मई 30, 2013

दिल्ली वाया लिमिटेड बस !


बस में बैठने के बाद भी वही सब नजर आ रहा था ... दो चार बसों और कुछ तिपहियों को छोडकर करें ही कारें थी । आपको जहां जाना हो और आप जहां खड़े हों उसके लिए सीधी बस मिल जाए तो कितनी खुशी होगी इसका अंदाजा यह सोचते हुए लगाइए कि इस रूट कोई अन्य बस सेवा उपलब्ध नहीं है सिवाय इस अचानक आ गए लिमिटेड बस के । कुछ गजब के भाग्यशाली मन से बस में बैठ गया और साथ बैठी सवारी को ये जता भी दिया । पर वो तो बस के जाम से निकालने का इंतजार कर रही थी । अगले 15 मिनट तक गाड़ी वहीं खड़ी रही थी । आगे भी बढ़ी हो पर उसके आगे बढ्ने का अंदाज कुछ यूं था कि पता ही न चला दूसरे वह वातावरण भी तो बना ही हुआ था । कारें और कारें , कारों के पीछे के शीशे से झाँकते और कभी कभी असली से लगते कुत्ते के प्रारूप और पीछे दूर तक कारों की कतारें सब तो बने ही हुए थे । अब हर कदम पर जाम खतम करने के लिए फ्लाईओवर तो नहीं बनाया जा सकता न ! आखिर उसकी भी तो लिमिट है ।

हमारी बस आगे बढ़ी तो पड़ोसी सवारी को तसल्ली कुछ फैलने की कोशिश में वो हिली कि मेरे अपना अधिकार छिनता दिखा । फट से एक एक जिरह जो मेरे आस पास ही बनी रहती है हमारे बीच आकर बैठ गयी । कान में फोन की लीड ठूँसते हुए मैंने जिरह को धकिया दिया । वो गिरी होगी उधर !  दायीं ओर के बस स्टॉप पर दिल्ली सरकार की बड़ी बड़ी आत्म प्रशंसाएं चमक रही थी । कुछ ही सालों में प्रति व्यक्ति आय कई गुना बढ़ गयी , यहाँ विकास दिखता है वगैरह ! पर भैया दक्षिणी दिल्ली में विकास दिख ही जाता है तो कौन सी नयी बात है आखिर हर शहर में कुछ तो ऐसे कोने होते ही हैं जो चमकते रहते हैं । कभी ये बातें बाहरी दिल्ली या कि जमना पार में जा के कहो फिर बताना कि कितने होर्डिंग बचे हैं इन बातों को चमकाने के । जमना पार से याद आया अब के दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के चुनावों का तो नहीं पता पर एक समय में जमना पार के बारे में कहा जाता था –आर पार , आर पार / सारी गंदगी जमना पार । आज भी हालत तो नहीं बदले हैं जा के देखना कभी पुरानी सीमापुरी या शाहदरा सीलमपुर के इलाकों में फिर कहना यहाँ विकास दिखता है ।

धौलकुआं के पास का अजीब सा सौंदर्यबोध किसका है ये समझ नहीं आता । धातु के गोल गोल सिर किसी झाड़ी की डंडी पर टिके से हैं । पर भला हो उस व्यक्ति का जिसने उन धातु के सिरों के नीचे घास की एक चादर बिछाने का हुक्म दिया ! कम से कम उनके लिए जो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में जगह नहीं पा पाते हैं या जगह पाने की उम्मीद में आते हैं ये जगह बड़ा आश्रय है । नहीं तो हाथ में पेशाब की थैली टाँगे मेट्रो के गेट सामने बैठे लोगों को सीआरपीएफ वाले तो भागते ही रहते हैं । कितना बड़ा नाम है न इस अस्पताल का ! इन बड़े बड़े नामों से यह संदेश दिया जाता है कि यह अपनी प्रकृति में भी विशाल और व्यापक होगा जहां सब बड़ी आसानी और सहूलियत से जगह पा जाते होंगे । पर किसी का अनुभव ऐसा क्यों नहीं होता कि इन बड़े नाम वाले अस्पतालों का बड़प्पन झलके । हाँ यहाँ ये बहाना नहीं चल सकता कि बहुत से लोग आते हैं और सुविधाएं कम हैं । हमने कभी व्यवस्था और सुविधाओं को बढ़ाने की कोशिश नहीं की है बस बड़ी आबादी के बहाने बनाए हैं । एक तो वैसे ही बहुत कम अस्पताल हैं और जो हैं वो अलग ही व्यवस्था में चल रहे हैं जहां कु-व्यवस्था ही व्यवस्था बनी हुई है । जो बीमारी अफोर्ड कर सकते हैं वे तो कभी सरकारी अस्पतालों की बात करते ही नहीं और यदि पास से गुजरना हुआ तो हाऊ डिस्गस्टिंग कह कर निकल जाते हैं । उनको दोष दिया भी नहीं जा सकता क्योंकि ये मासूमियत उन पर फबती है और हम इसे फबने देते हैं ।

बहरहाल बस सफदरजंग हवाईपट्टी के पास से गुजर रही थी । फ्लाईओवर के ऊपर से बायीं ओर लग रहा था कि सूरज अपनी लैंडिंग के लिए सिग्नल का इंतजार कर रहा हो । कितना अच्छा विकसित इलाकों में गर्मी की शाम का सूरज देखना विकास के एक और नमूने सा लगता है । मन करे तो शास्त्री पार्क की झुग्गी के ऊपर से कभी सूरज देखिए या फिर जहांगीरपुरी की जे जे कालोनी से इतना अजीब लगेगा कि बहुत दिनों तक सूरज से उबकाई आएगी । चमकता सूरज चमकती सड़क और बढ़िया बढ़िया घरों में बने सरकारी कार्यालय क्या मजेदार जगहें होती होंगी ! मैं एक बार भी मजा लेने की कोशिश करूँ तो हजार तरह के सवाल होंगे और फिर भी दरवाजे से ही टरका दिया जाऊंगा । अब मखमल में टाट का पैबंद तो फिट नहीं हो सकता न ।

अरे वाह ! बस सफदरजंग मकबरे के पास से भी गुजरी ! ये मकबरा तो स्वर्ग है ऐसे प्रेमी युगलों का जिनके पास प्यार है पर चूमा-चाटी की जगह नहीं । फिर और मन डोला तो आगे बढ़ लो लोधी गार्डेन । एक बार मैं और मेरा एक दोस्त दोनों देखने गए कि आखिर ये जो इतनी प्रशंसा चहुं ओर इसकी होती है वो कितनी सच है । उस अनुभव के बाद कह सकता हूँ कि भैया हजार फ़ीसदी सच है ये कहावतें । कोई झाड़-झाँखर नहीं तो कोई शर्म भी नहीं । एक जोड़े के पीछे ही दूसरा जोड़ा होठों से होंठ चिपकाए । जहां कहीं कोई आगे बढ़े कि गार्ड की सीटी बजी फिर भी लोग न माने तो गार्ड पास आ कर सीटी बाजा दें । गार्ड से ज्यादा तो आप बेशर्म हो ही नहीं सकते न । हाँ लोधी गार्डेन में थोड़ी आजादी दिखी वहाँ कोई गार्ड सीटी नहीं बजता अलबत्ता मैं और मेरे दोस्त जैसे ताक झांक के महारथी लोग इधर उधर से प्रकट हो जाएँ तो कोई आश्चर्य नहीं । जब तक कुछ दिल्ली के मध्यवर्गीय लोगों से दोस्ती नहीं हुई थी तब मैं इसे ही प्रेम का उन्मुक्त प्रदर्शन मानता था । फिर उनसे जब बातें हुई तो इन दोनों जगहों के बारे में एक ही बात सुनने में मिली –वहाँ बहुत डाउन-मार्केट क्राउड आता है । बाद में उत्तर आधुनिकता पढ़ते हुए डाउन मार्केट टर्म को समझ पाया ।

यूपीएससी की इमारत न दिखो भई । अपने चयनित न होने की बात तो जाने दो किसी ऐसे करीबी का भी चयन न हो पाया न जिस के दम से इतराया जा सके कहीं भी धौंस जमाई जा सके । जो पास के लोग चयनित हुए उनसे अपने संबंध कुछ महीने पहले से ही खराब हो गए ।  काश कि कभी परिणाम पर मेरा भी नाम चिपकता , काश कि साक्षात्कार में मैं भी कह के आता के मैं देश सेवा के लिए इस सेवा में जाना चाहता हूँ , काश कि इस सेवा के माध्यम से भयंकर मात्रा में पैसा बनाने की बात मेरे किसी भी जवाब से वे सूंघ न पाते । कोचिंग वालों की दी हुई कार घर भेज देता , और एक बार किसी पत्रिका का नाम लेने के लिए उससे कितने रूपय लेता कई लाख और मोटे टायर वाली गाड़ी दुल्हन ही दहेज है के साथ पाता ... कई बार ऐसा सोचने से हो थोड़े ही जाता है । बेटा मेहनत तो सभी करते हैं तुमने भी की होगी । सब कुत्ते काशी जायेंगे तो गाँव में पत्तल कौन चाटेगा भई !

इंडिया गेट राष्ट्रीय पिकनिक सह-सुस्ताने सह-ऑफिस में काम करने के बदले बाहर टाइम काटने की जगह है वहाँ से गुजरते हुए भी सुस्ती आती है । माहौल ही सुस्त होता है वहाँ का ।
इधर आईटीओ आया तो मेरे बगल की सवारी उतर गयी । तिलक ब्रिज स्टेशन के लिए दौड़ते हुए उसे देखना एक अलग अनुभव रहा वह बुजुर्ग इस उम्र में भी इतनी दूर काम करके वापस लौट जाने की हिम्मत कर लेता है । इधर आईटीओ बहुत बदल गया है । बल्कि बदल  रहा है । गाड़ियों के रास्ते बदले गए हैं , दिल्ली गेट की ओर जाने वाली सड़क कभी साँय साँय गुजरती गाड़ियों के लिए जानी जाती थी वो अब एक पार्किंग की शक्ल ले चुकी है । एक होता है विकास का स्टीरियोटाइप । आईटीओ के चौराहे की मस्जिद को भी विकसित दिल्ली की शक्ल दी जा रही है । ये वही शक्ल ले रही है जो दिल्ली के विज्ञापनों पर पुरानी दिल्ली के लिए छपी रहती है । धर्म पर विकास की छाप ।

इधर फिरोज़शाह कोटला और अंबेडकर स्टेडियम बड़ी जल्दी गुजरे । कोशिश की अनुमान लगाने की कि कहाँ बैठा था उस दिन मैच देखते हुए । बस अनुमान ही कर पाया । क्रिकेट अपना एक कतरा भी मुफ्त में देखने नहीं दे सकता । अंबेडकर स्टेडियम बस अड्डे के पास एक मुस्लिम जोड़ा खड़ा था बार-बार फोन मिलाता परेशान सा । देर हो रही होगी शायद लाहौर से आ रहे यात्री को और विदेश में मोबाइल चल भी नहीं रहा होगा उसमें भी भारत जैसे देश में जो एक दुश्मन देश की हर खूबी रखता है ।

राजघाट पर चहल पहल बढ़ी हुई मालूम हुई । सूरज बाबू जा चुके थे अब मखमली घास पर शाम को पापड़ कुतरने का आनंद कौन छोड़ दे ... ऊपर से यहाँ इंडिया गेट वाली भीड़ भी तो नहीं रहती । कई बार लगता है कि एक आदमी जो बहुत कम कपड़ा केवल इसलिए पहनता था कि देश के लोगों के पास वो भी पहनने को नहीं था फिर उसी आदमी की समाधि के लिए इतना बड़ा जमीन का टुकड़ा उसके विचारों के साथ अन्याय है । उस जगह पर कई विद्यालय खोले जा सकते थे । क्या सही कहा है निदा फाजली ने अपने इस दोहे में –

                                बच्चा बोला देख कर मस्जिद आलीशान
                                 अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान !

इधर निगमबोध घाट की हवा में लाशों के जलने की गंध नाक में आ रही थी । उसके साथ ही मुझे अपनी उस बीमारी का खयाल आया जिसमे किसी शमशान घाट से गुजरते हुए लगता है कि लाशों की राख उड़ रही है और मेरी देह पर परत दर परत जमती जा रही है । मेंने होठों पर जीभ फिरायी जीभ के साथ को धूल के कण मुंह में गए उनमें लाश जैसा कुछ लगा ।
बस अड्डे तक आते आते एक फोन आ गया । बातों ही बातों में मैंने बता दिया कि एक बड़ी सी गाड़ी में एक वयस्क जोड़े के साथ कम से कम 6 बच्चे जा रहे हैं । दूसरी ओर से छूटते ही जवाब आया – मुस्लिम फॅमिली होगी । रूढ़ियाँ बहुत गहरी हैं सप्रयास ही बच रहे हैं लोग इनसे । अनायास तो वही निकलता है जो मन में गहरे बैठा है ।


मजनू टीला पार करते ही सड़कों पर भीड़ दिखने लगी और वजीराबाद का पुल पार करने के बाद तो गाडियाँ कम और साइकिल , पैदल ज्यादा दिखने लगे रोज की तरह । बिना किसी शिकवे शिकयात के चली जा रही ये बड़ी आबादी न जाने कितनी दूर से काम खत्म कर वापस लौट रही है । इनमें से बहुतों के काम करने की जगह पर ओवरटाइम नहीं लगता होगा और यदि लगता होगा तो ठेकेदार के चहेतों के हिस्से में आया होगा । इधर बस-स्टॉप पर कोई बड़ी बड़ी बात नहीं लिखी कोई बड़ा दावा नहीं किया गया है । बल्कि जो बस-स्टॉप सरकारी दावों की गवाही बनते वे ही विकास की पोल खोल रहे हैं मनुष्यों की बात तो जाने दें । इस मामले में उनका यह दावा स्वीकार कर लेने का मन करता है कि सबके लिए अच्छी व्यवस्था नहीं की जा सकती । वो तो कुछ खास दिल्ली को ही मिलेगी । इधर तो किसी चौराहे पर साइकिल से भी जाम लग सकता है । 

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