अक्तूबर 05, 2013

नसीर की बांसुरी


अबतक ईसाई धर्म को देखते हुए यह तो तय ही हो गया है कि यह धर्म भारतीय चरित्र ग्रहण कर चुका है । और इस क्रम में इसमें भी वे कर्मकांड आ चुके हैं जो भारतीय विशेषताएँ हैं । काँवड़ लेकर पैदल चलने जैसी चीज इधर भी है लेकिन हिंदुओं में नहीं बल्कि ईसाई में । वे ईसा मसीह के क्रॉस को कंधे पर उठा कर पैदल चलते हैं अस्सी किलोमीटर की यात्रा करते हैं । लोग मनौती मांगते हैं और तो और बली प्रदान करने की प्रवृत्ति भी देखी ।  हाँ फर्क यह है कि ईसाई दीप नहीं मोमबत्ती जलाते हैं । लगभग हर छोटे बड़े चर्च के बाहर एक लोहे का बक्सेनुमा स्टैंड बना रहता है जिस पर लोग प्रतिदिन मोमबत्ती गाड़ा करते हैं ।

अभी यहाँ पास के कस्बे में एक ईसाईयों के एक संत का जन्मदिवस काफी धूमधाम से मनाया जा रहा है । यह एक दिन नहीं बल्कि कृष्ण के जन्म में जिस तरह से काफी पहले से झूलन आदि की शुरू हो जाता है उसी तरह पिछले आठ दिनों से यहाँ एक बड़ा आयोजन चल रहा था । चर्च के पास बने उस संत की कब्र के दर्शन करने लोग बसों ट्रकों में भरकर वहाँ पहुँच रहे थे । बसों, ट्रकों में जाते हुए लोग अपने साथ ईसाई प्रतीक भी ले जा रहे थे । अबतक अपने विद्यालय से भी कई लोग जा चुके थे और वे आकर कई बार शिकायत कर चुके थे कि यहाँ अब लोगों की आस्था धर्म में कम हो रही है, पिछले साल की तुलना में इस साल भीड़ बहुत कम है वगैरह ।
कल अपने सहकर्मियों में से कुछ जो अपेक्षाकृत युवा हैं वे वहाँ जा रहे थे और ईसाई धर्म के तौर तरीकों और कम से कम इस धर्म को मानने वाले समाज को देखने समझने के लोभ से मैं भी उनका आग्रह ठुकरा नहीं पाया ।

वहाँ काफी भीड़ थी । यह ठीक वैसा ही था जैसे दसहरे के आसपास हमारे शहर में होता है । लोगों की कतारें , अलग अलग तरह की साज-धज और सबसे बढ़कर वहाँ लगे मेले का स्वरूप सभी ठीक वैसे ही थे जैसे अपनी तरफ देखे थे । यह भी नहीं की बाजार को मेला बना दिया हो बल्कि बाकायदा अस्थायी दुकानें लगी हुई थी जैसी की मेलों मे होती है , झूले ,सर्कस आदि भी थे । आगे बढ्ने पर मुख्य चर्च की सजावट दिखी उसे देखकर भी यह नहीं लगा कि हम कहीं और आ गए हैं । ऐसा लग ही नहीं रहा था कि देश के साफ दक्षिण में ईसाई धर्म से जुड़े एक मेले में आया हूँ । उस मेले में जम कर खरीददारियाँ भी चल रही थी , मोबाइल से तस्वीरें ली जा रही थी और जगह जगह लगे मोमबत्ती स्टैंड में लोग मोमबत्तियाँ लगा रहे थे । इन मोमबत्तियों से एक चीज और याद आई जो लगभग छूटती जा रही थी । यहाँ केरल में जो भी चर्च मैंने देखे उसके ठीक पास में दुकानें देखी जो वहाँ उपयोग में लायी जाने वाली सामाग्री बेचते हैं । समग्रियां लगभग वही हैं जो हर कहीं मंदिर के पास मिलती हैं लेकिन यहाँ उन समग्रियों की पैकेजिंग हैं । सिंघेश्वर या किसी और मंदिर के बाहर मिलने वाली समग्रियों की तरह खुली समग्रियाँ मिलती नहीं देखी ।

उस मेले में हमलोग बढ़े जा रहे थे उसी समय जेम्स सर ने बताया कि उनका बचपन यहीं पास के एक घर में बीता है । हमलोग रुक कर उस घर का अंदाजा लगाने लगे और जब उनहोने कहा कि उनकी बहुत सी यादें इस जगह से जुड़ी हैं तो मुझे लगा कि उनकी एक फोटो तो इस घर के सामने ले ही ली जाए । इससे पहले कि मैं कैमरा निकाल पाता कुछ शब्द सुनाई दिए । वे शब्द गाली थे  जो ठेठ बिहारी सामाजिकता की उपज थे और इसे पहचानने में मैं कोई गलती नहीं कर सकता । उस ओर देखा तो पाया कि दो लोग बांसुरी बेच रहे हैं । वे शायद आपस में बात कर रहे थे । मेरे मुंह से अनायास ही मैंथिली निकल गयी और सुखद यह भी रहा कि उनहोंने समझ भी लिया । फिर तो सहरसा और बेगुसराय में दूरी ही नहीं रही । मेरे लिए यह बताना जरूरी हो गया कि सहरसा से बाहर आने वाले के लिए बिहार का बेगूसराय को नयी जगह थोड़े ही है । मेरे साथ गए लोग आगे बढ़ना चाह रहे थे पर मैं रुककर उनसे कुछ बात करना चाहता था । मैंने उन्हें आगे बढ्ने का इशारा किया । वे बढ़ गए ।

उन दोनों में से एक था नसीर । दूसरे ने बात करने में कोई रुचि नहीं ली थी और वह पूरी तन्मयता से अपनी बांसुरी बेचने लगा । नसीर मुझसे बात कर रहा था और वह ऐसी भावना थी जिसमें लगभग हम दोनों ही चल रहे थे । पर मेरे लिए यह कुछ ज्यादा ही भावनात्मक सा था क्योंकि इतने दिनों में पहली बार कोई मिला जो मैथिली समझ रहा था और उसके आसपास की भाषा में जवाब भी दे रहा था ।

नसीर वहाँ से लगभग दस किलोमीटर दूर रहता है और मैं जहां रहता हूँ उससे तीस किलोमीटर दूर । उसके साथ कई और लोग रहते हैं और वे सभी दिन में मजदूरी करते हैं और कभी इस तरह के मेले-ठेले मिल गए तो उसमें करीब करीब पार्ट टाइम जैसा काम भी कर लेते हैं । उससे बात करते हुए लगा कि वह अपनी भाषा से ज्यादा यहाँ की भाषा मलयालम के नोशन्स समझता है और हमारी  भाषा की स्वाभाविकताएं उससे छूट जा रही थी । मुझे एक प्रश्न या बात दो बार कहनी पड़ती थी और उसे समझाना पड़ता था । रोजगार ने उसके भाषायी समाजीकरण को बदलना शुरू कर दिया है । मैं नहीं जानता कि इस तरह की स्थिति के लिए भाषा विज्ञान में कुछ है या नहीं लेकिन उसके साथ यह स्थिति बनती देखी मैंने ।


न उससे फिर मिलना है और न ही मैं उसे पहले से जानता हूँ और न ही उससे संपर्क का कोई जरिया रखने की कोशिश थी इसके बावजूद उससे मिलकर अच्छा लगा  । 

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