सितंबर 15, 2013

असंतोष से आगे


पिछले कुछ दिनों की भाग-दौड़ अब थम चुकी थी । बाहर से बस कितनी भी तेज चलती हुई दिख रही हो लेकिन भीतर अब शांति गहरा चुकी थी । छात्र - छात्राओं के नृत्य का उत्साह भी कब का ठंढा पर चुका था और अंदर की हल्की रोशनी में नींद में उनकी गरदनों के इधर से उधर लुढ़कने 
पर ही पता चलता था कि बस के भीतर भी गति जैसी कोई चीज है ।

हम क्षेत्रीय खेलों के लिए छात्र-छात्राओं का दल लेकर जा रहे थे । उस दल में अलग अलग विद्यालयों से आए हुए छात्रों को शामिल किया गया था और लगभग इसी तरह शिक्षक भी जुटाये गए थे । पहले की तरह उस दिन भी लगा कि जड़त्व का नियम और न्यूटन के गति का पहला नियम वस्तुओं के साथ साथ मेरे जैसे मनुष्यों पर भी लगता है जो एक स्थान पर टिक जाने के बाद अपने स्थान से इंच भर भी हिलना नहीं चाहते जब तक कि उन पर बाहरी दबाव न हो । जीतने शिक्षक थे सभी इसी नियम के उदाहरण थे और एक तो ऐसी भी रहीं जिनको  बाहरी दबाव में आना तो पड़ा लेकिन उनका गुस्सा और नखरा देख कर किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि उन्हें कोई ज़िम्मेदारी लेने के लिए कहने की हिम्मत करे ! और उनकी ही एक परिचित भी मिली लगातार सोने वाली ! कुल मिलाकर यदि देखा जाये तो जितनी देर बस चली उतनी देर उनकी नींद भी एक दूसरे को बराबर मात्र में संक्रमित करते हुए जारी रही ।

उन दोनों के अलावा तीन लोग और थे । इत्तिफाक़ से हम तीनों पुरुष थे और इस विद्यालयी व्यवस्था के रंगरूट भी सो कुछ उत्साह और कुछ ज़िम्मेदारी ने मिलकर हमें नींद जैसा महसूस नहीं करने दिया । बहुधा चार-पाँच झपकियों और एकाध घंटे की दो-एक झटकेदार नींद के सहारे उस रात में हम बढ़ रहे थे । कई बार न उठने का मन होने पर भी उठकर पीछे देखना पड़ता था कि पीछे बैठे लड़के लड़कियों के करीब तो नहीं आ गए । हमारा हाल नमक का दारोगा कहानी के पंडित अलोपीदीन जैसा हो रहा था जो अपनी टप्पर-गाड़ी में कुछ सोते, कुछ जागते चल रहे थे उस रात !
यूं तो हमें इसकी आशंका आंध्रप्रदेश जाने की सूचना मिलने के समय से ही थी पर ऊपर से बार – बार यह आश्वासन दिया गया था कि , जहां जाना है वह तेलंगाना है आंध्र नहीं ! तेलंगाना शांत है और आंध्र अशांत इसलिए इन खेलों को आंध्र से हटकर तेलंगाना के विद्यालयों में स्थानांतरित किया गया है । ऊपर वालों का तर्क एक बेफिक्री तो दे ही रहा था । लेकिन जब रात के दस बजे के करीब हम तमिलनाडु में खाने के लिए रुके तो वहाँ के लोगों और चालकों ने जो बताया उसने उस आशंका को डर में तब्दील कर दिया । उन्होने हमें रस्ता बदलकर कर्नाटक का लंबा चक्कर लगा कर सीधे तेलंगाना के उस क्षेत्र में जाने की सलाह दी । फिर हमारी असमर्थता और विवशता को भाँप कर सुबह होने से पहले ही आंध्रप्रदेश के अशांत क्षेत्र से निकल जाने की दूसरी सलाह दी । जल्दी जल्दी ठूंस-ठांस कर बस में बैठे और बस तेजी से चलने लगी । हालांकि बस की गति बहुत तेज थी लेकिन यात्रा के बचे हुए किलोमीटर को सुबह होने में बचे समय में नाप जाने की कोई सूरत बन ही नहीं रही थी और हम सभी जानते थे कि हमारा ड्राइवर हॉलीवुड बॉलीवुड तो जाने दीजिये स्थानीय मालीवुड का भी कोई सुपरमैन होता तभी यह संभव हो पाता ।

खाना खाते ही शिक्षिकाएँ सो गयी और हम तीन शिक्षक आगे की दशा और शायद आशंका की मन ही मन कल्पना करते हुए बैठ गए । और बच्चे सभी इन सबसे बेखबर गज़ब चहक रहे थे । किसी ने गाना बजाने का आग्रह किया । उसे हमने भी इसी लिए माना कि चलो इसी बहाने उस अशांत आंध्र से तो सबका ध्यान हटे । गाने बदलते रहे , बच्चों का नृत्य होता रहा गानों की लय के अनुरूप बदल-बदलकर ! उनका नृत्य शुरू होते ही शिक्षिकाएँ कुनमुना कर तो उठीं पर कुछ देर बाद फिर सो गयी । ठीक ठाक समय बीत जाने के बाद कई बार ऐसा लगा कि बच्चे थक गए अब नृत्य बंद कर देंगे पर हर बार वे उस लगने को धता बताते हुए अगले गीत पर अगले उत्साह से नाचने लगते । रात एक बजे आसपास हम चेन्नै से कुछ दूरी पर रहे होंगे लगभग तभी बच्चों का नाचता हुआ अंतिम समूह हमारे पास गाने बंद करा देने आया । बस में शिक्षिकाएँ सो रही थी , बच्चे भी । ड्राइवर से हैल्पर बात कर रहा था और हम तीन लोग लगभग जागते हुए तेजी से फोर लेन पर दौड़ती बस की गति पर मुग्ध हुए जा रहे थे । लेकिन अशांत आंध्र प्रदेश की आशंका उठते ही बस की गति की सीमा का अंदाजा आने लगता ।

करीब चार बज रहे होंगे । पता नहीं मेरी नींद कैसे टूटी लेकिन जब टूटी तब पता चला कि मैन बढ़िया नींद में था । नींद टूटी तो देखा सभी सो रहे थे । हम तीनों ने जो अलिखित सा नियम बनाया था कि जागते रहना है उसके टूटने पर आश्चर्य हुआ और उससे भी बड़ा आश्चर्य तो तब हुआ जब बस को रुका हुआ पाया । तमाम आशंकाओं के सर उठाने का यही समय था । एक बार तो लगा कि कोई टोल नाका हो पर बाहर देखा तो उस जैसा कुछ नहीं लग रहा था । घुप्प अंधेरा और इक्का-दुक्का ट्रक की रोशनी और आवाज़ ही थी वहाँ जो फोर लेन के वैभव और सौंदर्य से कोसों दूर थी ।  

बाहर निकला तो देखा अपने ड्राइवर साहब अपने कागज़ात की फाइल सम्हाले एक ओर बढ़ रहे थे । समझते देर नहीं लगी कि पुलिस की चेकिंग चल रही है । मन की आशंका इस बात से  थोड़ी शांत हुई कि चलो यहाँ पुलिस तो है । उधर जाने के बजाय वापस बस में आ गया । बस में मुतमयीनी भरी थी जिसे बेपरवाह सोते चेहरों पर पढ़ा जा सकता था ।

काफी देर बाद भी जब ड्राइवर नही आया तो हम तीनों नीचे उतरे और उस ओर बढ़ गए । उस अंधेरे में भी पुलिस वाले की छवि अलग ही दिख रही थी । छोटे से कद पर तोंद निकली हुई और सर पर पुलिसिया टोपी हज़रत किसी जोकर से कम नहीं लग रहे थे । इससे स्पष्टवादी पुलिस वाला नहीं देखा था । हो सकता है और भी पुलिस वाले ऐसे होते हों पर चूंकि अपना साबका पुलिस से लगभग नहीं ही पड़ा है इसलिए इस संबंध में जानकारी कम है ।

वह सीधे-सीधे कह रहा था कि आंध्र प्रदेश में जाना है तो यहाँ रूपय देने पड़ेंगे । ड्राइवर अपनी चिरौरी कर रहा था तरह – तरह की काल्पनिक और वास्तविक विवशताओं का हवाला देकर । उस समय हमें भी यही सबसे अच्छा विकल्प लगा । हमने भी चिरौरी की । केंद्र सरकार , समिति , बच्चे , सीमित धनराशि सबका हवाला हमने भी दिया । हमने मतलब हम तीनों ने । तो एक बार हज़रत बोले कि चूंकि आपलोग केंद्र सरकार से संबन्धित हैं इसलिए बस सौ रूपय दीजिये । हमने फिर अपने हवालों को देना जारी रखा । तब शायद उसे लगा होगा कि उसका पुलिस वाला होना खतरे में पड़ रहा है । वह गरजने लगा । ए पी बंद है , प्रदर्शन हो रहे हैं कोई सुरक्षा नहीं बस वापस ले जाओ । हमारे पास अब विकल्प साफ हो गया था कि बस सौ रूपय की तो बात है निपटाओ यार ! वैसे भी ज्यादा ईमानदारी पर रहते तो रात के चार बजे न तो कोई प्रिंसिपल फोन उठाता और न समिति के किसी बड़े अधिकारी से उसकी बात करने की हिम्मत होती । ले – दे कर सुबह होने के बाद ही मामला सुलझ पाता । तब तक तो बस आंध्र के कई किलोमीटर टाप देती । सौ रूपय मिलते ही वह जोकर पुलिसवाला अगली गाड़ी को रुकवाने चला गया और हम सब बस में । हमारे अगले कुछ मिनट पुलिस के व्यवहार , भ्रष्टाचार, देश की दुर्दशा आदि की व्याख्या में ज़ाया हुए । सबसे ज्यादा इस बात पर हमने समय दिया कि उस पुलिस वाले ने हमसे घूस लिया भी तो सौ रूपय । और जैसा कि हर बार होता बिना किसी समाधान और निष्कर्ष के एक एक कर चुप होते गए ।

लगभग दस-बारह दुकानों के बाद एक दुकान पर पढ़ने को मिला चित्तूर । मतलब हम आंध्र प्रदेश में पवेश कर गए थे । अचानक मध्य एशिया , ईरान , इराक़ और कुछ मानों में अफगानिस्तान के दृश्य उभरने लगे जेहन में । ये वे दृश्य थे जो युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों में देखे थे । सबकुछ शांत था । दुकानों, घरों के दरवाजे बंद थे । सड़क की पीली रोशनी भी रहस्यमय लग रही थी । किसी चौराहे पर एक पंडाल लगा था , लाल - लाल रखी थी करीने से । वहीं चाय की गुमटियों पर दो – चार लोग हंस बोल रहे थे । बस आगे बढ़ी तो फिर वही शांति । शांति को पाकर कोई अच्छा महसूस नहीं हो रहा था क्योंकि युद्ध प्रभावित जिन देशों पर फिल्में बनी हैं उन फिल्मों में तो यही देखा कि सब कुछ शांत रहता है और अचानक से कोई मोर्टार किसी गाड़ी पर दाग दी जाती है । एक अफरातफरी तो मचती है लेकिन उसके बाद फिर शांति अगले हमले तक । नींद अपना दबाव बढ़ा रही थी लेकिन जब बस की गति हल्की भी धीमी होती तो लगता कि बस को रोका जा रहा है या नहीं तो पथराव आदि से बचने के लिए ड्राइवर रास्ता बदलना चाहता हो । आँख खुलती तो वही शांति दिखती । नींद का दबाव बढ़ता ही गया ।

सुबह जब नींद खुली तो दूर दूर तक खेत फैले हुए थे । दायीं तरफ की पहाड़ी से सूरज निकलने की तैयारी कर रहा था । मैंने जब तक कैमरा निकाला तब तक तो किसी चिड़ियाँ के अंडे से निकले चूजे की तरह बाहर आ गया था । बस अब आबादी के बीच चल रही थी । सड़क के दोनों ओर सुबह की शुरुआत के नजारे देखे जा सकते थे । इन सब के बीच कहीं भी यह नहीं लग रहा था कि आंध्रप्रदेश सुलग रहा है , राह चलती गाड़ियों पर पथराव किया जाता है । युद्धभूमि की वास्तविकता से ज्यादा उससे जुड़ी अफवाहें बाहर फैलती हैं ऐसा कई बार उन फिल्मों में मैंने महसूस किया था और ज्यों ज्यों हम आंध्र में प्रवेश करते जा रहे थे त्यों – त्यों वहाँ भी यह बात पूष्ट हो रही थी । आगे दिन भर हम आंध्रप्रदेश में ही तब तक चलते रहे जब तक कि आंध्र और कर्नाटक की सीमा न आ गयी । लेकिन जिन अफवाहों से सहमकर हम चिंतित थे उनका नामोनिशान भी नहीं था । बस सरपट दौड़ रही थी । उसमें फिल्म और नृत्य के दौर पे दौर चल रहे थे ।


ऐसा नहीं है कि आंध्र प्रदेश में असंतोष नहीं होगा पर असंतोष अब वास्तविकता को स्वीकार करने में बदल रहा है । दोनों तरफ के लोग यह मानने लगे हैं कि प्रदेश के बँटवारे को वापस लिए जाने की संभावना अब नहीं बची । ऐसे में चक्का-जाम, प्रदर्शन, हिंसा आदि को जारी रखना लोगों के लिए कठिन होना स्वाभाविक ही है । लोग अपनी दिनचर्या में मशरूफ़ हैं । और उनहोंने बटवारे और उसके प्रभावों स्वीकार कर लिया है । इसके बावजूद जैसा कि हर प्रभावित क्षेत्र में होता है पुलिसवालों , कालाबाजारियों की सक्रियता बढ़ जाती है । स्थिति का फायदा ये अपने हित उठाने लगते हैं । यही आंध्रप्रदेश में आंध्र प्रदेश के नाम पर हो रहा है । 

2 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी15/9/13

    bahut hi rochak wiwran alok ji. bahut maja aya padhkar. aap pake shatikyar ho chuke hain. vyangya,
    samichin tippiniyon se bhara hua. mai aap ke yatra vritant ko teen- char logon ke sath padh raha tha. sabo ne luft uthaya. agle rachna ka intkar rahega.

    prakash chandra jha

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  2. प्रकाश जी धन्यवाद ,.... यह सब तो बस आप सब से सीखा है ... धीरे-धीरे ... और निराश नही करूँगा ये वादा है ....

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स्वागत ...

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