिससे उन पर दबाव बढ़ता है जो उनके व्यक्तित्व
को विकसित होने से रोकता है । इसे विद्यालयों, खेल के
मैदानों , सार्वजनिक
और पारिवारिक समारोहों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । विद्यालयों में
ज़्यादातर वे छात्र मुखर पाये जाते हैं जो दसवीं के बाद गणित या जीवविज्ञान नहीं
चुनते हैं । समारोहों चाहे वे पारिवारिक हों या सार्वजनिक गणित और जीव विज्ञान
समूह के छात्र या तो दिखते नहीं या दिखते भी हैं तो बहुत कम देर के लिए । यही हाल
खेल के मैदानों का है । हमारी आदत हो गयी है कि बिना शोध के किसी विषय को समझने के
प्रति हम उदासीन ही रहते हैं जबकि बहुत सी
बातें प्रतिदिन के जनजीवन के माध्यम समझी जा सकती हैं । दसवीं के बाद के दो साल
गणित व जीव-विज्ञान के छात्रों के लिए तैयारी के साल हैं जो उन्हें अपने भविष्य के
लिए तैयार करते हैं । तैयारी करना बुरा नहीं है पर तैयारी के बदले ये बच्चे जीवन
के बहुत सारे अनुभवों से अछूते रह जाते हैं । ये अनुभव उन्हें भावी जीवन के लिए
तैयार करते पर वह समय उन कठिन तैयारियों में चला जाता है ।
इतनी तैयारी के
बाद इन संस्थानों में सभी छात्रों का चयन हो जाए ऐसा भी नहीं होता । बहुत कम छात्र
श्रेष्ठ संस्थानों में दाखिला पाते हैं और जो बच जाते हैं वे क्रमशः गुणात्मक रूप
से निम्न होती जाती संस्थाओं में दाखिला पाते हैं । इंजीनियरिंग और मेडिकल के
क्षेत्र में निजी पूंजी से चलने वाले संस्थानों की बाढ़ आ जाने से इन अनुशासनों में
छात्रों की योग्यता से ध्यान हटकर पूंजी
पर केन्द्रित हो गया है । हाल के वर्षों में भारी मात्रा में छात्र इन अनुशासनों
में दाखिला ले रहे हैं और उत्तीर्ण होकर भी आ रहे हैं । इसके साथ एक पहलू यह भी है
कि जितनी संख्या में छात्र दाखिला ले रहे हैं उतनी संख्या उत्तीर्ण होने के मामले
में नहीं है । एक संस्था मेरिट ट्रेक के अनुसार हमारे विभिन्न विश्वविद्यालयों से
उत्तीर्ण होने वाले बीटेक के मात्र 21 प्रतिशत स्नातकों में पेशागत योग्यताएँ हैं
। यह हमारे संस्थानों की समूची कार्यप्रणाली पर प्रश्न उठाता है । इसी संस्था के
अनुसार मात्र 40 प्रतिशत छात्र ही अंततः कोर्स उत्तीर्ण कर पाते हैं ।
दाखिले की
प्रक्रिया में पूंजी का खेल बहुत गहरे रूप में जुड़ा है । पूंजी के लिए न्यूनतम
अर्हताओं में बहुत ज्यादा ढील देते पाया गया है । कई बार प्रवेश-परीक्षा की
बाध्यता भी हटा दी जाती है ।
इसके बाद मामला
रोजगार पर आ कर टिकता है । जितनी बड़ी संख्या में छात्र में उत्तीर्ण होकर आते हैं
उतनी बड़ी संख्या में न तो सरकारी क्षेत्र और न ही निजी क्षेत्र रोजगार उपलब्ध करवा
पा रहे हैं । हर साल बड़ी संख्या में छात्र या तो बेरोजगारों की श्रेणी दाखिल होते
हैं या नहीं तो अन्य क्षेत्रों की ओर रुख करते हैं । मेडिकल के क्षेत्र में थोड़ी
बहुत गुंजाइश अभी भी बची है क्योंकि देश में अभी भी प्रति-व्यक्ति डॉक्टरों की
संख्या बहुत कम है और इसमें स्वतंत्र रूप से काम कर पाने की भी संभावना बनी रहती
है । हजारों की संख्या में इंजीनियरिंग स्नातक बहुत कम वेतन पर काम कर रहे हैं ।
आर्थिक मोर्चे पर
इतनी बड़ी अनिश्चितता के बावजूद माता पिता का झुकाव इस ओर बना ही हुआ है जो यह
बताता है कि विषय के चयन में निश्चित रूप से केवल आर्थिक कारण जिम्मेदार नहीं है ।
ज़ाहिरा तौर पर समस्या की जड़ कहीं और है । इसके पीछे बीटेक के कोर्स की तथाकथित
श्रेष्ठता और विज्ञान एवं मानविकी विषयों के परंपरागत कोर्स की चमकहीनता कारण हो
सकती है । आम तौर पर ऐसी धारणा बन गयी है कि बीटेक तेज-तर्रार एवं कुशाग्र-बुद्धि
छात्रों के लिए बना है और बाकी कोर्स आलसी
, लिद्दर और भोंदू छात्रों के लिए बने हैं । छात्रों को बहुत आरंभ में ही
श्रेणीबद्ध कर देने की यह प्रवृत्ति विद्यालयों में बहुत आसानी से देखा जा सकता है
। इंजीनियरिंग से तेज-तर्रार छात्र होने का भाव इस कदर जुड़ गया है कि इसने
इंजीनियरिंग के अलावा किसी भी अनुशासन की जन-स्वीकार्यता को खारिज कर दिया है ।
कोर्स के प्रति यह
दृष्टिकोण आज का बना हो ऐसा नहीं है । आरंभ में भारत में सेवाओं को भोगने की आदत
और उसकी लालसा ने इनजीनियरिंग आदि सेवाओं के प्रति आकर्षण पैदा किया । उससे आगे बढ़ते हुए धीरे धीरे इसने इतना
जटिल रूप ग्रहण किया । इस तरह कहीं न कहीं यह गलत अवधारणा घर कर गयी है कि इतिहास , साहित्य , कानून आदि विषय करियर के दृष्टिकोण से बुद्धिमत्तापूर्ण चयन नहीं हैं ।
इसलिए ये विषय समूचे परिदृश्य से बाहर होते जा रहे हैं और जहां भी बरकरार हैं वहाँ
छात्रों की किसी न किसी तरह की मजबूरी जरूर उपस्थित है । इस तरह से संवेदनशीलता , मानवीयता और लोकतान्त्रिक गुणों के विकास संबंधी शिक्षा की मुख्य भूमिका
ही धीरे धीरे सीमित होती जा रही है ; बहुधा इन्हें
अप्रासंगिक माने जाने के उदाहरण भी मिलते रहे हैं ।
ऐसा नहीं है कि
इंजीनियरिंग या मेडिकल के प्रति यह झुकाव केवल मानवीकी विषयों की कीमत पर हो बल्कि
उच्च शिक्षा में विज्ञान विषयों की भी वही गाथा है । विज्ञान विषयों के परंपरागत
कोर्स बहुत तेजी से आलोकप्रिय हो रहे हैं । उच्च शिक्षा पर फिक्की की साल 2009 की
एक रिपोर्ट के मुताबिक हाल के वर्षों में इंजीनियरिंग विकल्प छात्रों के बीच काफी
लोकप्रिय होकर उभरा है । सत्र 2003-04 के
दौरान इसने कुल नामांकन का सत्तर फीसदी भार ग्रहण किया । यह रिपोर्ट एक और खुलासा
करती है कि उसी सत्र में मात्र 10 प्रतिशत छात्रों ने अन्य विषयों में नामांकन
कराया । शेष 20 फीसदी छात्रों ने मेडिकल चुना । विषयों के चयन की दृष्टि से ये
आंकड़े बहुत जरूरी सूचना देते हैं । अन्य के अंतर्गत मानविकी और विज्ञान और वाणिज्य
विषयों के परंपरागत पाठ्यक्रम आते हैं ।
ऐसा नहीं है कि
बड़ी मात्रा में इंजीनियरिंग में छात्रों के जाने से आ जाने से विज्ञान विषयक शोध
में मात्रात्मक या गुणात्मक वृद्धि हुई हो । इस संबंध में नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ
एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन (न्यूपा) दिल्ली द्वारा आयोजित एक
व्याख्यान में वरिष्ठ वैज्ञानिक, सी एन आर राव ने भारत में
विज्ञान आधारित शोधों पर चिंता जताते हुए कहते हैं कि समग्र रूप से विज्ञान के शोध
में हम पिछड़े हुए हैं ही उनमें से रसायन और इंजीनियरिंग की हालत और खराब है ।
वैश्विक शोध पत्रिकाओं में जमा कराये गए और छपने के लिए चयनित शोध के आंकड़ों को
रखते हुए उन्होने भारत की वैज्ञानिक स्थिति को कुछ इस तरह व्यक्त किया ‘यदि भारत से 40 वैज्ञानिक निकाल लिए जाएँ तो इसका वैज्ञानिक प्रदर्शन
शून्य रह जाएगा’ । यह स्थिति तो है उस विज्ञान की जिसके
छात्रों को आम तौर पर तेज कुशाग्र बुद्धि का और क्रीम की संज्ञा तक दी जाती है ।
राव के अनुसार इंजीनियरिंग के शोध की दशा दयनीय है । वे इसकी जड़ आर्थिक बताते हैं ‘बहुत छोटी उम्र में लोग मोटी रकम पाने लगते हैं इसने भारत में शिक्षा के
प्रयोजनों को ध्वस्त कर दिया है’ ।
यह विषयों के रोजगार से जुड़ जाने की ओर संकेत
करता है । ऐसा होना गलत नहीं है परंतु इन क्षेत्रों में छात्रों की इतनी आमद और
सरकारी एवं निजी क्षेत्र में रोजगार की सीमित उपलब्धता ने नए तरह का संकट खड़ा कर
दिया है । इंजीनियरिंग पूरी कर के भारी मात्रा में छात्र रोजगार के लिए जूझ रहे
हैं । इसके बावजूद फिक्की जैसी संस्थाएं इस क्षेत्र को शिक्षा उद्योग के विकास के
तौर पर देख रही है । उसका मानना है कि ये हालात तब हैं जब बहुत से राज्यों में
निजी पूंजी से संचालित संस्थानों की शुरुआत भी नहीं हुई है इसमें अभी बहुत प्रगति
की गुंजाइश है ।
शिक्षा के इस
व्यवसायिकरण ने कुछ विषयों के लिए खतरा पैदा कर दिया है । केंद्र सरकार के मॉडल
विद्यालयों में 10
वीं के बाद बहुत से विद्यालयों में मानविकी के विषय कुछ जैसे इतिहास
,भूगोल, राजनीतिशास्त्र आदि हैं ही
नहीं । इसके प्रमाण के रूप में केंद्रीय व नवोदय विद्यालयों में राजनीतिशास्त्र
में पीजीटी स्तर के शिक्षकों की व्यवस्था ही नहीं होने को देखा जा सकता है । जो
छात्र विज्ञान विषयों के लायक नहीं रह जाते उन्हें वाणिज्य की कक्षा में डाल दिया
जाता है । विषयों से संबन्धित मानसिकता को विद्यालय स्तर पर ही बहुत गहरे रूप में
समझा जा सकता है जहां विज्ञान विषय के छात्र न सिर्फ स्वयं बल्कि विद्यालय प्रशासन
द्वारा भी मुख्य संसाधन मान लिए जाते हैं । इसके इतर विषय के छात्रों को उनके विषय
के आधार पर स्वाभाविक रूप से कम महत्वपूर्ण मान लिया जाता है । हेय मानने की यह
स्थिति यहीं नहीं रुकती बल्कि समाज और परिवार में भी उसी रूप में चली आती है ।
यहाँ यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि निजी पूंजी से संचालित विद्यालयों
में दशा इससे इतर नहीं है ।
विषय चयन में लिंग
और लिंग आधारित जोखिम की भूमिका चिंता के स्तर तक है । दिल्ली में दसवीं कक्षा के
छात्रों पर किए गए सर्वेक्षण में यह बात उभर कर आयी कि 80% छात्रों ने भविष्य के
लिए इंजीनियरिंग का विकल्प चुना । वहीं लड़कियों 95% लड़कियों ने मेडिकल का क्षेत्र
चुना । यह लिंग आधारित चयन समाज की उस मान्यता के अनुरूप ही है जिसमें लड़कियों के
लिए रोजगार के विभिन्न क्षेत्र न सिर्फ असुरक्षित बल्कि त्याज्य माने जाते रहे हैं
। इसके बहुत से संकेत हैं , जरूरत उन्हें पहचानकर निम्न स्तर
से काम करने की है ।
इन सब में यदि
किसी का पक्ष छूट रहा है तो वह है ऐसे छात्र जो वंचित वर्गों से आते हैं । भारत
में इनकी संख्या सबसे ज्यादा है । इन छात्रों के लिए विषय चयन जैसा विकल्प रह ही
नहीं जाता । प्रतिभाशाली होने और तथाकथित क्रीम से बेहतर या बराबर होने पर भी
निरंतर मंहगी होती जा रही शिक्षा के कारण बिना कुछ विचार किए परंपरागत कोर्स की ओर
रुख कर लेते हैं । इनमें से कुछ अद्वितीय योग्यता वाले ही सरकारी या गैर सरकारी
सहायता और उपकारों के सहारे मेडिकल या इंजीनियरिंग में दाखिला ले पाते हैं ।
अब प्रश्न ये उठता है कि इसके बाद क्या विकल्प
रहता है । विषय-चयन का ये मामला जितना व्यक्तिगत समझ आता है उतना है नहीं । यह
अपने पीछे एक पूरी परंपरा लेकर आ रहा है जो लगातार प्रयोग में आते-आते लगभग रूढ
होने के कगार पर है । अब जरूरत इस परंपरा के भीतर कुछ प्रश्न उठाने की है जिसे
निश्चित तौर पर समूहिक रूप से समझना होगा । मुद्दा यह है कि क्या हमें केवल
इंजीनियरों या डॉक्टरों की आवश्यकता है ? देश में इन पेशेवरों की तरह
ही बहुत से अन्य पेशेवरों की भी आवश्यकता है । ये पेशेवर वकील , शिक्षक, पत्रकार , किसान , व्यवसायी , इंटरप्रेनयोर हो सकते हैं । यहाँ एक बात
जो रेखांकित करनी जरूरी है वह यह कि
व्यवसाय के प्रति हमारे दृष्टिकोण में बलाव । भारत में बहुत से व्यवसायों को उचित
नजरों से देखने की जरूरत है । श्रम के प्रति सम्मान के अभाव ने बहुत से व्यवसायों
को ध्यान देने लायक भी नहीं रहने दिया है । इसके बाद देश को कवि , लेखक ,समीक्षक , चित्रकार , छायाचित्रकार, गायक , वक्ता, फिल्म निर्देशक , राजनेता आदि की आवश्यकता है । अब
उस परंपरागत सोच के बीच नए विचारों को उठाने का समय है । जिसमें माता-पिता, और सरकार को अपनी तरफ से पहल करने की जरूरत है । सरकार द्वारा विद्यालयों
और उससे ऊपर के स्तर पर छात्रों में अन्य सेवाओं और कलाओं की ओर रुझान बढ़ाने के
लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता है । साथ ही वह इन क्षेत्रों में रोजगार सृजित करने
का प्रयास करे । कृषि के क्षेत्र में विकास की संभावनाओं को देखते हुए इसमें उच्च
शिक्षा और शोध को प्रत्साहित किया जाना चाहिए । फिर इंजीनियरिंग के सरकारी व निजी
सभी तरह के संस्थानों को सहकारिता आधारित उद्योगों से जोड़ कर इस क्षेत्र में पैदा
हुए रोजगार संकट को कम किया जा सकता है ।
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