नवंबर 22, 2014

संवाद

यह मेरे और स्वाती की फेसबुक के इनबॉक्स में हुई बातचीत है ... उसने मेरा उस समय का ताजा ब्लॉग पढ़ा था उसी से जुड़ी बातें हुई ...वहाँ हुई बातचीत को उसकी अनौपचारिकता के साथ यहाँ डाल रहा हूँ । मेरा दावा नहीं है कि यह बहुत ऐतिहासिक बातचीत थी बस उस गुफ़्तगू की रवानगी मुझे अच्छी लगी ।

स्वाती  : बहुत अच्छा लिखा है आलोक !
मैं : धन्यवाद !  और सुनाओ क्या हाल है
स्वाती  : ठीक है... तुम कहो... पढ़ के बहुत अजीब स लग रहा है...
मैं : मैं भी ठीक हूँ एक और पोस्ट लिख रहा हूँ ..इसलिए थोड़ा सा व्यस्त हूँ अभी ...
स्वाती  : जन्दगी का एक रूप यह भी है न, भयावह लेकिन सच...
मैं : हाँ
स्वाती  : हाँ हाँ लिखो लिखोआराम से...
मैं : और मेरा मानना है कि जो लड़कियां या औरतें इससे अपनी रोजी रोटी चलती हैं उनके हक़ में इसे कानूनी दर्जा जरूर दिया जाना चाहिए
स्वाती  : वही तो.. पर हमारे यहाँ तो उन्हें ही गलत देखा जाता है बस्स...
मैं : हमारे सहरसा में जिन हालातों में वे स्त्रियाँ रहती हैं उनकी कल्पना भी दुर्लभ है
नहीं इसी सोच को बदलने की जरूरत है
स्वाती  : उन मर्दों का कुछ नहीं होता, जो उनकी कीमत लगाते हैं...
मैं : केवल अपने यहाँ की बात नहीं है कल में कुछ बाहरी देशों के बारे में भी इन्टरनेट पर देख रहा था वहाँ भी ऐसा माना जाता है
स्वाती : जाने कैसे इसमे किसी को आनंद मिल सकता है...
मैं : पुरानी ग्रीक सभ्यता में भी ठीक वैसा ही है जैसा अपने यहाँ हम सोचते हैं.... मन के सब दरवाजे बंद कर लेने के बाद जब कोई स्वार्थी हो जाये तो आनंद ही आनंद है ऐसा मुझे लगता है ।
स्वाती  : पर कभी ये बात परेशान न करे, तो ज़िंदा ही क्या है आदमी...
मैं  : यही तो बात है परेशान होने के लिए यहाँ कौन आया है ...
स्वाती  : जहां औरतें किसी की दैहिक ज़रूरतों को पूरा करने का माध्यम भर होती हैं..
मैं : यही एक बात है जो हम पुरुषों को समझने की है... मैं जब हम पुरुषों की बात कर रहा हूँ तो खुद को भी उसमें शामिल कर रहा हूँ...
स्वाती  : और पता है, सोच के बुरा लगे शायद पर कई बार और कई जगह 'सम्बन्धों' के सुन्दर, सम्मानित आवरण के भीतर भी औरत की स्थिति सिर्फ इतनी भर की होती है...
मैं : मैं किसी दिन इस बातचीत का उपयोग करूंगा ... तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं है न
स्वाती  : नहीं ... करो..
मैं : सम्बन्धों का दायरा और बड़ा कर लो... सम्बन्धों के भीतर भी यही हाल है ... चलो अब मैं खाने जा रहा हूँ
स्वाती  : ओके बाई ! 

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