अक्तूबर 29, 2013

कंडीशनिंग कैंप




उस जगह से बहुत दूर नहीं हूँ जहां जाने का बार बार मन करता है लेकिन एक व्यवस्था में आकर जिस प्रकार घिर गया हूँ उसमें वहाँ जाना तो दूर , वहाँ की खबरों तक का आना भी दुर्लभ हो गया है । जिस संगठन में काम कर रहा हूँ उसके बारे में इतना नकारात्मक कभी नहीं हुआ था । यहाँ प्रशिक्षण पर आने से पहले विद्यालय में लगभग छह महीने तो हो ही गए थे लेकिन कभी ऐसे अनुभव नहीं हुए कि इस काम को इतनी शंका और अविश्वास से देखूँ । यहाँ हर दूसरे क्षण लगता है कि , वास्तविक स्थिति , आदर्श और अघट-घटनाएँ तीनों अलग-अलग स्थितियाँ हैं लेकिन प्रशिक्षण इन तीनों को एक साथ करके ही चलता है । इस एक साथ चलने ने जिस मानसिक ब्लॉक का निर्माण कर दिया उसे खोलने में या खुलने में समय लगेगा । बाहर से यदि थोड़ा सा भी 
संपर्क बना रहता तो शायद यह स्थिति नहीं आती । यहाँ अखबार देखने तक का समय नहीं मिल पाता है । सब इस तरह से है कि यदि आ गए तो इसको झेलने के अलावा कुछ नहीं बचता ।

यह मानने में कोई शंका नहीं है कि शिक्षकों पर एक बड़ी ज़िम्मेदारी है लेकिन इत्न ई हाय – तौबा और मारा – मारी के बाद भी बच्चा तो अत्महत्या कर ही लेता है, संबन्धित शिक्षक दंडित भी हो जाता है । फिर इतनी जटिलता की आवश्यकता ही क्या है ?

प्रशिक्षण से इस तरह का साबका कभी नहीं पड़ा था इसलिए अंदाजा भी नहीं था कि कैसे लोग प्रशिक्षित होते हैं और कैसे उन्हें प्रशिक्षण के नाम पर एक तरह से संस्थानीकृत किया जाता है । कार्यक्रम इतना जटिल और समय से पीछे चलने वाला हो तो न तो इसमें किसी की रुचि बनी रह सकती है और न ही इसका कोई फायदा हो सकता है । यहाँ का मूल दर्शन यही है कि जिन स्थितियों में एक छात्र रहता है उसी तरह शिक्षकों को भी रहना चाहिए । जैसे किसी दिन छात्रावास में बिजली नहीं हो तो वे कैसे रहते होंगे इस स्थिति से रू-ब-रू कराने के लिए शिक्षकों को भी उसी तरह रखा जाए । यह तो एक बानगी है । यह बात समझ से परे हो जाती है कि संस्थान एक स्तर पर सुविधाओं को पक्का नहीं कर सकता तो जहां भी थोड़ी – बहुत सुविधाएं हैं वहाँ से हटा लिया जाए । प्रशिक्षण जब कर्मचारियों को नियंत्रित करने के उद्देश्य से ही प्रेरित हो तो यह कन्डीशनिंग कैंप जैसा ही बन जाता है ।

एक कमरे में आठ – दस लोग रखे गए हैं । इसका आदर्श और उद्देश्य यह नहीं कि लोग साथ रहेंगे और इस तरह से एक दूसरे के प्रति सहयोग का व्यवहार करेंगे बल्कि जिस तरह से छात्र रहते हैं उसी तरह से जीना सीखा जाए ।कोशिश न भी करूँ तो भी फोन का आता – जाता नेटवर्क सोचने के लिए बाध्य कर ही डालता है कि यहाँ इतनी दूर खेतों के बीचोबीच प्रशिक्षण देने की क्या जरूरत थी । यहाँ मुख्य सड़क से पैदल का ही सहारा है वह भी बड़े-बड़े रोड़ों से भरे रास्ते पर । वह रास्ता भी इतना सुनसान कि जाने से डर लग जाए । शुक्र है हम सारे पुरुष ही प्रशिक्षित होने आये हैं । एक भी स्त्री होती तो आज के हालात में उसका आना-जाना पुलिस की सुरक्षा में ही हो पाता । हममें से बहुत लोग शाम को दिन भर की थकान कम करने के लिए बाहर निकल जाते हैं , रास्ते पर मिलने वाले एक-दो बुजुर्ग हर वापस लौट जाने की सलाह दे देते हैं । बताते हैं कि हर दूसरी मोटरसाइकिल लुटेरों की होती है । कम से कम फोन और कुछ पैसे तो मिल जाएंगे ।

हमारे समय को बांटकर इतना व्यस्त कर दिया गया है कि दिन तो किसी भी तरीके से हमारा हो ही नहीं सकता । इस पर भी तुर्रा यह कि आप जिस उम्र में है उसमें आराम और इससे सहजात संबंध रखने वाली अवस्थाओं की कोई आवश्यकता नहीं है । बोलने वाला आदमी अधिकतम डेढ़ घंटे बोल के चला जाता है आराम करने वह भी बिना यह सोचे कि हम तो वहीं बैठे रह जाते हैं दूसरे बकने वाले को झेलने के लिए । एक से दूसरे को झेलते हुए , आराम और सामान्य सुविधाओं से दूर रहते हुए लगता है कि यह एक अंतहीन दौर है जो चलता रहेगा ।

इन सबने पिछले लगभग एक पखवाड़े से भी ज्यादा समय में हमारी नकारात्मकता को बढ़ाया ही है । यदि कोई शोध होता जिसमें प्री-टेस्ट, पोस्ट टेस्ट जैसी व्यवस्था होती तो इसे केवल अनुभव के आधार पर ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक रूप से साबित करने में देर नहीं लगेगी । यहाँ नकरत्मकता को इसलिए लेकर आया हूँ कि इसके बढ्ने से बहुत ज्यादा दिन विद्यालयी व्यवस्था में खासकर नवोदय जैसी संस्था में काम नहीं किया जा सकता । स्करात्मक होना यहाँ बहुत जरूरी होता है । इस दशा में यह प्रशिक्षण कुछ देने के बजाय कुछ ले ही रहा है । और इस तरह के काम शिक्षकों के उत्साह को बढ़ाने के बजाय उसकी जड़ों में मट्ठा डालने का ही काम करते हैं ।



यहाँ मेरे लिए मुद्दा नवोदय के प्रति बढ़ती उदासीनता नहीं है बल्कि भीतर हो रहा द्वंद्व है । यह द्वंद्व सकारात्मक होकर बच्चों के लिए काम करने और नियमों में बांधकर नकारात्मकता से काम के प्रति अरुचि हो जाने का है । हालांकि इससे बाहर आने के मेकैनिज़्म पर काम कर रहा हूँ पर वह भी इस प्रशिक्षण के तंत्र से बाहर निकल कर ही संभव हो पाएगा । 

अक्तूबर 28, 2013

हिंदी के वारिस (संशोधित)


हिन्दी को पढ़ाना एक तरह से ऐसा कार्य मान लिया गया है जिसके माध्यम से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को प्रसारित किया जा सके । यहाँ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पदबंध का प्रयोग जोर देकर कर रहा हूँ क्योंकि जितने लोगों से यहाँ इस पर बात हुई वे एक तो इसके पक्षधर थे दूसरे प्रकारांतर से ही सही वे इस्लाम व अँग्रेजी का विरोध करते हुए भाजपा के समर्थन तक चले जाते थे ।

यहाँ रहते हुए पहला परिचय जिस व्यक्ति से हुआ वे हर बार फेसबुक , टीवी या अखबार के किंसी कोने में हिन्दू के पक्ष की बात ही खोजते हैं या उस पक्ष की हानि होते देख सीधे विरोध दर्ज कराते हैं । अभी हाल ही में वे एक खबर को लेकर बैठ गए । उस खबर में किसी राज्य की सरकार ने मुस्लिम लड़कियों के किसी खास कक्षा में पहुँच जाने पर स्कूटी देने की योजना बनाई थी । उक्त सज्जन इसी बात को लेकर उक्त सरकार और नेता पर कुपित हो गए । सबसे पहले तो उन्होंने उन लड़कियों को स्कूटी देने पर ही सवाल उठाया और उससे आगे बढ़कर कहने लगे कि हिन्दू लड़कियों ने कौन सा पाप किया है कि उन्हें स्कूटी न दी जाए । आगे उन्हें मुस्लिम जगत की शिक्षा और उसमें भी मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षा की दशा बताई गयी । यह तर्क भी  दिया गया कि उनमें शिक्षा को लोकप्रिय बनाने के लिए ऐसे कदमों की जरूरत है । इसके बावजूद उनके चेहरे की तमतमाहट कम नहीं हुई । कहने लगे कि किसने रोका है उनको पढ़ने से ? वे खुद ही नहीं पढ़ते ।
हमारे परिचित बिना जानकारी की अवस्था में ऐसी बात करते तो कुछ भी गलत नहीं माना जाता पर क्योंकि वे सिविल सेवा की लंबी तैयारी और उसके अंतिम चरणों की असफलता के बात मास्टरी में आये हैं इसलिए उनका अनजान होना स्वीकार नहीं किया जा सकता । लगातार वे अपने पूर्व निर्णय और पूर्वाग्रहों से लिपटी टिप्पणी ही करते रहे और अभी भी कर रहे हैं । शायद आगे भी करें । ये उनके स्थायी भाव जैसे हो गए हैं जिसके कारण जान बूझकर वे ऐसे ही प्रसंग तलाश कर लाते हैं जहां से अपनी बात कर सकें ।

पिछले दिनों वे एक और मामला लेकर बैठ गए । फेसबुक पर किसी ने महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नथुराम गोडसे का वह बयान डाला होगा जिसमें वह गांधी की हत्या करने के कारणों को उजागर करता है । उक्त बंधुवर उसे जोर-जोर से पढ़ने लगे । वे इसे प्रामाणिक और तार्किक वक्तव्य मानकर बाँच रहे थे । ऐसा करते हुए उनके चेहरे पर विजयी भाव थे । ऐसा भाव होना गलत नहीं है पर गोडसे की बातों के आधार तो नितांत सांप्रदायिक और असहिष्णु थे । उन आधारों पर गांधी की हत्या को सही ठहरना एक बचपने से ज्यादा कुछ नहीं हो सकती । भारत में रहते हुए इस्लाम या कि अन्य धर्मों के लोगों के साथ हिंदुओं ने समय तो बहुत बिता लिया है पर दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार कर रहना बिलकुल नहीं सीखा । तमाम फर्जीयाना तर्क देंगे पर रहना नहीं सीखेंगे । यह स्थिति कथित ऊंची जाति लोगों में ज्यादा ही दिखाई पड़ती है । जिन लोगों का हक सीधे सीधे प्रभावित हो रहा हो उनका चिल्लाना तो एक बार को स्वीकार किया जा सकता है पर जिनका उससे दूर दूर तक कोई संबंध न हो वे भी ऊंची आवाज में ही चिल्लाते हैं ।

मेरे एक मामा हैं । उनके व्यक्तित्व को समेटा जाए तो यह कह सकते हैं कि अपनी वास्तविक जिंदगी की असफलता को छिपाने के लिए उन्होंने धर्म और अध्यात्म का सहारा ले लिया है परिणामस्वरूप रोजगारपरक असफलता के बावजूद गाँव में उनका स्थान बना हुआ है । अभी हाल ही में जब नवोदय की मास्टरी में चयनित होने की सूचना आई और उसके बाद नौकरी पर जाने से पहले जब घर जाना हुआ तो वहीं उनसे भी मुलाकात हुई । प्रसंगवश माँ ने पूछ लिया कि हमारे दोस्तों में से किन-किन का चयन हुआ । उन्होंने जाहिद के बारे में भी पूछ लिया । माँ किसी न किसी बहाने से मेरे दोस्तों को जानती है इसलिए असफल हो गए मित्रों पर उनकी जो प्रतिक्रिया आई उसका मुझे पहले से अनुमान था । चूंकि जाहिद से मिली थी इसलिए उस पर उन्होने और दुख भरी बात कही । अपने वे मामाजी वहीं बैठे थे । तपाक से कहते हैं अच्छा हुआ साले मियां का नहीं हुआ ... वे बहुत कट्टर होते हैं। सुनकर मन जल गया । पता नहीं माँ को कैसा लगा पर मुझे बहुत गुस्सा आया । मन तो कर रहा था कि बहुत कुछ कहूँ पर इतना ही कहा कि बाभन से ज्यादा कट्टर कोई नहीं होता आप अपने व्यवहार से देख लें। वे चिढ़ के चले गए ।

यहाँ हम 27 लोग हैं । चयन तो करीब पचास लोगों का हुआ था लेकिन जॉइन करने वाले इतने ही रह गए । ध्यान देने की बात यह है कि इसमें एक भी मुसलमान नहीं है दूसरे अन्य धर्मों की बात जाने ही दें । इस स्थिति में अध्यापक के माध्यम से मिलने वाले विभिन्न प्रकार के सामाजीकरण का तो भट्ठा बैठना तय ही है । पहली बात तो यह कि जब सभी हिन्दू शिक्षक ही हिन्दी पढ़ाएंगे तो हिन्दी केवल हिन्दू पक्ष से बात करेगी और उन्हीं की बात करेगी । एक तो हिन्दी की पुस्तिकाओं में यूं ही धार्मिक संतुलन का अभाव है । संतुलन तो जाने दें , किताबों में ऐसे एक से अधिक संदर्भ नहीं मिल पाते जो धार्मिक विविधता को प्रदर्शित करें । ऐसी दशा में शिक्षकों में एक भी एक भी ऐसा हिन्दी का शिक्षक न होना जो हिन्दू से इतर धर्म का संदर्भ लेकर आए तो यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि हिन्दी के माध्यम से क्या दिया जा रहा है या दिया जाएगा । यहाँ मैं अपने को अलग करके नहीं देख रहा हूँ क्योंकि मेरा सामाजीकरण भी इनसे इतर नहीं रहा है ।

यहाँ सोते - जागते , उठते - बैठते दसियों बार ऐसे संदर्भ आते हैं जो तुलसीदास की धार्मिकता और उनकी चैपाइयों तक ही जाते हैं । यहाँ यह कहा जा सकता है कि जो लोग यहाँ प्रशिक्षण के लिए आए हैं वे अपने विद्यालयों में और अपनी कक्षाओं में अपनी व्यक्तिगत जिंदगी सा व्यवहार नहीं करेंगे । लेकिन आज तक बहुत कम ऐसे लोग सामने आए हैं जो समय समय पर व्यक्तिनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता में अदला-बदली कर सकें । मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के सिद्धान्त इस बात का समर्थन नहीं करते कि शिक्षक का व्यक्तित्व उसके अध्यापन और उसकी कार्य-प्रणाली पर हावी नहीं होते । इसलिए कई बार लगता कि , यह सप्रयास किया जा रहा है कि खास धार्मिक चलन डालें जाएँ । आगे प्रक्रिया ऐसी है कि इस प्रयास का पता भी नहीं चल पाता है ।


हिन्दी को एक भाषा की तरह देखने के बदले एक ऐसी भाषा की तरह देखने का चलन बढ़ता जा रहा है जो सांस्कृतिक एकता के बदले एक विशेष प्रकार की संस्कृति को आगे बढ़ाने के माध्यम के रूप में देखा जा रहा है । यह जोर हिन्दी पर संस्कृत के बदले आ गया और उसके तत्वों व मानसिकता के साथ आया है । अब यह अकारण नहीं लगता कि हिन्दी का विरोध क्षेत्र और हिन्दू दायरे के बाहर क्यों होता है ।

अक्तूबर 12, 2013

ये उस रात के आंवले हैं


कहाँ बदला है कुछ । ऐसा लगता है जैसे कल भी साथ थे और आज भी साथ हैं और फिर कल शाम भी कहीं उसी बेफिक्री में हँसते बतियाते फिरते रहेंगे । यात्रा से पहले की रात हमेशा से मेरे लिए छोटी होती है और वह दिन लंबा । इसलिए थक जाने जैसा तो लगना तो कोई आश्चर्य की बात रह ही नहीं जाती । विद्यालय में दिए गए सारे कामों से निबटकर ही दिल्ली आना था । यह तो बिलकुल नहीं चाहता था कि काम और मैं दोनों ही साथ साथ सफर करें और वे मुझे अपनी उपस्थिती का अनुभव करवाते रहें ।
 थकी हुई अवस्था और उस पर विश्वविद्यालय के इलाके से अंजान कैब वाले ने उड़ान के लगभग 40 मिनट जल्दी आ जाने का मजा रहने ही नहीं दिया । ऐसा लग रहा था उसे करोल बाग के अलावा किसी जगह का पता ही न हो । कुएं में मेढक कैसे घूमता है गोल-गोल ठीक उसी तरह वह घूम रहा था फिर जब देर होती लगी तो किसी तरह वह लोगों से पुछने को राजी हुआ । इस बीच दोस्तों के कितने ही फोन आ गए ।

दोस्तों से मिलने के बाद मेरे अगले कार्यक्रम तो यूं बदले कि मुझे हवा तक न लगी । यह ठीक वैसे ही था जैसे पुराने दिनों में होता था जब मैं भी यहीं इसी दिल्ली में रहता था इन्हीं दोस्तों के साथ । समान रखने और कपड़े बदलने के दस मिनट लगा लीजिये बस इससे ज्यादा वक्त नहीं लगा फिर से बाहर दिल्ली की गलियों में आने के लिए । दिन भर की उतनी थकान के बाद इस तरह रात बाहर विश्वविद्यालय परिसर में बिताने का विचार एक बार को बहुत अजीब भी लगे पर पुराने दिनों को जीने का लोभ किसी भी चीज से ऊपर था । तय हुआ कि पटेल चेस्ट से कुछ ब्रेड-ऑमलेट जैसा ले लिया जाएगा और फिर थोड़ी सी चाय फिर हम अपनी बेफिक्र रात बिताएँगे ।

पटेल चेस्ट उसी तरह से जाग रहा था जिस तरह से वह जागता आया है । यह छात्रों का इलाका है और इन पढ़ने वालों की दिनचर्या में रात में जागने का अपना स्थान है और इन्हीं के साथ जागते हैं कुछ चाय वाले , पराठे – ऑमलेट वाले और कॉफी वाले । पटेल चेस्ट के इलाके में मैं पहले भी देखता था और कल रात भी वह महसूस हुआ कि दिल्ली में बहुत से ऐसे लोग हैं जो छात्रों के तरह की एक रात बिताना चाहते हैं । उन्हें यह सब थोड़ा कूल और क्रेज़ी लगता है । इसलिए ऐसे लोग भी पटेल चेस्ट पर यूं ही दिख जाते हैं किसी कार में बैठकर गरम गरम ब्रेड-ऑमलेट खाते हुए या फिर कार की दीवार से पीठ टिकाकर अपने स्थानीय दोस्तों के साथ ठहाके लगाते हुए । कल रात भी मैंने हवा में वही परिचित उत्साह पाया जो यहाँ अक्सर रात मिलती है । पटेल चेस्ट के दिन उसकी रातों जैसे नहीं होते । यहाँ के दिन जहां पूरे बाजारी शोर से भरे रहते हैं रातें उतनी ही बेफिक्री , क़हक़हों और हाथ में चाय का कप पकड़े पैदल चलने वाले छात्रों से भरी होती है । दिन में पटेल चेस्ट कितना भी गंदा दिखता हो पर रात को यह प्यारा लगता है । भले रात में यहाँ समोसे जलेबी वालों के ठेले न दिखें पर खाली सड़क पर यहाँ वहाँ बैठे युवकों को यह जितना स्पेस देता है उतना बहुत कम जगह देखा है मैंने ।

पटेल चेस्ट पहुँच कर जब ब्रेड–ऑमलेट ढूँढ़ा तो पता चल गया कि आज क्या अगले दस दिनों तक इधर वो-सब नहीं मिलेगा । दुकानदार ने हमारी तरफ यूं देखा जैसे हमने ब्रेड-ऑमलेट मांग कर कोई पाप कर दिया हो । फिर पराठे और चाय को साथ लेकर हम चले आए आर्ट्स फ़ैकल्टी – हमारी जन्नत । ऐसी जगह से इस तरह दूर हो जाना पड़ेगा ऐसा मैंने कभी नहीं सोचा था । मैं, रोहित और बलराम तीनों जब पहुंचे तो उन लोगों को कैसा लग रहा होगा यह मुझे नहीं पता पर मुझे लग रहा था जैसे घर में आ गया हूँ । वहाँ रात बिताना हम सभी दोस्तों को पसंद है और बुरा हो उस उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग का जिसने ठीक अगली सुबह ही एक परीक्षा रख दी इसलिए सारे दोस्तों एक साथ यहाँ न आ पाये ।

आर्ट्स फ़ैकल्टी ठीक उसी तरह है अपनी दीवारों से बाहर झाँकती हुई और अपने भीतर आमंत्रित करती हुई । यहाँ की रात में बीच बीच में जो रोशनी के चित्ते पड़ते हैं और जब हममें से कोई उस रोशनी में बैठना नहीं चाहता है । आर्ट्स फ़ैकल्टी को अब काफी सजा कर रखा जाता है खासकर पौधों और झाड़ियों को । पर लंबे समय से हमें तो इसकी रात ही पसंद है जिसमें यहाँ किसी सड़क की तरह यहाँ से वहाँ तक एकसार प्रकाश नहीं होता बल्कि प्रकाश अंधेरे के बीच ही यहाँ वहाँ आकार बैठता है । यह शायद हमारे मनोविज्ञान से जुड़ा हो या कि किसी और से ऐसा कह सकना मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि विश्वविद्यालय परिसर के हमारे रात के अनुभव यहाँ के दिन के अनुभवों से बेहद ज़ुदा रहे हैं । हमारी बातचीत में शायद ही वे बातें आती थी जो यहाँ दिन में घटित होती हों । यहाँ की रात हमारे लिए उन सब से दूर जाकर पूरी बेफिक्री और हल्की नींद में हमारी बातें, हमारी योजनाओं , कल्पनाओं और सपनों से भरी होती थी । रात हमें विश्वविद्यालयी निराशा में डूब जाने से बचा लेती थी ।

यहाँ के दिन बड़े ही निरर्थक किस्म के रहे हैं । हम सभी दोस्त हिन्दी में एम ए कर के निकले बहुत से दोस्तों ने यहीं से आगे की पढ़ाई जारी रखी लेकिन न हमारे एम ए करते हुए और न ही इनके पीएचडी करते हुए ऐसा कुछ लगा कि हमारे शिक्षक हमें सीखा रहे हैं या कि दे रहे हैं । इसलिए अंडर-ग्रेजुएट में यह विश्वविद्यालय परिसर कितना ही प्यारा लगता हो पर उससे ऊपर की कक्षाओं में जो असंतोष देता है वह निराश से निराश अवस्था तक ले जाती है । कम से कम एम फिल और पीएचडी के स्तर पर गाइड छात्रों से जिस तरह व्यवहार करते हैं और जिस तरह से नियुक्तियाँ बंद हैं और गेस्ट-एडहॉक के लिए जो उपकार कर देने की शक्ति अध्यापकों में आ गयी है इन सबने एक बड़ी निराशा का वातावरण दिया है । यह तो यूजीसी जो यार दोस्तों को थोड़ी खुशियाँ दे रही हैं नहीं तो स्थिति और भी बुरी होती । यही बुरी स्थिति है जो दिन में निराश करती है पर रात की मस्ती के लिए रास्ता भी बनाती है ।

कल रात की आर्ट्स फ़ैकल्टी ठीक उन्हीं मस्तियों को समेटे चलती यदि और यार दोस्त साथ में होते पर यह थोड़ी गंभीर सी हो गयी । बलराम के पास दुनिया भर की कितनी ही अच्छी अच्छी फिल्मों की बातें थी फिर कविताओं पर कुछ बात । मैंने भी इधर बहुत सी फिल्में देखी थी सो वे भी शामिल हो गयी । इधर चार्ली चैपलिन की कई फिल्में देखी और उसके बाद अपने देसी फिल्मों में चार्ली की कितनी ही कॉपियाँ दिख गयी । कवि शैलेंद्र ने क्या फिल्म बनाई थी तीसरी कसम । पहली ऐसी फिल्म जिसमें राजकपूर चार्ली की छवि से निकलकर शुद्ध गाड़ीवान लगते हैं । और पहली ऐसी फिल्म जहां राजकपूर राजकपूर भी नहीं लगते । बलराम ने शैलेंद्र और शंकर जयकिशन का प्यार हुआ इकरार हुआ है गाने वाला किस्सा भी बताया । शैलेंद्र ने उस गाने में एक पंक्ति लिखी थी – रात दसों दिशाओं से कहेगी अपनी कहानियाँ जयकिशन इसमें चार दिशाओं को रखने की बात ही कर रहे थे । उनका कहना था कि दर्शकों में से बहुतों को नहीं पता होगा कि दिशाएँ दस होती हैं इसलिए इसे चार कर देना उचित होगा । इस पर शैलेंद्र का मानना था कि दर्शकों की रुचि और उनको जानकार बनाने का दायित्व हम है इसलिए दस दिशाओं का जिक्र तो आना ही चाहिए जो आया भी है । फिर मैं और बलराम निकल गए फिल्मवालों में कम होती सेंसिटिविटी और ज़िम्मेदारी लेने की प्रवृत्ति पर । फिर मेरा प्रिय ईरानी सिनेमा । कई बार लगता है कि ईरान में समस्याएँ ज्यादा हैं तो फिल्मों के लिए विषय भी इसीलिए उनके पास बहुत ज्यादा हैं । समस्याएँ तो अपने देश में भी उससे कम नहीं हैं पर कहाँ बन पाती हैं वैसी फिल्में । बातें होती रहीं ।

इधर रोहित कभी कभी अपनी बात कहता फिर फ़ैकल्टी के पत्थर की बेंच पर उसी मुद्रा में लेट जाता । मैं और बलराम और बातें करना चाह रहे थे । इस बीच मुझे ध्यान आया कि अब रात को इधर आए ही हैं तो क्यों ने आँवले तोड़े जाएँ । आंवले का पेड़ उधर कान्फ्रेंस सेंटर के बाहर की पटरी पर है । हमने कई बार वहाँ से आंवले तोड़े हैं वह भी आधी रात के बाद जब विश्वविद्यालय के गार्ड नींद की झपकियों में मशगूल हो जाते हैं । फिर गहरे सन्नाटे में पेड़ पर डंडे पड़ने की आवाज और उन डंडों से लगकर आंवलों के टपकने और फिर डंडे का पटरी पर गिरने इस सब की आवाज इतनी आकर्षित करती है कि यह काम बार बार करने का मन करता है । रोहित ने जाने से माना कर दिया तो मैंने उसे याद दिलाया कि वह ऐसा कई बार कर चुका है और उसे ब्लेकमेल करने के लिए यह भी बोल दिया कि – हाँ ये अलग बात है कि तब वह पीएचडी का छात्र नहीं था और न ही जेआरएफ ही था । जब उसके एलिटिया जाने की बात कर दी तब वह उठ कर आया इसके बावजूद वह आर्ट्स फैक के गेट पर बने गोल पत्थर पर ही बैठा रहा ।
मेरे लिए आंवले तोड़ना तो बहाना था । इसी बहाने उस सब चीजों को महसूस करना चाहता था जो अब नहीं कर सकता या नहीं कर पाता हूँ । वहाँ केरल में हमारे विद्यालय में भी आँवले के पेड़ हैं पर वहाँ मैं उन आंवलों पर डंडे नहीं चला सकता । मैं अपने तरह की छिछोरी हरकतें नहीं कर सकता । यह बाहर से बहुत मामूली लगें पर इन्हीं सब से हमलोग बने हैं और आँवले के खट्टे स्वाद में ही खुशियों की तलाश हो जाती है ।

बलराम अभी भी बातें कर रहा था । हम पानी के लिए आईआरसीटीसी की कैंटीन गए वहाँ पानी 
नहीं आ रहा था फिर बढ़ गए लॉ फ़ैकल्टी की ओर । वहाँ पानी मिल गया । वहाँ तक जाते जाते हम सब को लग गया था कि मैं वहाँ केरल में क्या सब मिस कर रहा हूँ । मैं जो चीज सबसे ज्यादा याद करता हूँ वह है अपनी तरह की बातें और अपने ही तरह के मन की करने वाले लोगों के न होने की । यही वजह है कि दिल्ली मुझसे बाहर नहीं जा पाती । एक तो यहाँ अपने जैसे लोग हैं दूसरे यहाँ अपनी तरह का करने का अवसर भी है । इस शहर को दो तरह से व्यवहार करते देखा है मैंने अपने साथ । पहले जब मैं अपने को इस शहर में शामिल नही करता था तो शहर मुझे बहुत नीरस लगता था ये बात तब की है जब मैं अपने सहरसा के दोस्तों के साथ रहता था और हमारी सारी गतिविधियां उसी दायरे में होती थी । उस समय दिल्ली किसी भी अजनबी जगह की तरह ही था मेरे लिए जैसे कि आजकल विद्यालय के बाहर का केरल । बाद में जब एमए करते हुए पुराना दायरा टूटा और पहले एक नया दायरा बना फिर तो दायरे का विस्तार हुआ, नए नए दायरे बनते चले गए । इस प्रक्रिया में यह तो हुआ कि समय और ऊर्जा की खूब खपत हुई लेकिन असल सीखना इसी दौरान हुआ । इसलिए जबतब मन उसी सेट- अप को तैयार करने और उसमें रहने को मचलने लगता है । इस क्रम में यह भी देखा कि इस शहर ने अकेलापन महसूस करने नहीं दिया । हो सकता है यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव हो लेकिन यह इतना बताने के लिए काफी है कि कमलेश्वर की कहानी  खोयी हुई दिशाएँ और शचीन्द्र आर्य का अकेलापन भी मेरी तरह उनके व्यक्तिगत अनुभव हैं । आप समाज में जितना प्रवेश करेंगे उतना ही समाज आपको दिखेगा । यदि आपने अपने दायरे को छोटा कर के अपने तक सीमित कर लिया है तो समाज का आप तक आना बहुत कठिन हो जाता है । धीरे धीरे यह स्थिति आपको अपने तक सीमित कर देती है । जिन लोगों से कम से कम साल में एक बार मिलने का वादा किया होता उनसे सालों बाद भी मिलना संभव नहीं रह जाता ।

इसी बीच चलते चलते बलराम ने किसी विचारक का नाम बताया जिसका मानना है कि हम दुनिया में इस तरह जीते हैं कि मानव ही सबसे महत्वपूर्ण प्राणी है और जो इसकी समस्याएँ हैं वही जरूरी समस्याएँ हैं । विश्व भर के लोग उन्हें ही हल करने में लगे रहते हैं । बात तो पते की है । हमारा दर्शन , कला, साहित्य, विज्ञान , समाजशास्त्र , फिल्में और न जाने क्या क्या सब केवल मानव केन्द्रित ही हैं और सबका केंद्रीय भाव यही रह गया कि किस तरह मानव और इसकी चीजें बचाई जाए । इससे बड़ा स्वार्थ क्या हो सकता है ।
इसके बाद अचानक से ध्यान गया कि आर्ट्स फैक में प्रवेश करने से लेकर वहाँ बैठकर पराठे खाने , आंवला तोड़ने और पानी लाने तक के क्रम में दो कुत्ते कितनी आत्मीयता से हमारे साथ चल रहे थे । हम अपनी बातों और अपने आप में इतने मशगूल थे कि उनकी ओर ध्यान तक भी नहीं दे पाये ।

बलराम और बैठना चाह रहा था पर मैं और रोहित काफी थक गए थे और अब ऐसा लग रहा था कि यदि नींद न ली तो दूसरे दिन पर इस रात का असर जरूर होगा । हम बलराम को इसी बात पर राजी करा पाये कि बढ़िया सी चाय के बाद उसके घर के बाहर वाले पार्क में बतियाएंगे । पर नींद इस कदर हावी थी कि बिना चाय का जिक्र छेड़े मैं और रोहित सोने का उपक्रम करने लगे । कब नींद आई पता ही नहीं चला । सुबह एक बाद नींद खुली तो देखा उदय आया हुआ है । बाद में पता चला कि हमारे सो जाने के बाद बलराम ने उदय को बुलाया और वे दोनों बाहर गए और दिन निकलने के बाद वापस आए ।



इतने बेफिक्र समय में किसी और बात की जरूरत महसूस नहीं होती है बस यह लगता रहता है कि यही समय चलता रहे और कभी खत्म न हो । बिना ब्रश किए दो पराठे और बड़ी कप में चाय दबा देने के बाद जो आनंद मिल रहा है वह हमेशा की भागमभाग से कितनी राहत दे रही है ।   

अक्तूबर 05, 2013

नसीर की बांसुरी


अबतक ईसाई धर्म को देखते हुए यह तो तय ही हो गया है कि यह धर्म भारतीय चरित्र ग्रहण कर चुका है । और इस क्रम में इसमें भी वे कर्मकांड आ चुके हैं जो भारतीय विशेषताएँ हैं । काँवड़ लेकर पैदल चलने जैसी चीज इधर भी है लेकिन हिंदुओं में नहीं बल्कि ईसाई में । वे ईसा मसीह के क्रॉस को कंधे पर उठा कर पैदल चलते हैं अस्सी किलोमीटर की यात्रा करते हैं । लोग मनौती मांगते हैं और तो और बली प्रदान करने की प्रवृत्ति भी देखी ।  हाँ फर्क यह है कि ईसाई दीप नहीं मोमबत्ती जलाते हैं । लगभग हर छोटे बड़े चर्च के बाहर एक लोहे का बक्सेनुमा स्टैंड बना रहता है जिस पर लोग प्रतिदिन मोमबत्ती गाड़ा करते हैं ।

अभी यहाँ पास के कस्बे में एक ईसाईयों के एक संत का जन्मदिवस काफी धूमधाम से मनाया जा रहा है । यह एक दिन नहीं बल्कि कृष्ण के जन्म में जिस तरह से काफी पहले से झूलन आदि की शुरू हो जाता है उसी तरह पिछले आठ दिनों से यहाँ एक बड़ा आयोजन चल रहा था । चर्च के पास बने उस संत की कब्र के दर्शन करने लोग बसों ट्रकों में भरकर वहाँ पहुँच रहे थे । बसों, ट्रकों में जाते हुए लोग अपने साथ ईसाई प्रतीक भी ले जा रहे थे । अबतक अपने विद्यालय से भी कई लोग जा चुके थे और वे आकर कई बार शिकायत कर चुके थे कि यहाँ अब लोगों की आस्था धर्म में कम हो रही है, पिछले साल की तुलना में इस साल भीड़ बहुत कम है वगैरह ।
कल अपने सहकर्मियों में से कुछ जो अपेक्षाकृत युवा हैं वे वहाँ जा रहे थे और ईसाई धर्म के तौर तरीकों और कम से कम इस धर्म को मानने वाले समाज को देखने समझने के लोभ से मैं भी उनका आग्रह ठुकरा नहीं पाया ।

वहाँ काफी भीड़ थी । यह ठीक वैसा ही था जैसे दसहरे के आसपास हमारे शहर में होता है । लोगों की कतारें , अलग अलग तरह की साज-धज और सबसे बढ़कर वहाँ लगे मेले का स्वरूप सभी ठीक वैसे ही थे जैसे अपनी तरफ देखे थे । यह भी नहीं की बाजार को मेला बना दिया हो बल्कि बाकायदा अस्थायी दुकानें लगी हुई थी जैसी की मेलों मे होती है , झूले ,सर्कस आदि भी थे । आगे बढ्ने पर मुख्य चर्च की सजावट दिखी उसे देखकर भी यह नहीं लगा कि हम कहीं और आ गए हैं । ऐसा लग ही नहीं रहा था कि देश के साफ दक्षिण में ईसाई धर्म से जुड़े एक मेले में आया हूँ । उस मेले में जम कर खरीददारियाँ भी चल रही थी , मोबाइल से तस्वीरें ली जा रही थी और जगह जगह लगे मोमबत्ती स्टैंड में लोग मोमबत्तियाँ लगा रहे थे । इन मोमबत्तियों से एक चीज और याद आई जो लगभग छूटती जा रही थी । यहाँ केरल में जो भी चर्च मैंने देखे उसके ठीक पास में दुकानें देखी जो वहाँ उपयोग में लायी जाने वाली सामाग्री बेचते हैं । समग्रियां लगभग वही हैं जो हर कहीं मंदिर के पास मिलती हैं लेकिन यहाँ उन समग्रियों की पैकेजिंग हैं । सिंघेश्वर या किसी और मंदिर के बाहर मिलने वाली समग्रियों की तरह खुली समग्रियाँ मिलती नहीं देखी ।

उस मेले में हमलोग बढ़े जा रहे थे उसी समय जेम्स सर ने बताया कि उनका बचपन यहीं पास के एक घर में बीता है । हमलोग रुक कर उस घर का अंदाजा लगाने लगे और जब उनहोने कहा कि उनकी बहुत सी यादें इस जगह से जुड़ी हैं तो मुझे लगा कि उनकी एक फोटो तो इस घर के सामने ले ही ली जाए । इससे पहले कि मैं कैमरा निकाल पाता कुछ शब्द सुनाई दिए । वे शब्द गाली थे  जो ठेठ बिहारी सामाजिकता की उपज थे और इसे पहचानने में मैं कोई गलती नहीं कर सकता । उस ओर देखा तो पाया कि दो लोग बांसुरी बेच रहे हैं । वे शायद आपस में बात कर रहे थे । मेरे मुंह से अनायास ही मैंथिली निकल गयी और सुखद यह भी रहा कि उनहोंने समझ भी लिया । फिर तो सहरसा और बेगुसराय में दूरी ही नहीं रही । मेरे लिए यह बताना जरूरी हो गया कि सहरसा से बाहर आने वाले के लिए बिहार का बेगूसराय को नयी जगह थोड़े ही है । मेरे साथ गए लोग आगे बढ़ना चाह रहे थे पर मैं रुककर उनसे कुछ बात करना चाहता था । मैंने उन्हें आगे बढ्ने का इशारा किया । वे बढ़ गए ।

उन दोनों में से एक था नसीर । दूसरे ने बात करने में कोई रुचि नहीं ली थी और वह पूरी तन्मयता से अपनी बांसुरी बेचने लगा । नसीर मुझसे बात कर रहा था और वह ऐसी भावना थी जिसमें लगभग हम दोनों ही चल रहे थे । पर मेरे लिए यह कुछ ज्यादा ही भावनात्मक सा था क्योंकि इतने दिनों में पहली बार कोई मिला जो मैथिली समझ रहा था और उसके आसपास की भाषा में जवाब भी दे रहा था ।

नसीर वहाँ से लगभग दस किलोमीटर दूर रहता है और मैं जहां रहता हूँ उससे तीस किलोमीटर दूर । उसके साथ कई और लोग रहते हैं और वे सभी दिन में मजदूरी करते हैं और कभी इस तरह के मेले-ठेले मिल गए तो उसमें करीब करीब पार्ट टाइम जैसा काम भी कर लेते हैं । उससे बात करते हुए लगा कि वह अपनी भाषा से ज्यादा यहाँ की भाषा मलयालम के नोशन्स समझता है और हमारी  भाषा की स्वाभाविकताएं उससे छूट जा रही थी । मुझे एक प्रश्न या बात दो बार कहनी पड़ती थी और उसे समझाना पड़ता था । रोजगार ने उसके भाषायी समाजीकरण को बदलना शुरू कर दिया है । मैं नहीं जानता कि इस तरह की स्थिति के लिए भाषा विज्ञान में कुछ है या नहीं लेकिन उसके साथ यह स्थिति बनती देखी मैंने ।


न उससे फिर मिलना है और न ही मैं उसे पहले से जानता हूँ और न ही उससे संपर्क का कोई जरिया रखने की कोशिश थी इसके बावजूद उससे मिलकर अच्छा लगा  । 

ईसाई लोगों से मिलना


अब तक के जीवन में कभी भी ऐसी जगह नहीं रहा था जहां ईसाइयों की संख्या किसी भी अन्य धर्म के लोगों से ज्यादा हो । हमारे शहर में एकमात्र चर्च है जो हमारे हाई स्कूल के पीछे है । आज यदि और बन गए हों तो अलग बात है । और वहाँ के चर्च अपनी धार्मिक गतिविधियों के लिए कम और मुफ्त ईलाज के लिए ज्यादा जाने जाते हैं ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही है कि मेरे बचपन में या हाईस्कूल – इंटर तक आते हुए भी ईसाई धर्म से संबन्धित किसी कार्यक्रम की कोई छवि हो । ऐसा तो निश्चित ही है कि चर्च के भीतर जरूर धार्मिक गतिविधियां होती होंगी और लोग भी आते होंगे पर बाहर न तो वे कुछ करते थे और न ही मेरी स्मृति में है । दिल्ली में क्रिसमस के मौके पर इसाइयों को बाहर आते देखा । क्रिश्चियन कालोनी में रविवार को उनकी प्रार्थना होती थी जो जब भी अनूप भाई के यहाँ रुकता था तब सुनने को मिलती थी जिसे पटेल चेस्ट में रहने वाले सभी छात्र निश्चित रूप से शोर की संज्ञा ही देते होंगे ।

मैं जिस धर्म में पला-बढ़ा उसने बाकी धर्मों से दूर किया । ऐसा केवल यही धर्म करता हो ऐसा भी नहीं है लेकिन जब मैं अपनी बात करूंगा तो यह पक्के तौर पर कहूँगा कि अपने धर्म ने ही मुझे दूसरे धर्मों से दूर किया और ऐसा ही किसी और धर्म के व्यक्ति के लिए सही है । इस दूरी ने मुझे न सिर्फ दूसरे धर्मों को समझने से रोका बल्कि इसके माध्यम से मैं दूसरे धर्मों के लोगों को अपने और अपने धर्म के लोगों से बिलकुल अलग भी समझने लगा । शायद यही वजह है कि अपने सहरसा की समूची आबादी में से मुसलमान तो याद हैं पर ईसाई याद नहीं हैं । मुझे याद है जब मैं ओंकार मास्टर से ट्यूशन लेने जाता था तो अमित इंटरप्राइजेज़ के बाद मिशन स्कूल के आसपास एक छोटी से ईसाई बस्ती जरूर दिखती थी । मैं उन्हें दूसरे दर्जे के लोग मानता था । ईसाई स्त्रियाँ सहरसा की आम स्त्रियॉं की तरह घर के आसपास भी साड़ी में नहीं बल्कि नाइट गाउन में रहती थी । उनके घर सजे होते थे । कोई कंदील या तारे की आकृति का कुछ जरूर टंगा होता था । ठीक हमारे घरों के उलट । दिल्ली में साथ पढ़ते हुए दो-तीन ईसाई दोस्त मिले पर जबतक उनसे मिलना हुआ तब तक मेरी धर्म संबंधी बहुत सी मान्यताओं में परिवर्तन आ चुका था । तबतक सभी धर्म एक से लगने लग गए थे । और अपने से लेकर किसी अन्य धर्म के प्रति रुचि समाप्त हो गयी थी । लेकिन उन दोस्तों में जो मैंने महसूस किया वह यह था कि वे आने – बहाने अपने धर्म की बात करते थे और उनहोंने एक दो बार कोशिश भी की कि मैं उनके साथ उनके चर्च में चलूँ । एक बार ट्रीजा के आग्रह पर मैं मुखर्जी नगर के बत्रा सिनेमा हाल के तलघर में बने चर्च में मैं गया भी था । मुझे अपने बीएड के दिनों का एक किस्सा याद आ रहा है । एक दोस्त हुआ करती थी शीबा जो धर्म से ईसाई थी । उसने मुझसे केवल इसलिए दूरी बना ली क्योंकि मैं धर्म में विश्वास नहीं करता था और उसके क्या अपने धर्म को लेकर कोई ठीक विचार नहीं रखता था ।

बिहार और दिल्ली के किस्सों और यादों से निकल कर यहाँ केरल आ गया । यहाँ आते ही महसूस हुआ कि इसाइयों के जीवन, उनके रहन-सहन के बारे में मेरी जो मान्यताएं थी वह दो कौड़ी की भी नहीं हैं । अब तक ईसाई लोग मेरे लिए कौतूहल का विषय होते थे पर जहां हर कोई ईसाई हो वहाँ कौतूहल का समाप्त हो जाना निश्चित है । अपने सहकर्मी जिनके साथ मैं समय बिताता हूँ , मेरे छात्र , बाहर जो बाल बनाता है , मोबाइल रीचार्ज करने वाला साइमन सभी ईसाई हैं । चर्च जीवन के इतने करीब और इतने ज्यादा हैं कि वे चर्च से ज्यादा कोई संस्थान ही लगते हैं । इस तरह लगभग पहले ही दिन से इतने ज्यादा ईसाई लोगों से मिलना हुआ कि उनके प्रति मन में बैठी बहुत सी धारणाएँ बदली । पहली बार यहीं आकर मन ने इसाइयों को आम इन्सानों की तरह देखना शुरू किया ।

मैं इस तरह से धर्म को देखता था तो इसमें मैं अपना दोष कम और धर्म का ज्यादा मानता हूँ । समाजीकरण के किसी भी सिद्धान्त में धर्म के द्वारा किया जानेवाला समाजीकरण तो कहीं भी  बहुत तगड़ा होता है । भारत में अधिकतम हम इस्लाम के करीब आ जाते हैं क्योंकि उनकी एक ठीकठाक संख्या है । पर ऐसा दूसरे धर्मों के प्रति नहीं कह सकते खासकर ईसाई धर्म के लिए तो  बिलकुल नहीं । धीरे-धीरे यही प्राथमिक समाजीकरण पुख्ता होकर इतना गहरा हो जाता है कि अपने धर्म से इतर धर्म वाले के प्रति इन्तहाई नफरत भर जाती है । शुक्र है इस कदर कट्टर बनने से पहले ही मेरे दूसरे समाजीकरण ने काम करना शुरू कर दिया । बहरहाल यहाँ ईसाई बहुल इलाके में रहते हुए ऐसा लगता है कि सबकुछ तो समान ही है फिर बेकार ही इनके संबंध में मैं अपने पूर्वाग्रह लेकर बैठा था ।

इससे पहले ईसाई को इतने स्थानीय रूप से नहीं देखा था । इसलिए कभी नहीं लगा कि यह बाहर का धर्म नहीं है । लेकिन यहाँ पर आते ही लगने लगा कि यह तो यहीं का धर्म है । हाँ जनता हूँ कि यह सचमुच बाहर का धर्म है पर इसने जिस तरह स्थानीयता को अपनाया बल्कि स्थानीयता जिस तरह से इस पर हावी हुई उसने इसे बाहरी नहीं रहने दिया । एक दिन सड़क पर लोगों की  लंबी-लंबी कतारें देखीं और देखा सबके हाथों में ताड़ वृक्ष का एक पत्ता । फिर आगे आगे एक रथ पर ईसा मसीह का पुतला ले जाते हुए देखा । बाद में अपने परिचितों से ज्ञात हुआ कि यह मान्यता है कि हाथ में ताड़ का पत्ता लेकर गाँव या शहर की परिक्रमा की जाए तो उस ताड़ , नारियल , सुपाड़ी आदि की फसल ज्यादा होती है । आयोजन का इससे स्थानीय उदाहरण नहीं हो सकता । कई बार मैंने यहाँ पर ईसा मसीह के पुतले के साथ स्थानीय लोगों के पुतले भी लोगों को ढ़ोकर परिक्रमा करते देखा जो यहाँ के वर्तमान निवासियों के पूर्वज थे । हर नुक्कड़ पर कम से कम एक छोटा सा चर्च तो है ही जहां सुबह घंटा बजता है और शाम को मोमबत्तियाँ जलायी जाती हैं । यह सब ठीक उसी तरह लगता है जैसे हिन्दू बहुल इलाकों में नुक्कड़ पर हनुमान का मंदिर हो । 

इस धर्म को लेकर मुझे सहरसा और दिल्ली के सुखी लोगों का ही जीवन याद आता है और जेहन में वही सुखी लोगों की छवि बनती है । लेकिन यहाँ आकर जाना कि अनपढ़ टेरेसा मार्टिन जो विद्यालय के भोजनालय में काम करती है उसका और हमारी प्रधानाध्यापिका दोनों का धर्म ईसाई ही है जो कम से कम मेरे लिए तो नयी बात थी । हाँ यहाँ झारखंड और छत्तीसगढ़ के जंगलों के ईसाइयों के उदाहरण दे सकते हैं जो गरीब हैं पर चूंकि मेरी मान्यता मेरे आसपास के समाज को देखते हुए बनी है इसलिए वास्तविकताओं को देखने और मेरे पूर्वाग्रहों कर निर्माण मेरे उसी वातावरण से होगा । ऐसे में मुझे कई बार लगता है कि टेरेसा जो अब बूढ़ी हो चली है उसके इस नाम का क्या अर्थ है या इससे जुड़ी कोई कहानी है या फिर कोई व्यक्ति यह उसे पक्का नहीं पता होगा ।


यहाँ इस धर्म को जितना देखा उस आधार पर कहा जा सकता है कि धर्म का स्वरूप बहुत हद तक उसके मानने वालों की संख्या और उनके स्थानीय चरित्र पर निर्भर करता है । भारत में ईसाई धर्म ने भारतीय चरित्र ग्रहण कर लिया है । परंपरा से भारत में हिन्दू उपासना पद्धति रही है और इसके तौर तरीकों का प्रभाव ईसाई धर्म पर भी स्पष्ट दिखता है । सबसे पहले तो त्योहारों की अधिकता ही इसका प्रमाण देती है ऊपर से वही धार्मिक उन्माद इधर भी दिखता है । वही कट्टरता इस धर्म में भी है और सबसे बढ़कर यह कि यहाँ ईसाई धर्म का वह रूप देखा जो अपने तदर्थ चरित्र के बदले स्थायित्व पा चुका है । मुझे इस धर्म के इतने स्थायी होने की उम्मीद नहीं थी और शायद यही वजह है कि मैं इसे गंभीरता से नहीं लेता था । 

अक्तूबर 03, 2013

ये शोर-ओ-गुल


सुबह जब तक मेरी नींद खुलती है तब तक सुबह का एक बड़ा हिस्सा बीत जाता है और थमने लगती है चिड़ियों की आपाधापी और उनका शोर-गुल । सुबह सात बजे का जागना मेरे जैसे नींद प्रिय आदमी के लिए किसी भी तरह से देर से जागना नहीं है बल्कि मेरे लिए यह तड़के जग जाने जैसा ही है । पर मैं जहां पर रहता हूँ वहाँ की प्रकृति के लिए सुबह के सात बजे बहुत कुछ ठहर कर सामान्य हो जाता है । इतना सामान्य कि बहुत स्पष्ट विशेषता न होने पर किसी भी अन्य स्थान से यहाँ की समानता स्थापित की जा सकती है ।

यहाँ अलार्म जागता है और हर दिन वह अस्वाभाविक सा होता है जो दिन भर असहज किए रहता है । कभी इतनी जल्दी जागना होता नहीं था । जबतक माता-पिता के साथ था या अभी भी रहने का मौका मिलता है तो रात में बहुत जल्दी सोना पड़ जाता है इसलिए सुबह जल्दी उठ जाने से असहजता वहाँ कभी कभी महसूस नहीं होती है । जहां – जहां अकेले रहा वहाँ – वहाँ मैंने रात अपनी है का सभी अर्थों में उपयोग किया है – हँसते बतियाते , पढ़ते-लिखते , कोई फिल्म देखते या कुछ और करते हुए । ऐसे में रात के एक बड़े हिस्से का बीत जाना स्वाभाविक ही है । अकेलेपन और स्वायत्तता के मद्देनजर किए जाने वाले कार्यों ने मेरी नींद के घंटे हमेशा कम किए हैं ।

नींद के घंटों के कम हो जाने का ग़म तो होता है पर उससे ज्यादा दुख इस बात का होता है कि , सुबह देर से जागने के कारण मुझसे कितनी चीजें छूट जाती हैं । दिल्ली में यह सब कभी महसूस नहीं हुआ क्योंकि वहाँ प्रकृति के नाम पर जो है वह रिहाइशों से इतनी दूर और इतना कम है कि सबके लिए उसका होना नहीं के बराबर ही है । यहाँ पर जागने से लेकर विद्यालय पहुँचने तक का कार्यक्रम पूर्ण रूप से मशीनीकृत हो गया है । सरकारी काम करने वाले व्यक्ति की जीवनचर्या जैसा । कभी – कभी मुझे लगता है कि मैं किसी कहानी या नहीं तो 80 के दशक के किसी धारावाहिक के सरकारी कर्मचारी का वर्गीय चरित्र निभा रहा हूँ । हर काम में उतने ही मिनट लगते हैं जीतने भर से काम चल सके । जब विद्यालय का बैंड बजना शुरू होता है तब मैं नहा रहा होता हूँ । बैंड के बजने और अपने बचे हुए कामों की स्थिति से अंदाजा लग जाता है कि मैं उस दिन विद्यालय समय पर पहुंचूँगा या विलंब से ।

मुझे यहाँ रहने को जो घर दिया गया है उसके पीछे दो बड़े-बड़े पेड़ हैं । उधर से कई बार गुजरने पर भी आपको नहीं लग पाएगा कि पेड़ अपनी कोई उपस्थिति दर्ज करा पा रहे हैं क्योंकि वहाँ नीचे तो बस उनके तने ही दिखते हैं । लेकिन जब कभी छत पर चले जाइए तब लगता है कि वे पेड़ हैं और घर के साथ साथ मशाल्लाह उनका भी एक रुतबा है । लगभग आधी छत पर उनका कब्जा है जहां वे इस तरह से छाए हैं कि छत पर खड़े किसी भी व्यक्ति से वे बीस रहकर ही बात करेंगे । वहीं पता चलता है कि यह उनका भी घर है । वे बेखौफ छत पर अपने पत्ते गिराते हैं और उतनी ही तसल्ली से अपने बीज भी । बारिश और पत्तों का सान्निध्य पाकर वे बीज छत पर एक छोटी सी नर्सरी का रूप ले चुके हैं । लेकिन इतना तय जय कि , इसके बाद जब बारिश बंद होगी तब संडे –संडे को छत पर धूप खोज-खोजकर कपड़े सुखाने वाले लोग उसकी ओर ध्यान नहीं देंगे । बिन पानी के ये नर्सरी थोड़े ही दिनों में सूखे कूड़े में बदल जाएगी जिसे किसी दिन, कोई बुहारकर छत से बेदखल कर देगा ।

इन्हीं पेड़ों में एक नायाब दुनिया बसती है । उस ओर पहले ध्यान नहीं गया था । पता नहीं क्यों आरंभ में मेरा ध्यान बारीकियों के बजाय स्थूल की ओर ही जाता है । मैं पहाड़ों पर फैली घनी हरियाली और उससे उठते बादलों की अठखेलियों , कहीं कहीं से गिरते झरनों को देखकर ही मुग्ध हो जाया करता था । (वे अभ भी अच्छे लगते हैं लेकिन उनसे एक तरह से मन भर गया है । चार महीने तक कोई बादलों , बारिश , पहाड़ और बरसाती झरनों पर ही कितना रीझता रहेगा । अब तो कैमरे की बैटरी चार्ज करने की भी इच्छा नहीं होती । )

पेड़ों की वह दुनिया समान्यतया दिन में नही दिखती है । वैसे सच कहा जाये तो ढंग से देखना तो कभी भी नहीं हो पाया । जब कभी पाँच बजे के आस पास नींद टूटती है या उसके टूटने जैसा महसूस होता है तब उस दुनिया से छोटी-छोटी चिड़ियों की इतनी तरह की आवाज़ें आती हैं कि , गिनने और पहचानने की बात तो रह ही नही जाती उनमें अंतर करना तक संभव नहीं हो पाता है ।

मैं जिस कमरे में सोता हूँ उसकी दोनों खिड़कियाँ बाहर पेड़ की ओर खुलती हैं । बाईं खिड़की के पास ही एक लैम्प पोस्ट है । सुबह मेरे जागने से पहले तक मेरी खिड़की के पल्लों , उस लैम्प पोस्ट , पेड़ की टहनियों और छत के कोरों पर उनकी उछल कूद सुनाई देती है । मैं बस आवाजें सुनता हूँ । लैम्प पोस्ट की लोहे की सतह पर उन पक्षियों के पैरों की खनकती घिसावट सिहरा देती है फिर भी आँख बंद किए नींद को जाने न देने की जिद को कम नहीं होने देता हूँ । कई बार लगता है कि जागने पर मैं उन पक्षियों को देखने की कोशिश करूंगा । संभव है उनकी तस्वीरें उतारने का भी मन कर जाए । जाहिर है मेरा ऐसा करना उनके नियमित कार्यक्रम में बढ़ा डालेगा । उनकी दुनिया में मेरा प्रवेश उन्हें मुझसे भयभीत न कर दे । इसलिए कभी जग भी जाता हूँ तो आँखों को हल्का सा खोलकर जिसे शैलेश मटियानी चिड़ियाँ के चोंच सा खुलना कहते हैं , गोरैयों और उससे भी छोटी एक हरी-सी चिड़ियाँ को खिड़की के पल्लों से लैम्प पोस्ट और उससे कहीं और फुदकते देखता हूँ ।

कई बार मन करता है कि खिड़की की जाली भी खोल दूँ ताकि धीरे-धीरे पक्षियों को मुझसे दोस्ती हो जाए और वे भीतर तक आ सकें । उन्हें पास में रखकर आनंद उठाने का सामंती आकर्षण कई बार हिलोरें मारता है पर खुली खिड़की से पक्षियों के पीछे साँपों के आने भय ऐसा करने से रोकता है ।

यहाँ चिड़ियों की ऐसी दुनिया लगभग चारों ओर बनी है । विद्यालय के बोटेनिकल गार्डन से लेकर घरों के पिछवाडों में लगे केले के झुंडों तक में पक्षियों का फुदकना दिन भर जारी रहता है । फुर्र से कोई बटेर कान के पास से गुजर जाए तो अचंभा नहीं होता । लेकिन चिड़ियों की कलरव का आनंद तो अंधेरे से छूटकर बाहर आती सुबह में ही मिल पाता है ।

पर पक्षियों की केवल सुबह नहीं होती ।

मेरे बाथरूम के रोशनदान में शाम को कबूतरों का एक जोड़ा आकार बैठ जाता है । वह जाली की वजह से भीतर नहीं आ सकता और उसका बाहर जाना बारिश की वजह से संभव नहीं हो पाता है । उनको देह सिकोडकर अपने सभी कार्यकलाप करते देखना अभाव में भी जीवन को आगे बढ़ते रहने वालों की याद दिलाता है । जाली पर उनके पंखों के टकराने की आवाज़ दिल्ली की झुग्गियों के एक कमरे में रहने वाले परिवार की मनःस्थिति से साक्षात्कार करा देती है । गर्मी के दिनों में शास्त्री पार्क की झुग्गियों से बाहर लोगों की नींद अकारण ही अलसुबह नहीं खुल जाती और सड़कें और पार्क मुंह अंधेरे यूं ही नहीं भर जाते ।

अभी – अभी ओणम का त्योहार गया है । बच्चों ने रंगोली बनाने के लिए सामने वाले पपीते के पेड़ से सारे फल तोड़ लिए । इससे वहाँ दिन भर पक्षियों की जो भीड़ लगी रहती थी और लगभग हर दूसरे दिन किसी न किसी फल का पेट फाड़ कर उसके पीले गूदे से पक्षियों के पेट भरने का जो क्रम चल रहा था वह टूट गया । एक-दो चिड़ियाँ अभी भी आकार पेड़ में आए नए फूल और बातियों की तो लेती रहती है । उन्हें उम्मीद है पपीते फिर से बड़े होंगे , फिर से उनका भोग लगेगा और फिर से हिस्सेदारी की मीठी झड़पें हुआ करेंगी । 

अक्तूबर 01, 2013

फिल्म बी ए पास की लटपट


एक फिल्म देखी बी ए पास । इस पर बात करने के लिए अब ज्यादा कुछ लोगों ने रहने नहीं दिया है और उस लिहाज से फिल्म पर बात करने का मुझे शऊर भी नहीं है पर हाँ फिल्म ने कुछ ऐसी बातों की ओर ध्यान दिलाया जिसे उठाना जरूरी सा लगता है ।

आजकल छोटे बजट , नए और अ-स्थापित कलाकारों को लेकर फिल्म बनाने का चलन है । कई बार तो यह इस तरह भी देखा जाता है- दो परस्पर विरोधी व्यक्तित्व वाले कलाकारों का एक साथ संयोजन । जहां इस तरह के लक्षण फिल्मों में दिखते हैं वहीं उसकी चर्चा होनी शुरू हो जाती है । चर्चा मिलना बुरा नहीं है लेकिन उन चर्चाओं में सीधे तौर पर इस तरह की फिल्मों को जो स्थान दिया जाता है वह उनको फ़ायदा ही पहुंचाता है । बी ए पास पर बहुत बातें की गयी । इतनी कि लगा ऐसी फिल्म आई ही नहीं अब तक और अब इसके बाद आनेवाली  फिल्मों का एक खंड तो इसकी परंपरा जरूर ग्रहण करेगा । यकीन मानिए ये इस फिल्म पर की गयी बातें ही थी जिन्होंने इसे देखने को प्रेरित किया ।

फिल्म के बारे में यह कहना सबसे जरूरी है कि यह असहज करने वाली फिल्म नहीं बल्कि एक असहज फिल्म है । असामान्य सी स्थितियों को सामान्य बनाने की असहज कोशिश का नतीजा यह है कि फिल्म में बहुत कुछ कहना – समझाना छूट जाता है । कुछ दृश्य इतने अधूरे से गढ़े गए हैं कि फिल्म एक अधूरेपन को पैटर्न की तरह लेकर बढ़ती प्रतीत होती है । फिल्मों के बारे में मेरा मानना है कि यह जितनी ही सहज हो उतनी बेहतर । दर्शकों को आम सी फिल्म में भी दृश्यों के बीच में अंदाजे लगाने पड़ें तो फिल्म अपनी बात क्या रख पाएगी । इसका सबसे बड़ा कारण है साधारण सी स्थितियों में असाधारण सा घटाने की जिद करना । एक बार को यह मान  लेते हैं कि दिल्ली में कॉलबॉय और मिडिल एज़ सेक्सुअल क्राइसिस वाली गृहणियों का होना आम है तो यह इतना मासूम और नाटकीय रह ही नहीं जाता है जैसा साबित करने की कोशिश की गयी है । ऐसी दशा में यह किसी पॉर्न साईट से उठाई गयी एक साधारण कहानी भर रह जाती है जिसे फिल्मी जामा पहनाकर दर्शकों के सामने डाल दिया गया है ।

दिल्ली क्या देश भर ऐसे बहुत से लड़के या पुरुष हैं जो इस धंधे में हैं और ऐसी स्त्रियॉं की भी कमी नहीं ही है जो अपने जीवन के मध्य में हैं जहां पतियों का ध्यान उनकी ओर नहीं है और यहाँ दोनों ही तरह के लोग एक दूसरे के अभाव की पूर्ति करते हैं । ऐसा किसी भी समाज के लिए उतना ही सहज है जितना की सुबह का नाश्ता । पर फिल्म में यह उस सहजता को नहीं बल्कि एक आरोपित नाटकीय सहजता को व्यक्त कर रही है । और निर्देशक की बार बार की जा रही ऐसी कोशिश फिल्म को एकरस और प्रेडिक्टेबल बना डालती है ।

धंधे और शरीर की भूख के चालू से फ्रेम में थोड़ी सी भावना और एक-दो धोखेबाजियों को डालकर इस फिल्म की संरचना पूरी होती है । जिसमें सबसे प्रधान रह जाता है धंधा । धंधे का समाजशास्त्र जो इस फिल्म में है वह कई बार यह संकेत करता है कि करने वाला व्यक्ति धंधा कर के खुश नहीं है । फिल्म के दृश्य बताते हैं कि वह जिस मजबूरी में धंधा करना स्वीकार करता है उसे पूरा करने की किसी जल्दी में वह नहीं है और अंत तक उस मजबूरी से भागने की कोशिश करता रहता है । यह तो उसकी पकड़ की बाहर की परिस्थितियाँ हैं जो उसे अपनी गिरफ्त में ले आती हैं । इस तरह से यह तो साफ माना जा सकता है कि भले ही निर्देशक ने उसे मजबूरी में यह धंधा अपनाते हुए दिखाया लेकिन बहुत जल्द मजबूरी का स्थान मजा ले लेती है जिसे वह किसी हाल में नहीं छोडना चाहता है । जब यही दिखाना था तो उसे भारतीय फिल्मों में सहज उपलब्ध नायकत्व का घिसापिटा चोला देने की क्या जरूरत थी । अब यहाँ यह कह देना सही लगता है कि इस फिल्म की कहानी न तो सभी कॉलबॉय की है और न ही बहुत से कॉलबॉय की बल्कि यह किसी एक की कहानी है । यह किसी एक का होना  सामान्य तरीके से होता तो वह भी स्वीकार्य था लेकिन जिस तरह से परिस्थितियाँ बनाकर उसका सामान्यीकरण किया गया वह पचने वाला नहीं है । और इसे स्थापित करने में जो रुचि दिखायी वही फिर दबंग , सिंघम और चेन्नई एक्सप्रेस के मामले में भी होनी चाहिए क्योंकि ये फिल्में भी खास तरह के नायकों की ही कथा है । वे तो सामान्यीकरण का दावा भी नहीं करतीं ।

इस फिल्म में धंधा केवल नायक ही नहीं करता बल्कि नायक को धंधे में लाने वाली स्त्री भी करती है । उसका धंधा अलग है लेकिन ऐसा प्रत्यक्ष में कहीं भी पता नहीं चलता । दो एक संवादों से इसे समझाने की कोशिश की गयी है जो फिल्म के उसी अधूरेपन का एहसास देती है । ऐसी अवस्था में फिल्म के अंत से पहले का नायक का उस स्त्री पर क्रोध बड़ा ही खोखला और अविश्वसनीय सा लगता है ।

यह फिल्म एक सॉफ्ट पॉर्न है । निर्देशक बकायदा ऐसे तरीके निकालता है जिससे यह तो पता चले कि सेक्स किया जा रहा है या हो रहा है पर देह छिपी रहे । इस तरह यह हार्डकोर पॉर्न  बनने से रह जाती है । आजकल फिल्मों में दिखाये गए सेक्स के दृश्यों के खिलाफ कुछ कहना फैशन के खिलाफ है । इसके बाद भी यह कहने में कोई परेशानी नहीं है कि इस फिल्म में मसाले के चक्कर में बहुत से अनावश्यक अंतरंग दृश्य डाले गए और वह भी लगभग पॉर्न की शक्ल में । फिल्मों में इस तरह के दृश्यों को सहज मानने की मांग कई नए निर्देशक करते रहे हैं और बार बार इसके लिए बाहर की फिल्मों के उदाहरण भी लेते रहे हैं लेकिन अबतक इस तरह के दृश्य कहानी की मांग कम जबरन ठूँसे हुए ज्यादा लगे हैं । और कई बार ऐसा देखा गया कि इन दृश्यों का ग्लोरीफिकेशन केवल और केवल व्यापारिक प्रभाव पैदा करने के लिए किया गया है । आजकल का जो चलन है उसके हिसाब से फिल्मों में यदि अंतरंग दृश्य दिखाए गए हैं तो उसकी प्रासंगिकता खोजने के बजाए उसे स्थापित करने के प्रयास ज्यादा होते हैं । ऐसा लगता है कि सेक्स को स्वीकार करना इंटेलेक्चुअल होने की पहली शर्त हो । ऐसे में इन दृश्यों को ग्लोरीफ़ाई तो किया ही जाता है उन्हें इंटेलेक्चुअलि स्थापित करने की कोशिश की जाती है । यहाँ मैं यह कहना भी नहीं चाहता कि ऐसे काम स्त्रियॉं की तय छवि से बाहर नहीं जा पाते और स्त्रियॉं की छवि धूमिल की जा रही है वगैरह । क्योंकि फिल्में अपने बोल्ड होने को हिन्दी के स्त्री-विमर्श की तरह देह-मुक्ति से जोड़ कर देखने लगी हैं । इसे ही सिनेमा की नयी धारा स्थापित करने का प्रयास कर रही है ।

फिल्म बी ए पास के बहाने से एक और बात कहनी जरूरी सी लगती है कि ये फिल्में भाव के स्तर पर जुड़ नहीं पाती हैं । निर्देशक का पूरा ध्यान एक – एक दृश्य बनाने पर लगा था । दृश्य भले ही आकर्षक बन पड़े हों पर वह समग्र रूप में कोई भाव जगाने में पूरी तरह अक्षम थे । यदि वह नायक उलझन में था तो वह उलझन अंत के एक मिनट के अलावा कहीं नहीं दिखाई पड़ा तब तक ऐसा लगता रहा कि, जो – जो सोच रखा था वही हो रहा था जिसमें बांधकर रखने की कोई क्षमता नहीं थी । फिल्म के सारे चरित्र रूढ़िबद्ध ही थे कहीं कुछ भी अप्रत्याशित सा नहीं था । फिर केवल सेक्स के दृश्यों के नाम पर फिल्म को अलग कहा जा सकता है क्योंकि इसने सॉफ्ट पॉर्न जैसी चीज पेश करने की हिम्मत की ।


हिन्दी फिल्मों के निर्देशक कॉलेज को जिस तरह से बरतते हैं वह अपने आप में बहुत रोचक तो है कि बल्कि कभी कभी यह भी समझाने से चूकता कि निर्देशक की कॉलेज संबंधी समझ बड़े दिवालियेपन की शिकार है । एकाध फिल्मों को छोडकर कोई भी फिल्म कॉलेज को फिल्म में सब्स्टेंशिएट नहीं कर पायी हैं । फिल्म और कॉलेज किन अलग अलग धरातलों पर चलते हैं यह तय करना कठिन हो जाता है । मसलन इसी फिल्म को लेते हैं । लड़का कॉलेज में एक दिन दिखता है उसके बाद एक-दो बार कॉलेज की तस्वीर दिखाकर निर्देशक जबरन यह मनवाने की कोशिश करता है कि उसने कॉलेज दिखाया और उससे जुड़े द्वंद्व भी उसने समझा दिए । पूरी फिल्म में द्वंद्व अभिनेता-अभिनेत्रियों के चेहरे पर तो खैर कहीं था भी नहीं ऊपर से जिस नाम के साथ फिल्म बेची जा रही हो उसे सार्थक करने की चिंता कहीं नजर नहीं आई । यहाँ भी अंदाजे को महत्वपूर्ण मानते हुए यदि फिल्म को अच्छा – अच्छा कहा गया तो यह कहने वालों की खुशी थी । 

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...