किसी भी स्थान पर सरकार की आलोचना करने वाले
लोग सरकार की प्रशंसा करने वालों के मुक़ाबले ज्यादा संख्या में होते हैं । होने भी
चाहिए अन्यथा सरकारी कामकाज पर उंगली नहीं उठेगी । उंगली नहीं उठी तो सरकारें
निरंकुश हो जया करेंगी । लेकिन इसका आज के समय में सीधा अर्थ यह लिया जाता है कि
सरकारों की आलोचना ही की जाए ।
यह एक तरह से स्वाभाविक भी हो जाता है । क्योंकि
बिहार जैसे राज्य में जहां सुविधाओं की इतनी कमी है वहाँ जब सुविधाओं को लेकर
जागरूकता ज्यादा तेज़ी से अपना विस्तार करने लगे तो उपलब्ध सुविधाओं पर दबाव बढ़ता
है और यह दबाव सीधे सरकारी कामकाज पर सवाल उठाने के लिए प्रेरित करता है ।
यह तो मानी हुई बात है कि बिहार विकास के तय
मानकों पर वहाँ नहीं ठहरता जहां देश के बहुत से अन्य राज्य आते हैं । शहरीकरण ,
शहरों के रखरखाव , औद्योगीकरण और उसके आधार पर यदि रोजगार
सृजन की बात करें तो राज्य में इसका बड़ा अभाव दिखता है । उद्योग धंधों की राज्य से
कई अपेक्षाएँ हैं और राज्य उन्हें पूरा करने की स्थिति में नहीं है । फिर राज्य का
अतीत उसका पीछा नहीं छोडता ।
बिहार के नागरिक के तौर पर एक व्यक्ति अपने राज्य से
बाहर जो महसूस करता है वह शायद ही किसी और राज्य के लोग करते हों । बिहार को दूसरे
राज्यों के लोग एक प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करते हैं वह भी इसलिए कि वे अपने
वर्तमान को ढँक सकें या अपने अतीत या वर्तमान के लिए एक मिसाल दे सकें । बिहार की
यह तस्वीर बाहर ज्यादा घूमती फिरती है । आलोचना होनी ही चाहिए और उसे स्वीकार करने
की हिम्मत होनी ही चाहिए । क्योंकि आलोचनाएँ ही वास्तविक कमियाँ दिखाती हैं ।
उन्हीं के आधार पर यदि कमियों को दूर करने के लिए कोई कृत संकल्प है तो वह काम कर
सकता है । लेकिन यह आलोचना होनी कैसी चाहिए यह एक बड़ा प्रश्न है । यदि आलोचना
पूर्वाग्रह से निर्दिष्ट हों तो उस आलोचना का कोई मूल्य नहीं है । क्योंकि वह
वास्तविक आलोचना के बदले कुछ सतही और गैर-जरूरी सवाल उठा कर ही समाप्त हो जाती है
। उस तरह की आलोचनाओं का उद्देश्य केवल क्षणिक लक्ष्यों को प्राप्त करने तक ही
सीमित रहता है । बहरहाल यहाँ आलोचना किस तरह की हो यह समझाना उद्देश्य नहीं है
बल्कि बात को उस ओर ले जाना है जहां से यह समझ सकना आसान हो जाये कि बिहार सरकार
की प्रशंसा भी की जानी चाहिए ।
कोसी नदी बिहार का शोक थी और है । इस नदी पर
बांध बनाकर और दूर दूर तक नदी को बांध देने के बाद भी इसकी विभीषिका पर नियंत्रण
लगा पाना पूर्णतः संभव नहीं हुआ है । नदी ने अपना मार्ग बदलकर पिछले दिनों भयंकर
तबाही मचाई और नई पीढ़ी के जेहन में भी अपने नाम की छाप छोड़ी । अब नयी पीढ़ी के लोग
भी अपनी आने वाली पुश्तों को यह बताते रहेंगे कि कोसी बिहार का शोक है और वे खुद
झेल चुके हैं ।
ऐसी कोसी नदी के तटबंध की बात करते हैं ।
नेपाल से बिहार में प्रवेश करती हुई कोसी के पूर्वी और पश्चिमी तटबंधों के बीच
सहरसा और सुपौल जिले के सैकड़ों गाँव बसे हैं । उन तटबन्धों के उस पार भी सैकड़ों
गाँव होंगे । जो दरभंगा जिले में आते हैं । कोसी तटबंध के तुरंत बाद कमला नदी का
तटबंध शुरू हो जाता है । इस तरह से देखा जाये तो एक बड़े दायरे में ये तटबंध फैले
हैं और इनके भीतर व इनके पार लाखों की आबादी बसती है । आबादी का यह विस्तार नदियों
के फ़्लड प्लेन में आता है । जिसका अर्थ है कि वहाँ हर साल पानी भर जाना एक
स्वाभाविक सी प्रक्रिया है । विकास के सभी मानकों पर देखा जाए तो ये गाँव काफी
पिछड़े लगते हैं । लेकिन जब बाढ़ का पानी हटता है तब उपज बड़ी शानदार होती है । समय
और पानी की अवस्था व उपलब्धता के आधार पर लोगों ने अपना ही फसल चक्र विकसित कर
लिया है । इससे एक बड़ी उपज मिल जाती है । ऊपरी तौर पर देखें तो यह इलाका काफी
समृद्ध माना जा सकता है । लेकिन दूसरे समाजर्थिक पहलू इसे उतने समृद्ध नहीं ठहराते
थे । इसकी सबसे बड़ी वजह थी इन गाँवों का मुख्य भूमि से कटा हुआ होना ।
सहरसा और दरभंगा नामक दो शहरों के बीच यदि
सीधी रेखा खींची जाये तो यह दूरी दो घंटे में पूरी की जा सकती है । साथ में यह
जानना भी जरूरी हो जाता है कि यह सीधी रेखा कोसी और कमला के तटबंधों के बीच से ही
गुज़रेगी और इस बीच नदियों की पचास से ऊपर धाराएँ हैं जो ऐसी किसी भी सीधी रेखा को
सफल न होने देने के लिए पर्याप्त हैं । नदियों की इन्हीं धाराओं के आसपास की ऊंची
जमीन बस्तियों के काबिल हो गयी और बाढ़ के पानी से निथरी जमीन उपजाऊ खेत में बदल गए
।
अब थोड़ा विचार तटबंध के भीतर के जीवन पर ।
सहरसा,
सुपौल आदि जिले जहां कोसी का कहर बना रहता है वहाँ ‘बांध के भित्तर’मुहावरे का
प्रचलन उन गाँवों के लिए किया जाता है जो
तटबंध के भीतर हैं । अब इस मुहावरे की व्यंजना देखिए । बांध के भित्तर माने ऐसा
इलाका जो स्थानीय शहर तक से केवल नाव और पैदल संपर्क के जरिये ही जुड़ा हुआ हो ।
नाव भी इस तरह नहीं कि एक नाव पर चढ़े और नदी पार कर के शहर आ गए । ऐसे भी गाँव हैं
लेकिन बात उन सुदूरवर्ती गाँवों की जरूरी है जहां से शहर आने के लिए कम से कम बीस
बार नाव की सवारी करनी पड़े । उन गाँवों के बारे में कहा जाता है कि वहाँ यदि साँप
काट ले तो लोग प्रभावित व्यक्ति को आँगन में लिटा कर उसके चारों तरफ अगरबत्ती जला
देते हैं और उसके मरने की प्रतीक्षा करते हैं । क्योंकि वैसे भी मुख्य अस्पताल
जहां सर्पदंश का इलाज़ है वहाँ तक पहुँचते पहुँचते उसकी मृत्यु निश्चित है । इसलिए कोई
फायदा नहीं है इतने कष्ट उठाने का । हो सकता है यह अतिशयोक्ति हो लेकिन उन गाँवों से
शहर तक इलाज़ के लिए आना टेढ़ी खीर तो है ही । ऐसे ही इलाकों में यदि लोग बाहर से चले
जाएँ तो अपने को अवश्य ही फंसा हुआ महसूस करेंगे ।
लेकिन यह स्थिति बड़ी तेज़ी से बदल रही है । जिसका
श्रेय सौ फीसदी सरकार को जाता है । राज्य की सरकार ने पिछले 7-8 सालों में इस इलाके
को बदल कर रख दिया है । हालांकि यह प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है लेकिन अपने 80 प्रतिशत
के बल पर ही इसने तटबंध के भीतर की स्थिति को बदल कर रख दिया है । ऊपर सहरसा से दरभंगा
के बीच जिस काल्पनिक सीधी रेखा की बात की गयी है वह काल्पनिक नहीं है बल्कि वही रेखा
यह तस्वीर बदल रही है ।
सरकार ने इस सड़क को बनाने का काम युद्ध स्तर
पर चला रखा है और काम दोनों ही तरफ से हो रहा है । थोड़े से हिस्से को छोड़ दें तो काम
पूरा हो चुका है । जो बचा है उसके भी 2017 तक खत्म हो जाने की उम्मीद है । यह एक ऐसी
सड़क है जिस पर पुल ही पुल दिखते हैं जो कोसी और उसकी सायहक धाराओं पर बनाए गए हैं ।
उस सड़क पर इतने तो पुल ही बन गए हैं कि साधारण लोग भी पुल और सड़क बनने की सामान्य प्रक्रिया
बता सकते हैं । जब भी कोई यह अजूबा देखने उस ओर जाता है स्थानीय लोग उसे अपने ही तरीके
से सड़क बनाने और पुल बनाने की प्रक्रिया समझाते हैं । यह सुनने में हास्यास्पद लग सकता
है लेकिन सच यही है ।
अब देखते
हैं इसके प्रभाव को । जिन नदियों को केवल नाव और तैर कर ही पार किया जा सकता था उनके
ऊपर पुल बन जाने से जीवन कितना सरल हो सकता है इसकी बस कल्पना ही की जा सकती है । सड़क
के किनारे फूस के लंबे से झोंपड़े में कोई ‘पब्लिक स्कूल सह कोचिंग सेंटर’ चलता है उसमें खरामा
खरामा चलती बैलगाड़ी से बच्चे पढ़ने आने लगे हैं । यह शिक्षा का कोई आदर्श रूप नहीं है
लेकिन शिक्षा की पहुँच को इस सड़क ने जिस तरह से सुनिश्चित किया है वह कबील ए तारीफ
है । सरकारी विद्यालय भी अपने नवीन रूपों में खड़े नजर आते हैं जिसकी कल्पना दस साल
पहले नहीं की जा सकती थी ।
सड़क के दोनों ओर मक्के की फसल और कहीं कहीं गरमा
धान की खेती , सड़क पर कहीं कहीं नदियों से निकाली
हुई ताज़ा मछलियाँ , कहीं पानी के बड़े गड्ढे में लहलहाते कमल के
फूल यह रौनक है अब वहाँ । मुख्य सड़क से नीचे
छोटी छोटी सड़कें निकाल दी गयी हैं जो गाँवों को उस सीधी रेखा से जोड़ती है जो अब दोनों
शहरों तक जाती है । जहां से छोटी सड़कें शुरू होती हैं वे छोटे और नए लेकिन भविष्य के
बड़े व्यापारिक केन्द्रों के रूप में उभर रहे हैं । वहाँ अभी छोटा ही सही लेकिन एक बाज़ार
जरूर विकसित हो रहा है । यह ऐसी स्थिति है जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी ।
तटबंध के भीतर बस्ने वाले लोग सोच भी नहीं सकते थे कि उनके दिन इस तरह फिरेंगे । अब
लोग अपनी फसल को शहर तक ले जा सकते हैं । अपने
लिए बेहतर स्वस्थ्य सेवाओं को प्राप्त कर सकते हैं ।
इसके साथ साथ दूसरी जरूरी बात करनी है विकास
के मॉडल की । जिस तरह से इस सड़क ने अपना स्वरूप लिया और तटबंध के भीतर बसे गाँवों की
दशा को बदलना शुरू किया वह विकास के किसी भी मानक में फिट बैठता है । इसके बावजूद यह
नहीं कहा जा सकता कि आसपास के गाँवों ने विकास की कीमत चुकाई है । हालाँकि ऐसा कहने
के लिए यह सही वक्त नहीं है क्योंकि इसके प्रभावों पर विचार करने के लिए एक लंबे अध्ययन
की आवश्यकता है लेकिन फौरी तौर पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि इसने गाँवों के मूल
रूप से छेड़छाड़ नहीं की है । इसका सबसे बड़ा कारण है गाँवों का सड़क से दूर होना । सड़क
से दूर बसे गाँव सड़क से जुड़े जरूर हैं लेकिन सड़क पर नहीं हैं । विकास का यह स्वरूप
ज्यादा प्रिय लगता है जहां गाँव गाँव रहते हैं लेकिन उन तक सुविधाएं सभी पहुँच जाती
हैं । एक संरचना को तोड़ कर किया जाने वाला
विकास जड़ें खोदने वाला विकास होता है ।
सरकार ने जिस तरह ग्रामीण विकास को प्राथमिकता दी है वह महत्वपूर्ण है । विकास का साधारण अर्थ लिया जाता है शहरों का विकास , वहाँ की चमक दमक लेकिन बिहार के शहर आपको इस बात पर निराश ही करेंगे । वहाँ देखें तो विकास की गति काफी धीमी नजर आती है या न के बराबर विकास भी दिखाया जा सकता है लेकिन उसकी कीमत पर जहां विकास दिखता है वह संतोष प्रदान करने वाला है । शहरों को तो ठीक ठाक सुविधाएँ मिल ही जाती हैं लेकिन बहुत सी सुवधाओं से जो गाँव वंचित थे उन्हें सुविधा प्रदान करा देना बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है ।
सरकार को वहाँ अभी बहुत से काम करने हैं । अगली
जरूरी बात है सुदूर गाँवों को बिजली उपलब्ध करवाना । इसके साथ ही छोटी सड़कों के नेटवर्क
में विस्तार करना और बिहार सरकार की एजेंसियां
इसमें लगी भी हुई हैं । इसके बाद ये ऐसे गाँव होंगे जो अपने नदियों के जाल से पर्यटन
की एक नयी राह खोल सकते हैं । हालाँकि यह दूर की कौड़ी लगती है लेकिन आज से पंद्रह साल
पहले वह सीधी रेखा भी ऐसी ही लगती थी ।