फ़रवरी 23, 2014

भटका हुआ हाइवे


फिल्म हाइवे । नाम से ही लगता था कि इसके भीतर कुछ होगा जो सड़क पर घटित होगा । एक आशंका यह भी थी कि यह सड़क जैसा पल पल बदलने वाला भी न हो जाए । हालांकि वर्तमान हिन्दी फिल्मों के चलन को देखते हुए इस आशंका को खारिज करने में देर नहीं लगी । बहरहाल फिल्म शुरू हुई घर से सड़क तक जाने में और फिर चलने लगी सड़क – दर - सड़क । और जब फिल्म खत्म हुई तो लगा कि चलो एक यात्रा-वृतांत खत्म हुआ ।

इसे यात्रा-वृतांत कहना ज्यादा सही लग रहा है मुझे । इसलिए नहीं कि इसका नाम हाइवे था और इसमें पात्र एक से दूसरे सीन में यात्रा ही कर रहे थे बल्कि इसलिए कि इसके अलावा फिल्म में कहने का कोई दूसरा तरीका निर्देशक ने नहीं लिया ।

तो सबसे पहला प्रश्न उठता है कि यह यात्रा-वृतांत किसका है ? तो इसका उत्तर यदि एक वाक्य में दिया जाए तो वह होगा – यह फिल्म की नायिका का यात्रा-वृतांत है । लेकिन यदि ठहर कर देखें तो यह सोचना जरूरी हो जाता है कि भई जब फिल्म हाइवे ही थी और उसी पर चली तो उसके अकेले का यह वृतांत क्यों है । क्यों न यह उसके साथ चलने वालों का भी है या यह यात्रा ही क्यों है ?
फिल्म में क्या क्या होने वाला है इसका अंदाजा हो जाता है । होने वाला पति फ्रेम से बाहर है और न ही लड़की का घर या उसके घरवाले फ्रेम में है । अब बस वही वही है जो जो लड़की के आसपास है । दर्शकों के सामने वही दृश्य आते हैं जो लड़की और आसपास के हैं । दरअसल कैमरा अब लड़की के साथ ही चलता है । और अंत तक उसी के साथ रहता है ।

हिंदुस्तानी फिल्मों में निर्देशक , दर्शकों को कहानी के बारे में पहले ही अंदाजा लगा लेने की छूट दे देता है । फिर भी दर्शक है कि तीन घंटे बैठा रहता है ।

लड़की बड़े बाप की बेटी है । उसे उसके होने वाले पति के सामने से अगवा कर लिया गया है इसके बाद भी निर्देशक कैमरा लेकर लड़की के साथ ही चल रहा है । भई वाह ! जबरन अपनी बात थोपना इसे कहते हैं ।

अपेक्षा यह थी कि यदि फिल्म हाइवे है तो नजारे और नजारों की बारीकियाँ भी उसी की होंगी पर यहाँ निराशा ही हाथ लगती है । हाइवे और फिल्म का संबंध हाइवे पर होकर भी टूटता है क्योंकि फिल्म उससे कोई संवाद नहीं करती बल्कि उस पर चलती भर है । इस चलने की दिशा , उद्देश्य और आसपास के वातावरण से इसका सह-संबंध बड़ा रूखा रूखा सा है । ऐसा लगता है कि फिल्मकार ने जो सोच रखा है वह उतना ही दिखाएगा और वैसे ही दिखाएगा । और अकारण नहीं है कि फिल्म सहज राह पर नहीं चलती । बस अपने आपको तब तक खींचती रहती है जबतक कि निर्देशक जिस रूमान के पीछे भाग रहा था उसका कारण न मिल जाए । दरअसल फिल्म के आरंभ में जिस तरह से भूमिका बांधी गयी थी उसके बाद निर्देशक से इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं थी ।

हम सभी जानते हैं कि हमारी फिल्मों में यदि नायिका का अपहरण हो जाए और वह अपने अपहरणकर्ता के साथ ही रहे तो उनमें आपसी सहचर्य जनित आकर्षण तो उत्पन्न हो ही जाता है । इसलिए यह एक बड़ी प्रेडिक्टेबल सी फिल्म थी । लेकिन फिल्म में अपने ही घरों में रिशतेदारों द्वारा छोटी लड़की के शारीरिक शोषण पर बात की गयी । हालांकि इस पर बहुत बेहतर तरीके से बात नहीं हो पायी और यह अपने आप में एक फिल्म की मांग करता हुआ-सा विषय है इसके बावजूद इस बात की खुशी तो होनी ही चाहिए कि किसी मुख्यधारा की फिल्म की नायिका को इसका शिकार दिखाया गया और उसे उसका प्रतिरोध करते हुए दिखाया गया । यहाँ फिर से कहना पड़ेगा कि निर्देशक का यह प्रयास केवल फिल्म को एक नया मोड देने के लिए था । यह उसका केंद्रीय मुद्दा नहीं था और इस विषय को बखूबी डील भी नहीं किया गया ।

यह फिल्म हाइवे कहीं नहीं जाती है । पूरी फिल्म किसी शृंखला की बिछड़ी हुई कड़ियों सी यहाँ वहाँ छितराई सी चलती है जिसे बहुत बेहतर नहीं कहा जा सकता ।


रणदीप आरंभ में अच्छे लगे हैं पर धीरे धीरे वे उसी छोले में घुस जाते हैं जो सामान्यतया हमारे नायक ओढ़े रखते हैं । उसी तरह फिल्म शुरू में ठीकठाक चल रही होती है पर बाद के हिस्से में वह खींचती जाती है किसी अज्ञात दिशा में वह भी सतही तरीके से ।

फ़रवरी 21, 2014

पटनियाँ बाबू सब के लिए मुफ्तीया वाई-फ़ाई !


हमारे नीतीश भैया ने विश्व का सबसे लंबा मुफ़तिया 'वाई-फ़ाई ज़ोन' बना के नाम तो कमा लिया गुरुजी ! कम से कम अहिए बहाने उनका नाम तो चमकेगा और राजनीति का दू–एक दिन भी भटकेगा । बीस किलोमीटर का मुफ्तीया वाई-फ़ाई ! मन तो करता है उठाएँ अपना झोरा-झपाटी आ जा के बैठ जाएँ ऊ सड़क पर जहां ई बेबस्था है । आजकल तो अपने पास वाई-फ़ाई को पकड़ने का बहुत जोगाड़ है, ऊपर से मुफ्तीया ! पर हम त यहाँ केरल में झक मार रहे हैं हम कहाँ जाएंगे ? हमरे पूज्य पिताजी कहते हैं बन के गीद्दर जइहें किद्धर ! बन मने जंगल , गिद्दर मने गीदड़ आ किद्धर मने किधर ! एहेन बिहारी बन के गिद्दर सब भरल है देश में । त सवाल ई है कि जब सब लैपटॉप वला बिहारी बाहरे है त किसके लिए किया है ई नितीश भाय ने ?

काम–धंधा के बिना छौरा सब एन्ने–उन्ने ढ़नकल फिरता है । बेसी से बेसी दिनभर में चार ठो गुटखा खा लिया , मांग – मूंग के अधका सिकरेट मार लिया आ छौरी सबका इसकुल – कौलेज होते हुए दु-चार ठो छौरा सब से मार करते हुए घर आ के बड़की चाहे छोटकी कोई भी बहीन हो उसको डांट के अपना खीस निकाल लिया ! अब एहेन में ई वाई-फ़ाई का कोनो  काम है ? नितीश का पैसा डाँड़ गया !

बिहार में सबसे बेसी नोकरी देने वला बेबस्था है ठीकेदारी पर प्राइमरी से लेकर +2 तक में मास्टरी । उसमें केतना पईसा मिलता है सबको पता है । जेतना मिलता है ओतना में मिठुआ जैसा ठीकठाक पीने वला रहे तो महिना भर का चखना नहीं आएगा दारू की बात करते हैं ! आ जो ऊ लेडीज सब मस्टरनी बनीं हैं उनका तो सब पैसबा जान-आन में ही चला जाता है । दू चार सौ बच गया तो परिबार के हाथ में भी देना है । बेचारा सब एगो लेपेस्टिक तक नहीं खरीद सकता है । तब ई नितीश बाऊ जो किए हैं ऊ मजाके न है जी !

एगो ठीका वला मास्टर मान लीजिये आज से गुठका का दाना तक मुंह में न ले तब भी तीन -चार मैहना का 'मानदेय' जाएगा तब आएगा एक ठो सैमसंग ! नहीं तो फिरी वाई-फ़ाई का इस्तेमाल करने के लिए छौरा सब अपने बाप के गला पे चक्कू न रखेगा ! छौरी सब का कोई गिनतिए नै है ! ऊ लोग घर से सड़क पर नै निकल सकता है त एतना दूर पटना दानपूर जाएगा वाई-फ़ाई चलाने !

आगू बात ई है कि भैया ने बिहार को हाइटेक बनाने का बात किया है लेकिन उ सब पटनिया बाबू लोग के लिए ही है ! जहां चार-छ गो नेता-भगता, हाकिम-पेशकार-ठीकेदार सबके पास आकाशी पईसा आया है । वही लोग का बेटा-पुतौह आजकल पटना में पेरिस का मज़ा मार रहा है । नै ते चल जाइए तनि देहात में सब बुझा जाएगा । आ बिहार का देहात मने ई नै है जो आप शहर आ देहात मने समझते हैं । पटना के बाहर जो है सब देहाते है जी !


देखिये ने जो भी बड़का बड़का चीज है सब पटने में हैं । पटना त मान लीजिये एगो बड़ा शहर बनिए गया । लेकिन शेष बिहार ठीक उसी तरह का जैसा गणित में भागफल निकालते हुए शेष रह जाता है ! एकदम निरीह ! राज का बिकास हो रहा है लेकिन ई राज मने पटना है केवल पटना ! उससे बाहर जाइए त कुछ कत्तो नै ! उसी तरह जैसा पहले था ! पटना चमकता जा रहा है और ऊ सहरसा – तहरसा , किशनगंज- फिसनगंज सब ऐसेहिए रहेगा । 

फिर भी दाद देना पड़ेगा नितीश भाय का कि आब टाका-पईसा वाला छौरा सबके लिए एगो बढ़िया बेबस्था कर दिया है । आब ऊ लोग वहाँ से फेसबुक करेगा !

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...