मार्च 02, 2016

फूल और परवाह


सोने से पहले मैं इन फूलों को चूमुंगा जो बेले की नाजुक डालियों पर लगी हैं । बहुत देर  से मैं सफ़ेद बूंदों सी उन कलियों को देख रहा हूँ   उन्हें  देखते हुए काफी समय बीत गया लेकिन मैं यह नहीं जान पाया कि कब उस बूंद ने अपने सभी हाथ खोल दिए ! सभी हाथों की बारी तो बाद में आती पहले एक हाथ कब उस बूंद से अलग हुआ यह तक पता नहीं चल पाया ।

पेड़ या कि पौधा होना एक प्रक्रिया है न तो फूल ही इस प्रक्रिया का परिणाम है न ही फल । भाषाओं नेफलको अंतिम जरूर माना है लेकिन क्या यह अंतिम है ? नए बीजों का संकुल तो फलों में ही आकार लेता है ! गमले की मिट्टी जो मेरे सोने के कमरे में ही नहीं बल्कि पूरे घर में  धरती की पहली और आखिरी पहचान है उस जमीन का ही अंग है जो बाहर फैला है । बाहर की धरती से कटकर भी इस जमीन में से कुछ लगातार गमले में खड़े बेला के पौधे में चढ़ रहा है – भीतर ही भीतर और बहुत तेजी से । जो भी पौधे में है उसकी पहचान नहीं हो पा रही है । पहचान तो बस उन हरे पत्तों की या दूध की मोटी बूंद सी कलियों की । पत्ते हरे और पौधे का हर अंतिम छोर या तो सफ़ेद या सफ़ेद होने की प्रक्रिया में !

फूल का खिलना न देख पाना नज़रों को दिया गया धोखा सा लगता है । मुझे लगता है कि फूलों की दुनिया में बहुत इतमीनान है । हमारी दुनिया से तो बहुत ज्यादा । मतलब हम यदि अपनी गति धीमी कर लें तो शायद उस प्रक्रिया को देख सकते हैं जो हमारे सामने होती है लेकिन हमें उसका पता नहीं चलता है । पर ऐसी कौन सी गति है जो धीमी कर लें ?

विज्ञान ने ऐसे कैमरे बनाए या ऐसा तरीका विकसित किया जिससे फूलों के खिलने की प्रक्रिया को बहुत तेज़ कर के दिखाया जाता है जिससे पता चलता है कि पहले क्या हुआ था या बाद में क्या हुआ । इसका अर्थ हुआ कि हमारे देखने का तरीका ऐसा है कि हमें तेज़ी से बदलती हुई चीजें ही दिख पाती हैं ।

तकनीक में आ रहे हर छोटे से छोटे से बदलाव को हम पकड़ ले रहे हैं लेकिन बहुत सारे कला रूप धीमी मौत मर गए । जो धीमी मौत मर रहे हैं हमें वे भी नहीं दिख रहे हैं । गिद्ध, गौरैये  आदि एकाएक नहीं चल दिए होंगे हमारा पड़ोस छोडकर । वैसे ही गाँव में काम की कमी देखकर पहले कुछ ही लोग शहर खटने गए होंगे । मुझे तो ऐसा भी लगता है कि बच्चों ने अचानक नहीं छोड़ा होगा  किताबें पढ़ना । धीरे धीरे हुआ होगा यह सब –बहुत धीरे !

धीरे धीरे हो रही ये सारी प्रक्रियाएँ हमारी नज़रों के सामने से गुजरी और हम ही थे जो उसे महसूस तक  नहीं कर पाये । उनका धीमा होना ही उनकी गलती थी । हमारी ज़िम्मेदारी में तो उतना ही है जो हम समझ पाएँ फिर चाहे कोई चीज लुप्त हो जाये या रहे हम उसकी परवाह नहीं करते । है न !

किसी स्थिति की या किसी की परवाह करना कई बार हमारी बेबसी को हमसे खींचकर हमारे सामने रख देता है । क्योंकि हम परवाह कर सकते हैं और कुछ नहीं । फिर इस परवाह के नुकसान भी बहुत हैं । मैं जेएनयू की परवाह करता हूँ । उसके लिए तथा उसके माध्यम से हर उस बात के लिए कई बार लोगों से बहस की है जो अंतिम आदमी के लोकतान्त्रिक अधिकार को खत्म करती हो । ऐसी बातें आजकल आम है सो बहस भी आए दिन ही होती है ।

एक सहकर्मी ने मेरे लिए सीधे सीधे टेररिस्ट शब्द का प्रयोग किया । यूं तो यह हंसने वाली बात ही है और कोई और स्थिति होती तो मैं भी हँसता लेकिन आज के संदर्भ में यह एक विशेषण है जो हर कोई अपने से भिन्न विचार रखने वालों पर चिपकाता चल रहा है । एक दिन भारत के प्रधानमंत्री ने कहा था कि कुछ लोगों का काम हो गया है सुबह से शाम तक मेरी बुराई करना । अगले दिन उनका यह बयान द हिन्दू के बॉक्स में छपा । एक अन्य सहकर्मी दिन भर मेरे सामने या मुझे लक्ष्य करके दूसरों के सामने दोहराता रहा कि दिस इज फॉर आलोक । उसके बाद लंबे और ऊंचे ठहाके लगते रहे ।

जेएनयू वाला ही मसला है लेकिन संदर्भ आईआईएमसी में पढ़ने वाली मेरी एक दोस्त का है । घर में उसके पिताजी ज़ी न्यूज़ देखते हैं । जे एन यू के पास पढ़ने वाली लड़की को उसकी हवा न लगे ऐसा होना कठिन है । यदि ऐसा होता है तो इससे बुरा कुछ नहीं है । लड़की जिस वातावरण से घर आती थी वहाँ ठीक उसके उलट वातावरण रहता था । पत्रकारिता पढ़ने वाली बेटी की राय पिता जानना चाहते । बहुत कुरेदने पर ही वह अपनी राय रखती । भारतीय परिवार में , पिता के सामने , लड़की पिता से ठीक विपरीत राय रखे तो बाद की स्थिति की कल्पना करना कठिन नहीं है । घर में चर्चा की जगह कोहराम भर जाता था । शायद खिड़कियों और आँखों से भी कुछ निकलता हो !

आह फिर से जे एन यू और फिर से वही सब । मैं कह सकता हूँ कि उस विश्वविद्यालय पर की गयी अनर्गल टिप्पणियाँ मेरे खून का दबाव बढ़ा देती थी । कई बार सोचा कि अब बस दूर हो जाऊँ हर उस माध्यम से जो मुझ तक जेएनयू की खबर लाती है । लेकिन क्या हुआ से जब क्या हो रहा है महत्वपूर्ण हो जाता है तो कहाँ सब्र है ! फिर एक से दूसरे पर और दूसरे से तीसरे पर होते होते फिर से नए तरह का गुस्सा , नया तनाव भर जाता था !  पर अब नहीं ! अब तो जे एन यू के समर्थन में बहुत से लोग आ गए हैं , सरकार की भी किरकिरी हो रही है ।


मैं वापस फूलों पर नहीं आ रहा हूँ ।  मैं तो फूलों पर ही था कमरे में भरे हुए इनके सम्मिलित सुगंध पर । और यह सुगंध भी कब निकला दूध की उन मोटी बूंदों से मैं जान नहीं पाया ! 

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